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समाज

टूट रही हैं एशिया के कपड़ा मजदूरों की यूनियनें

१५ जुलाई २०२०

भारत की कपड़ा मिलों से लेकर कंबोडिया के गोदामों तक, कपड़े बेचने वाली बड़ी कंपनियों के लिए काम करने वाले मजदूर शिकायत कर रहे हैं कि कोरोना वायरस महामारी की वजह से गिरी हुई मांग की आड़ में उनके यूनियनों को तोड़ा जा रहा है.

Bekleidungsfabrik in Indien
तस्वीर: AFP/Getty Images/M. Sharma

महामारी के असर की वजह से चीन, बांग्लादेश, भारत, कंबोडिया और म्यांमार जैसे उत्पादन के केंद्रों में अरबों डॉलर के मूल्य के ऑर्डर रद्द कर दिए गए हैं. इसकी वजह से एशिया के गरीब देशों में लाखों लोग बेरोजगार हो गए हैं. लेकिन कपड़ा मजदूरों का आरोप है कि इस वित्तीय उथल-पुथल ने फैक्टरी मालिकों को उन फैक्टरियों को निशाना बनाने का मौका दे दिया है जहां मजदूर संघों ने बेहतर वेतन और काम करने के बेहतर हालात की मांग उठाई है.

दक्षिण भारत के कर्नाटक राज्य में फैला कपड़ा उद्योग भारत के विशाल कपड़ा उत्पादन क्षेत्र का लगभग 20 प्रतिशत है. राज्य में जून की शुरुआत में जब यूरो क्लोदिंग कंपनी की फैक्टरी बंद हुई तब से मजदूर नेता पद्मा रोज फैक्टरी के बाहर बैठ कर उसके बंद किए जाने का विरोध कर रही हैं. 49 वर्षीया पद्मा उन 1200 मजदूरों में एक हैं, जिन्हें झटके में निकाल दिया गया. इनमें से 900 मजदूर एक संघ के साथ जुड़े हुए थे. पद्मा स्वीडन की मशहूर कंपनी एचएंडएम के लिए यहां बनने वाले पैंट, जैकेट और टी-शर्टों का निरीक्षण करती थीं. वे कहती हैं, "मैं पिछले 10 सालों से यहां रोज के 348 रुपयों के लिए पसीना बहा रही हूं."

मजदूरों को निकालने का बहाना

फैक्टरी की मूल कंपनी का नाम है गोकलदास, जो कि कर्नाटक की सबसे पुरानी उत्पादन कंपनी है और 20 से भी ज्यादा फैक्टरियां चलाती है. लेकिन पद्मा बताती हैं कि यह गोकलदास समूह की एकमात्र फैक्टरी है जिसमें मजदूरों का एक संघ सक्रिय है. पद्मा ने एएफपी को बताया, "वे लंबे समय से मजदूर यूनियन से छुटकारा पाना चाहते थे और अब कोविड-19 का एक बहाने की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं." पद्मा का आरोप है कि मजदूरों को बिना किसी नोटिस के "गैर-कानूनी रूप से नौकरी से निकाला गया."

तमिलनाडु के कपड़ा मजदूरतस्वीर: TTCU

न्यू ट्रेड यूनियन इनिशिएटिव के महासचिव गौतम मोदी का कहना है कि कंपनी "कोविड की आड़ में यूनियन को तोड़ रही है." मोदी का संगठन पूरे भारत में सैकड़ों मजदूर समूहों का प्रतिनिधित्व करता है. मोदी ने एएफपी को बताया कि जिस फैक्टरी को बंद किया गया है वह "एकलौती ऐसी फैक्टरी थी जहां अधिकतर मजदूर यूनियन के सदस्य थे."

गोकलदास ने टिप्पणी के अनुरोध का कोई जवाब नहीं दिया लेकिन एचएंडएम ने फैक्टरी के बंद होने की पुष्टि की. एचएंडएम ने एएफपी को बताया, "हम स्थानीय और वैश्विक ट्रेड यूनियनों और उनके साथ साथ सप्लायर कंपनी के साथ बातचीत कर रहे हैं ताकि स्थिति का शांतिपूर्ण ढंग से समाधान निकाला जा सके." न्यू ट्रेड यूनियन इनिशिएटिव के अनुसार एचएंडएम गोकलदास की चार और फैक्टरियों से कपड़े खरीदती है.

एशिया की टेक्सटाइल फैक्टरियों ने करोड़ों लोगों को रोजगार दिया है और कई गरीब देशों के लिए बेहद जरूरी विदेशी मुद्रा भी लाती रही हैं, लेकिन महामारी ने इस क्षेत्र को तबाह कर दिया है. अकेले बांग्लादेश में, 10,000 से भी ज्यादा मजदूर बेरोजगार हो गए हैं. अधिकार समूह बांग्लादेश गारमेंट्स एंड शिल्पो श्रमिक फेडरेशन के अध्यक्ष रफीकुल इस्लाम सुजोन कहते हैं कि इनमें से लगभग आधे मजदूर यूनियनों के साथ जुड़े हुए हैं.

यूनियन पसंद नहीं मालिकों को

मजदूरों के अधिकारों के लिए अभियान चलाने वालों का कहना है कि कई फैक्टरियां लंबे समय से यूनियनों के काम को नापसंद करती आई हैं और मजदूरों को एकत्रित होने से रोकती आई हैं. सबसे ज्यादा आवाज उठाने वाले मजदूर नेताओं को या तो सताया जाता है या नौकरी से निकाल दिया जाता है. सॉलिडेरिटी सेंटर के जेमी डेविस कहते हैं कि आर्थिक तंगी ने "इस रणनीति को बड़े पैमाने पर लागू करने का एक रास्ता" खोल दिया है. सॉलिडेरिटी सेंटर मजदूरों के अधिकारों के लिए काम करने वाला संगठन है जो अमेरिका के संघों के फेडरेशन एफेल-सीआईओ से जुड़ा हुआ है. बड़ी कंपनियों से अब अपील की जा रही है कि वे अपनी वित्तीय ताकत का इस्तेमाल उनकी आपूर्ति श्रृंखला की सबसे कमजोर कड़ियों को बचाने के लिए करें.

खराब हालत है कपड़ा मजदूरों कीतस्वीर: AP

श्रम वॉचडॉग वर्कर राइट्स कंसोर्टियम के स्कॉट नोवा ने कहा, "इन बड़े नामों को यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि वे उल्लंघन जारी रखने वाली फैक्टरियों से अपने व्यापारिक रिश्ते तोड़ देंगे." उन्होंने कहा, "श्रमिकों को किसी यूनियन के साथ जुड़े होने की वजह से निकालना या यूनियन की मौजूदगी की वजह से किसी फैक्टरी को बंद करना गैर-कानूनी है. इस तरह के उल्लंघनों को रोकने के लिए कंबोडिया, म्यांमार और भारत जैसे अधिकतर देशों में कानून हैं, लेकिन दुर्भाग्यवश इनका कड़ाई से पालन नहीं कराया जाता." 

म्यांमार में कपड़ा उद्योग अभी नया क्षेत्र है. महामारी से पहले इसे समृद्धि का आकाश-दीप माना जाता था, लेकिन मई में स्पेनिश फैशन ब्रांड जारा जैसी कंपनियों के लिए कपड़े बनाने वाली रुई निंग फैक्टरी से 298 श्रमिकों को निकाल दिया गया. नौकरी वापस पाने को बेचैन संघठित श्रमिकों ने जारा की मूल कंपनी इंडीटेक्स फैशन समूह के संस्थापक अमान्तिओ ओर्तेगा को एक भावुक चिट्ठी लिखी. चिठ्ठी में लिखा था, "हमें विश्वास है कि आपके जैसे धनी व्यक्ति को हमारी यूनियनों को तोड़ कर इस वैश्विक महामारी से लाभ उठाने की कोई भी जरूरत नहीं होगी."

बेहतर जिंदगी की मांग के नतीजे

फोर्ब्स के अनुसार ओर्तेगा 62.8 अरब डॉलर की संपत्ति के मालिक हैं और दुनिया के छठे सबसे अमीर व्यक्ति हैं. इंडीटेक्स ने कहा कि उसे इन श्रम विवादों की जानकारी है और बताया की समूह की आचरण-संहिता में "श्रमिकों के प्रतिनिधियों के खिलाफ भेदभाव पर स्पष्ट रूप से रोक है." अरबों डॉलर की कमाई वाली इस तरह की दूसरी कंपनियां भी सार्वजनिक तौर पर यही कहती हैं, क्योंकि श्रमिकों के शोषण के आरोपों से उनकी छवि को चोट लगती है. जर्मन सरकार अगस्त तक एक ऐसा कानून बनाना चाहती है जो बड़ी कंपनियों को इसके लिए जवाबदेह बनाएगा कि सप्लायर कंपनियों में सामाजिक और पर्यावरण के मानकों का पालन हो.

ज्यादातर महलाएं हैं कपड़ा उद्योग मेंतस्वीर: AFP/Getty Images/S. Mehra

सबसे बुरे मामलों में तो हालात यहां तक खराब हैं कि नौकरी से निकाले जाने के खिलाफ आवाज उठाने वाले श्रमिक जेल में हैं. कंबोडिया की यूनियन प्रतिनिधि सॉय स्रोस ने अप्रैल में नॉम पेन्ह के बाहर स्थित सुपर्ल फैक्ट्री से दर्जनों श्रमिकों के निकाले जाने का विरोध करने के लिए फेसबुक का सहारा लिया. सुपर्ल हांगकांग की एक कंपनी है जो माइकल कोर, टोरी बर्च और केट स्पेड जैसे ब्रांड के लिए चमड़े के हैंडबैग बनाती है. फेसबुक पर पोस्ट लिखने के 48 घंटे बाद सॉय मजदूरों को भड़काने के आरोपों  के तहत जेल में थीं. उन्हें 55 दिनों बाद रिहा किया गया लेकिन उन पर लगाए गए आरोप अभी भी हटाए नहीं गए हैं. कंबोडिया में श्रमिकों के एक और नेता पाव सिना ने बताया कि उनकी यूनियन के साथ जुड़े हुए 2,000 से भी ज्यादा श्रमिकों के कॉन्ट्रैक्ट रद्द कर दिए गए हैं. उन्होंने कहा, "इससे पहले फैक्टरियां ऐसा नहीं कर सकती थीं लेकिन कोविड ने उन्हें यह मौका दे दिया है."

अगर जर्मनी का कानून सफल रहता है तो विकासशील देशों की कंपनियां अपने मजदूरों को सताकर अपना सामान पश्चिमी देशों की कंपनियों को नहीं बेच पाएंगी. बहुत से लोग पश्चिमी उद्यमों के साथ कारोबार करने वाली कंपनियों की कम वेतन की नीति को लोगों के पलायन के लिए जिम्मेदार मानने लगे हैं. जर्मनी की प्रमुख राजनीतिक पार्टियों और ट्रेड यूनियनों को भरोसा है कि देश की बड़ी कंपनियों पर दबाव डालकर स्थिति को बदला जा सकता है.

सीके/आईबी (एएफपी) 

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