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विकराल रूप लेती जा रही है उत्तराखंड के जंगलों की आग

समीरात्मज मिश्र
२७ मई २०२०

उत्तराखंड के जंगलों में पिछले चार दिनों से लगी आग भीषण रूप लेने लगी है और कई इलाकों में फैल गई है. गर्मी के मौसम और जंगलों की सूखी घास और सूखे पेड़-पत्तों की वजह से आग तेजी से फैल रही है.

Indien Waldbrände in Uttarakhand
फाइल तस्वीर: Imago/Xinhua/Indian Ministry of Defence

उत्तराखंड के पौड़ी-गढ़वाल जिले के श्रीनगर इलाके के जंगलों में शनिवार को लगी आग को बुझाने की हर संभव कोशिश की जा रही है लेकिन यह बुझने का नाम नहीं ले रही है. बताया जा रहा है कि आग के कारण दो लोगों की मौत हो गई है और वन्य जीवों के साथ पर्यावरण को भी काफी नुकसान पहुंचा है. आग के कारणों के बारे में नहीं पता चल सका है.

वन विभाग की अधिकारी अनिता कुंवर बताती हैं, "इस इलाके में आग से करीब पांच-छह हेक्टेयर जंगल जलकर राख हो गया है. आग बुझाने के लिए लगातार प्रयास हो रहे हैं लेकिन तेज हवा और जंगल में सूखी लकड़ियों, पत्तियों की वजह से आग पर काबू नहीं पाया जा सका है. अभी कई और टीमें बुलाई जा रही हैं.”

गर्मी के दिनों में पहाड़ी इलाकों में सूखे पत्तों और घास-फूस में किन्हीं कारणों से आग लग जाती है, जो देखते ही देखते विकराल रूप धारण कर लेती है. उत्तराखंड के जंगलों में पिछले साल भी इसी तरह आग लगी थी जिसमें करीब दो हजार हेक्टेयर से ज्यादा जंगल जलकर राख हो गया था.

कई हेक्टेयर जंगल साफ

पौड़ी-गढ़वाल के अलावा पिथौरागढ़ के डीडीहाट रेंज में भी पिछले कुछ दिनों से लगी आग के कारण दो हेक्टेयर जंगल जलकर खाक हो गया है. डीडीहाट वन क्षेत्र में पिछले चार महीने में आग लगने की आठ घटनाएं हो चुकी हैं जिसमें अब तक करीब 13 हेक्टेयर जंगल जल चुके हैं. बताया जा रहा है कि इस साल लगातार हुई बारिश की वजह से जंगलों में काफी नमी थी जिससे जंगल आग से बचे रहे लेकिन जैसे ही नमी कम होने लगी, जंगल आग की चपेट में आते गए.

पिथौरागढ़ के प्रभागीव वन अधिकारी विनय भार्गव कहते हैं, "तापमान बढ़ने से जंगलों में आग लगने की घटनाएं बढ़ने की आशंका रहती है. इसे देखते हुए विभाग के अधिकारियों और कर्मचारियों को सतर्क कर दिया गया था. जंगलों में आग लगने की सूचना मिलते ही वन विभाग की टीमें मौके पर पहुंच रही हैं और आग बुझाने की कोशिशें हो रही हैं. इधर तेज हवा और गर्मी की वजह से आग तेजी से फैलती भी है और बुझाने में भी दिक्कतें आती हैं लेकिन जल्द ही इस पर काबू पा लिया जाएगा.”

फाइल तस्वीर: Imago/Hindustan Times/A. Moudgil

उत्तराखंड में इस साल जंगलों में आग की 46 से भी ज्यादा घटनाएं दर्ज की गई हैं, जिसके चलते 71 हेक्टेयर से ज्यादा जंगल बर्बाद हो गए हैं. उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में आग की कम से कम 21 घटनाएं सामने आई हैं, जबकि गढ़वाल क्षेत्र में 16 घटनाएं दर्ज की गई हैं. इसके अलावा अनारक्षित वन क्षेत्र में जंगल की आग की नौ घटनाएं दर्ज की गई हैं.

हालांकि सरकारी आंकड़ों के मुताबिक पिछले साल की तुलना में आग की घटनाओं और उनसे हुए नुकसान में काफी कमी आई है. राज्य के सूचना विभाग के अनुसार, पिछले साल इसी अवधि में 1590 हेक्टेयर जंगल भूमि की तुलना में इस साल 25 मई तक जंगल में लगी आग के कारण करीब 72 हेक्टेयर भूमि ही प्रभावित हुई है.

राज्य के सूचना विभाग ने ट्वीट के जरिए लोगों को अफवाहों से बचने की भी सलाह दी है. सूचना विभाग की ओर से किए गए ट्वीट में कहा गया है, "पिछले साल की तुलना में गर्मी के इस मौसम में उत्तराखंड में आग की घटनाओं में कमी आई है. दरअसल, कम मानवजनित गतिविधि और आंशिक रूप से हुई बारिश के कारण इस साल आग की घटनाओं में कमी दर्ज की गई है.”

हर साल आग

जंगलों में लगने वाली आग के कारण हर साल राज्य के वनों का पारिस्थितिकी तंत्र, जैव विविधता और आर्थिक तौर पर काफी नुकसान होता है. इसके अलावा कई दुर्लभ और अन्य वन्य जीव भी मारे जाते हैं.

उत्तराखंड के जंगलों में लगभग हर साल आग लगने की घटनाएं सामने आती रही हैं. साल 2019 में उत्तराखंड हाई कोर्ट में एक याचिका दायर की गई थी जिसमें आग लगने की घटनाओं की जांच एक स्वतंत्र एजेंसी से कराने की भी मांग की गई थी. याचिका में यह भी कहा गया था कि दो राष्ट्रीय उद्यानों – जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क और राजाजी नेशनल पार्क जंगल की आग के कारण खतरे में हैं.

साल 2016 में भी यहां के जंगलों में भीषण आग लगी थी जो कई दिनों तक नहीं बुझ सकी थी. साल 2016 में साढ़े चार हजार हेक्टेयर से ज्यादा जंगल आग की चपेट में आकर बर्बाद हो गया था. बताया जाता है कि साल 2000 में उत्तराखंड के अलग राज्य बनने के बाद से अब तक करीब पैंतालीस हजार हेक्टेयर जंगल आग में स्वाहा हो चुका है.

पर्यावरणविद इस बात पर भी सवाल उठाते हैं कि जब सरकार को इस बात की जानकारी है कि गर्मी के मौसम में आग लगने की घटनाएं होती हैं तो उन्हें पहले से ही रोकने की कोशिश क्यों नहीं की जाती? यदि वन विभाग पहले से तैयारियां किए रहे तो आग लगने की घटनाओं को रोका भले ना जा सके लेकिन आग लगने पर तत्काल बुझाने के इंतजाम तो किए ही जा सकते हैं.

आग बुझाने का तंत्र नहीं

पिछले साल भी जिन इलाकों में आग लगी थी वहां जंगल आग से कई दिन तक जलते रहे लेकिन आग पर काबू नहीं पाया जा सका था. पिथौरागढ़ के रहने वाले सुधीर कांडपाल बताते हैं कि वन विभाग की तैयारियां तो इस तरह थीं कि यदि आग लगने वाले इलाकों में ग्रामीणों का सहयोग ना मिले तो जब तक बारिश ना हो, आग पर काबू पाया ही नहीं जा सकता. यह स्थिति तब है जबकि वन विभाग को आग रोकने और उस पर नियंत्रण पाने के लिए हर साल करोड़ों रुपये दिए जाते हैं.

भारतीय वन अनुसंधान संस्थान, देहरादून में वैज्ञानिक रहे डीपी सिंह कहते हैं, "वन विभाग को आग की सूचना तो मिल जाती है लेकिन आग को लगने से रोकने का कोई तंत्र नहीं है. वन विभाग दिसंबर-जनवरी के महीने में ही फायर लाइन की सफाई करता है लेकिन कई बार फायर लाइन तैयार करने में लापरवाही की जाती है जिसकी वजह से तत्काल प्रभाव से आग पर कंट्रोल नहीं हो पाता है. उत्तराखंड में चीड़ के जंगल काफी मात्रा में हैं और चीड़ की पत्तियां बहुत जल्दी आग पकड़ती हैं. एक बात और महत्वपूर्ण है, अक्सर आग या तो लोगों द्वारा लगाई जाती है या फिर लापरवाही से लग जाती है. खुद ब खुद आग लगने की घटनाएं बहुत कम होती हैं.”

कुछ वैज्ञानिक जंगलों में लगी आग पर काबू करने के लिए जंगल के भीतर जगह-जगह जल संचय करने और भूजल के इस्तेमाल की तकनीक विकसित करने पर भी जोर देते हैं. हालांकि ये इंतजाम कई जगह पर किए भी गए हैं लेकिन उत्तराखंड के जंगलों में ये अभी भी नाकाफी हैं.

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