विदेशी सैनिकों के लिए दूसरा सबसे घातक साल रहा 2011
१ जनवरी २०१२ नाटो के नेतृत्व वाली अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा सहायता बल यानी आईसैफ के कमांडरों का कहना है कि अमेरिकी सैनिकों के नए प्रवाह के बाद हिंसा में कमी आई है. इस योजना के तहत 33,000 अतिरिक्त सैनिकों को जमीन पर उतारा गया. उधर संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि हिंसा बढ़ी है. गठबंधन सेना और आम लोगों पर हुए अचानक हमलों ने विश्लेषकों की इस राय को हवा दी है कि अभी खून और बहने की आशंका है क्योंकि नाटो सुरक्षा का जिम्मा अफगान बलों को देने जा रहा है.
2011 में आईसैफ के कुल 566 सैनिक मारे गए. इनमें 417 अमेरिकी और 45 ब्रिटिश सैनिक थे. साल दर साल देखें तो सबसे ज्यादा सैनिकों की मौत 2010 में हुई थी. उस साल कुल 711 सैनिकों की जान गई. 2009 में 521 सैनिक मरे. 2011 में मारे गए आईसैफ के सैनिकों की संख्या में साल के आखिरी दिन मरे उस सैनिक का नाम भी शामिल है जो जंग में नहीं किसी और वजह से मारा गया.
मरने और घायल होने वालों की तादाद बढ़ने के पीछे हाल के महीनों में हमलों में आई तेजी है. काबुल में अक्टूबर में आईसैफ के काफिल पर हुए हमलों ने 17 सैनिकों की जान ली. इसी तरह राजधानी के दक्षिण में वार्दाक में हैलीकॉप्टर को आतंकवादियों ने मार गिराया. हैलीकॉप्टर में सवार 30 अमेरिकी सैनिक मारे गए. सिर्फ सैनिक ही नहीं अफगानिस्तान की आम जनता को भी इस जंग की भारी कीमत चुकानी पड़ी है. काबुल में अशूरा के मौके पर दरगाह में हुए बम हमले ने 80 लोगों को मौत के घाट उतार दिया.
इसी बीच अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के आदेश पर सैनिकों की वापसी भी शुरू हो गई है. 10,000 अतिरिक्त सैनिक पहले ही जा चुके हैं और बाकी बचे सैनिक भी अगले साल सर्दी तक लौट जाएंगे. गठबंधन सेना में शामिल दूसरे देश भी अपने मिशन का आकार छोटा करते जा रहे हैं. नाटो की सभी युद्धक सेनाओं के वापस लौटने के लिए 2014 तक की समय सीमा तय की गई है. पश्चिमी देशों के एक सैन्य अधिकारी का कहना है कि कई यूनिटों को पहले ही हमलावर कार्रवाइयां न करने के निर्देश दिए जा चुके हैं.
2001 में अफगानिस्तान पर अमेरिकी सेना के हमले में अब तक कुल 2,847 विदेशी सैनिकों की जान गई है. आईसैफ के प्रवक्ता ब्रिगेडियर जनरल कार्स्टन जैकब्सन का कहना है, "दुश्मनों के हमले में इस साल काफी कमी आई है. यह जंग के मैदान में सफलता और हम पर हमला करने में उनकी क्षमता में आई कमी का नतीजा है."
आने वाले सालों में जमीन पर आईसैफ की टुकड़ियां कम ही रहेंगी, ऐसे में गठबंधन सेना का नुकसान तो घटेगा लेकिन आम लोगों की मौत में कमी आएगी यह जरूरी नहीं है. संयुक्त राष्ट्र ने कहा है कि पिछले छह महीनों में आम लोगों की अफगानिस्तान में होने वाली मौत 15 फीसदी बढ़ गई है. छह महीनों में कुल 1,462 लोगों की मौत हुई है जनवरी के मध्य में पूरे साल की रिपोर्ट आएगी. तालिबान चरमपंथियों को देश में होने वाली 80 फीसदी मौतों के लिए जिम्मेदार माना जाता है. वो ज्यादातर घर में बने बमों या फिर आईईडी का इस्तेमाल करते हैं.
नाटो का कहना है कि यहां दुश्मनों के हमले में आठ फीसदी की कमी आई है. अफगानिस्तान के सेंटर ऑफर रिसर्च एंड पॉलिसी स्टडीज से जुड़े विश्लेषक हारून मीर कहते हैं कि तालिबान आईसैफ के सैनिकों के साथ सीधे मोर्चा नहीं ले रहा है लेकिन चरमपंथी आमलोगों को निशाना बना रहे हैं. उन्होंने बताया, "तालिबान जान बूझ कर डर फैलान के लिए आम लोगों को निशाना बना रहे हैं. वो दिखाना चाहते हैं कि विदेशी सैनिकों के होते हुए भी वो सक्रिय हैं और वो लोगों के जीवन में गड़बड़ियां कर सकते हैं खास तौर से शहरों में."
अंतरराष्ट्रीय समुदाय जंग का राजनीतिक हल निकालने में जुटी है. कोशिश यह भी हो रही है कि कतर में तालिबान का एक दफ्तर बनाया जाए और फिर शांति वार्ता हो. हालांकि मीर का कहना है कि तालिबान के कुछ सदस्य तो बातचीत करना चाहते हैं लेकिन पाकिस्तान की सीमा पर अड्डा जमाए दूसरे सदस्य अलग थलग पड़ गए हैं और लगातार हिंसक कार्रवाइयां कर रहे हैं. मीर ने कहा, "हमें लगता है कि सुरक्षा ढांचे में बदलाव के दौरान और ज्यादा आतंकी हमले और राजनीतिक हत्याएं होंगी. ये कट्टरपंथी गुट खासतौर से 2014 के बाद सरकार को कमजोर करने की हर संभव कोशिश करेंगे."
सुरक्षा इंतजाम अफगान नेशनल सिक्योरिटी फोर्स को सौंपी जा रही है जिसके पास फिलहाल 3 लाख सैनिक हैं. आने वाले दिनों में उसे भी इस जंग की कीमत चुकानी पड़ सकती है. अफगानिस्तान सरकार के आंकड़ों के मुताबिक 2011 में 21 मार्च को अफगान साल शुरू होने के बाद से अब तक 1,400 पुलिस वाले, 520 सैनिक और 4,275 उग्रवादी मारे गए हैं. जानकार यह भी उम्मीद लगा रहे हैं कि विदेशी फौजों की मौजूदगी घटने के बाद मुमकिन है कि हिंसा में कुछ कमी आए. उनका मानना है कि विदेशियों के जाने के बाद स्थानीय लोगों के खिलाफ बड़े हमले करना उनके लिए मुमकिन नहीं होगा.
रिपोर्टः एएफपी/एन रंजन
संपादनः ओ सिंह