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विफल रहा भारत आयोजन की परीक्षा में

८ अक्टूबर २०१०

जर्मन मीडिया में इस सप्ताह कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन पर रिपोर्टें विरोधाभासी रहीं. कुछ अखबारों ने आयोजनों के दुःस्वप्न बनने की भविष्यवाणी की तो कुछ ने कहा कि भारत वयस्कता टेस्ट में विफल रहा है.

तस्वीर: AP

पिछले रविवार को नई दिल्ली में 19वें कॉमनवेल्थ गेम्स का उद्घाटन हुआ. नौए ज्यूरिषर त्साइटुंग का कहना है कि खेलों का आयोजन भारत के लिए नई आर्थिक सत्ता के रूप में कमिंग आउट होता लेकिन उसके दुःस्वप्न में बदलने के आसार हैं. कुछ सप्ताह पहले तक उसे टालने या स्थगित करने की अटकलें लग रही थी. अखबार लिखता है

भारतीय राजनीतिज्ञों और खेल अधिकारियों ने जोरदार दावा किया था कि नई दिल्ली में सब कुछ बीजिंग के 2008 ओलंपिक से बहुत बेहतर होगा. लेकिन अपनी बड़बोली हेकड़ी के लिए भारत को पिछले सप्ताहों और महीनों में ऊंची कीमत चुकानी पड़ी है. कोई संदेह नहीं कि भारत ने हाल के दिनों में अंतरराष्ट्रीय मंच पर प्रतिष्ठा खोई है. नई दिल्ली में उदासीन और फैसला लेने में कमजोर नौकरशाह तथा अयोग्य भारतीय और विदेशी खेल अधिकारी उस परीक्षा में विफल रहे हैं, जो भारत को कॉमनवेल्थ गेम्स कराने की जिम्मेदारी लेने के साथ देनी थी.

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बर्लिन से प्रकाशित टागेस्शपीगेल का कहना है कि कॉमनवेल्थ गेम्स का आयोजक भारत सिर्फ ख्याति की चकाचौंध में नहीं इतराएगा, भारत का खेल धूल चाट रहा है. अखबार आगे लिखता है

भारत में खिलाड़ियों की बड़ी मुसीबत है, क्रिकेट के अलावा. लगभग सब कुछ इसी खेल के इर्द गिर्द चक्कर काटता है जिसका आयात ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों ने किया था. दूसरे खेलों के एथीलीट बहुत हुआ तो वार्षिक मेले का आकर्षण बनते हैं. जैसे मैराथन का वंडर चाइल्ड बुधिया सिंह. एक जूडो ट्रेनर द्वारा चुने गए और स्लम में रहने वाले बुधिया ने 2005 में सुर्खियां बटोरी क्योंकि वह संदिग्ध रूप से तीन साल की उम्र में 60 किलोमीटर दौड़ जाता था. बाद में अधिकारियों ने बच्चे के उत्पीड़न को बंद कराया. ट्रेनर पर बुधिया से जबरदस्ती करने का आरोप था. ऐसे में संदेहास्पद ट्रेनरों को आसानी होती है क्योंकि भारत में शायद ही खेल संगठनों की संरचना मौजूद है.

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हर रविवार को फ्रैंकफुर्ट से छपने वाले फ्रांकफुर्टर अलगेमाइने जोंटाग्ससाइटुंग ने लिखा कि कॉमनवेल्थ गेम्स स्थगित होने के कगार पर था, लेकिन फिर भारत ने कमर कस ली, लेकिन अब आतंकवादी हमलों का खतरा है. साप्ताहिक अखबार लिखता है

भारत के शांत प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ब्रेक लगाया, और खेलों को बचाने के लिए आयोजन के मुख्य भागीदारों को शांत रहने, मिलजुलकर काम करने और भारत के अंतिम समय में काम करने की प्रतिभा का उपयोग करने के आदेश दिए. सौ रुपए की दैनिक मजदूरी ने सफाई कर्मचारियों की सेना को स्टेडियमों में भेजने में मदद दी. पुलिस वालों ने स्लमों को हटाया और उस बीच ऑस्ट्रेलिया की टेलिविजन कंपनी टेन अपनी आपात बैठकों में इस पर विचार कर रही थी कि यदि खेल नहीं हुए तो वे क्या प्रसारण करेंगे.

कॉमनवेल्थ गेम्स ठीक ठाक शुरू हो गए, जर्मन मीडिया की नजरें दूसरी घटनाओं की ओर मुड़ गई. मसलन यूरोपीय विमान कंपनी एयरबस के भारत कारोबार की ओर. टागेस्श्पीगेल कहता है कि एयरबस के लिए भारत महत्वपूर्ण बाजार है. सात बड़ी भारतीय विमान कंपनियों में से छह यूरोपीय कंपनी के उत्पादों पर भरोसा कर रहे हैं. बाजार में उसका हिस्सा 68 फीसदी है. एयरबस का कहना है कि आगे 20 साल में भारत को कम से कम 1000 विमानों की जरूरत होगी, 138 अरब का बाजार है यह. अखबार लिखता है

बैंगलोर राष्ट्रीय विमानन उद्योग का केंद्र है और यहां स्थित मजबूत आईटी सेक्टर के कारण उसे देश की सिलिकन वैली भी कहा जाता है. भारत का तीसरा सबसे बड़ा शहर विरोधाभासों का शहर है. ओल्ड मद्रास रोड पर महल जैसा मॉल तैयार हो रहा है. एयरबस ने उसके ठीक सामने इन्फिनिटी बिजनेस पार्क में तीसरा माला किराए पर ले लिया है. पास ही प्रतिद्वंद्वी बोइंग ने भी दफ्तर लिया है. जबकि यहां समाज का नया कुलीन वर्ग आधुनिक तकनीकी का विकास कर रहा है, पास ही लोग टूटे फूटे झोपड़ों में रहते हैं. कुछ किलोमीटर दूर एयरबस ट्रेंनिंग सेंटर है जहां सारे एशिया के सर्विस इंजीनियरों को प्रशिक्षण दिया जाता है.

तस्वीर: picture alliance/dpa

भारतीय कश्मीर में दशकों से आंदोलन चल रहा है. राष्ट्रीय आजादी की धर्मनिरपेक्ष मांग पृष्ठभूमि में जा रही है इस्लामी राज्य का सपना आगे आ रहा है. फाइनैंशियल टाइम्स डॉयचलंड का कहना है कि इस्लामी कट्टरपंथी इसका लाभ उठा रहे हैं.

धार्मिक नेता बढ़ते पैमाने पर मीडिया और राजनीतिक मंच पर जगह बना रहे हैं. इस्लामी राज्य की मांगें जोर पकड़ रही हैं. कई दर्जन गुट हैं जो आजादी के लिए लड़ रहे हैं, कभी चुनाव के जरिए कभी क्लाशनिकोव के जरिए. धर्मनिरपेक्ष राज्य के बदले मुस्लिम राज्य का विचार तेजी से समर्थन बटोर रहा है. लेकिन अधिकांश कश्मीरियों के लिए एक बात भयावह है, तालिबान के तर्ज वाली इस्लामी विचारधारा.

भारत के बाद अब पाकिस्तान, जहां अमेरिका के लिए मानवरहित ड्रोन आतंकवादियों के खिलाफ जादुई हथियार बन गए हैं. पिछले महीनों में पाकिस्तान के कबायली इलाकों में ड्रोन हमलों में तेजी आई है और इस सप्ताह एक हमले में आठ जर्मन आतंकवादी भी मारे गए हैं. ज्युइडडॉयचे त्साइटुंग का कहना है कि ड्रोन हमले लोगों का आक्रोश बढ़ा रहे हैं.

यह तय है कि हमले पाकिस्तान में अमेरिका की खराब छवि का कारण हैं. अधिकांश लोग अपने को पश्चिम द्वारा थोपे गए युद्ध का शिकार समझते हैं. इसमें बराक ओबामा के राष्ट्रपति बनने से भी कोई परिवर्तन नहीं आया है. उल्टे, उनके नेतृत्व में अमेरिकी सरकार अफगानिस्तान की सीमा पर ड्रोन हमलों को बढ़ा रही है. इस्लामाबाद वॉशिंगटन का मुश्किल सहयोगी है और वॉशिंगटन इस्लामाबाद का. हाल ही में गृहमंत्री रहमान मलिक ने वॉशिंगटन की ओर इशारा कर पूछा, हम साथी हैं या दुश्मन? उनके देश में बहुत से लोगों ने अपने लिए इस सवाल का जवाब पहले ही पा लिया है.

साप्ताहिक अखबार डी त्साइट का कहना है कि ड्रोन को यदि आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में वैध साधन समझा भी जाए तो उसके इस्तेमाल में जरूरत के अनुपात का ध्यान रखा जाना चाहिए.

तस्वीर: picture-alliance/dpa

यह साफ होना चाहिए कि हमले के समय मारे गए वैध लक्ष्य थे, और उनकी ओर से ठोस खतरा था. चूंकि हमले पाकिस्तानी सीमा में हो रहे हैं, यह संप्रभुता का हनन है, जब तक कि यह प्रमाण नहीं दे दिया जाता कि पाकिस्तान की ओर से हमले हो रहे हैं जिन्हें पाकिस्तान की सरकार रोक नहीं सकती या रोकना नहीं चाहती.

फ्रांकफुर्टर अलगेमाइने त्साइटुंग का कहना है कि अमेरिकी ड्रोन हमले में जर्मनी इस्लामी कट्टरपंथियों के मारे जाने की जर्मनी में पुष्टि नहीं हुई है.

ड्रोन हमले पाकिस्तान में राजनीतिक मसला हैं. जानकार पाकिस्तानियों को पता है कि स्थानीय खुफिया एजेंसी आईएसआई सीआईए को लक्ष्यों के बारे में जानकारी देती है जबकि इस्लामाबाद आधिकारिक रूप से उसकी निंदा करता है. आईएसआई के कुछ सूत्रों को सफलता चाहिए जबकि दूसरों को उसकी विफलता से लाभ होता है क्योंकि वह अमेरिका और पाकिस्तानी सरकार को बदनाम करते हैं. कभी कभी पाकिस्तानी मीडिया स्थानीय लोगों के हवाले से खबर देता है लेकिन खबरों की स्वतंत्र जांच संभव नहीं क्योंकि पाकिस्तान सुरक्षा के नाम पर पत्रकारों को उन इलाकों में जाने की अनुमति नहीं देता. अब जर्मन सरकार की जांच का भी कोई नतीजा निकलने की उम्मीद नहीं है.

संकलन: आना लेहमन/मझ

संपादन: वी कुमार

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