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विरासत में नहीं मिलती बुद्धिमानी

१ जनवरी २०१३

लोगों में जेनेटिक समानता क्या उनमें एक जैसे गुण पैदा करती है? रिसर्चर ऐसा नहीं मानते. उनका कहना है कि बुद्धिमानी पैदाइशी नहीं होती, लोगों को बनाने में उनके सामाजिक माहौल की बड़ी भूमिका होती है.

तस्वीर: picture-alliance/dpa

चमड़े का दूसरा रंग यानि इंसान दूसरे देश का, दूसरी आदतें. यह दुनिया के हर हिस्से में मौजूद एक सामान्य भूल है. बर्लिन के चैरिटी मेडिकल कॉलेज में मनोचिकित्सा क्लीनिक के प्रमुख प्रोफेसर आंद्रेयास हाइंस का कहना है कि यह फॉर्मूला इतना आसान है कि सच नहीं हो सकता. वे अपने बच्चों की डॉक्टर के बारे में बताते हैं. काली चमड़ी और काली आंखों वाली महिला जिनका बेटा बहुत ही नटखट है. स्कूल में समस्या वाला बच्चा माना जाता है. "अधिकांश लोगों के लिए साफ था, बाप जरूर तुर्क या अरब होगा. इसी की वजह से बच्चे में बर्ताव की समस्या है. लेकिन बाप दरअसल डॉक्टर है और श्वाब जर्मन है."

आंद्रेयास हाइंसतस्वीर: Charité

किसी देश की आर्थिक क्षमता को आईक्यू टेस्ट में वहां के निवासियों के प्रदर्शन से जोड़ने वाले सिद्धांतों की फिर से बाढ़ आ गई है. ऐसे सिद्धांत देने वाले लोग आईक्यू टेस्ट में लोगों के प्रदर्शन को सामूहिक जेनेटिक विशेषताओं से जोड़ देते हैं. जब से बर्लिन के सोशल डेमोक्रैटिक राजनीतिज्ञ थीलो साराजिन की विवादास्पद किताब छपी है, इस बात पर बहस छिड़ी हुई है कि क्या किसी समुदाय के लोगों की जेनेटिक समानता उनकी बुद्धिमानी को प्रभावित करती है.

साराजिन ने अपनी किताब "जर्मनी खुद को मिटा रहा है" में लिखा है कि इसकी वजह से तुर्क और मुस्लिम आप्रवासियों में शिक्षा और समाज में घुलने मिलने की क्षमता का अभाव है. तुर्क और मुस्लिम परिवारों के बच्चों के स्कूलों में खराब प्रदर्शन की वजह साराजिन यह मानते हैं कि बौद्धिक क्षमता उन्हें अपने माता-पिता से विरासत में मिली है.

बुद्धिमानी पर जीन का असर

डॉक्टर आंद्रेयास हाइंस कहते हैं कि सचमुच बुद्धिमत्ता के विकास में जीन की बड़ी भूमिका होती है. लेकिन इस बीच बहुत सारे रिसर्च दिखाते हैं कि इंसान की बौद्धिक क्षमता पर उसके माहौल का बहुत बड़ा असर होता है. अलग अलग मूल और साममाजिक परिवेश के लोगों का इंटेलिजेंस टेस्ट कैसा होगा यह इस पर निर्भर करता है कि उनकी परवरिश किस सामाजिक माहौल में हुई है. अमेरिका में हुए अध्ययनों में पता चला है कि 1970 के दशक में श्वेत परिवारों में गोद लिए गए काले बच्चों के आईक्यू में दूसरे श्वेत या अश्वेत बच्चों के मुकाबले तेज वृद्धि दिखी.

सीखने पर माहौल का असरतस्वीर: picture-alliance/dpa

जर्मनी में 2011 में हुए जनगणना के अनुसार स्कूली शिक्षा पूरी न करने वाले 62 फीसदी लोगों विदेशी मूल के हैं. इसके विपरीत हाई स्कूल पास करने वालों में उनका अनुपात सिर्फ 20 फीसदी है. हुम्बोल्ट यूनिवर्सिटी के शिक्षाशास्त्री चोस्कुन चानन इस बात की आलोचना करते हैं कि अब तक इसकी वजह जातीय और सांस्कृतिक विभिन्नता में खोजी गई है, खासकर तुर्कों और मुसलमानों के मामले में.

चानन का कहना है कि जब भी आप्रवासियों की शिक्षा में सफलता की चर्चा होती है तो बहुत से परिवारों की तंगहाली, खराब जीवन परिस्थिति या शिक्षकों में आम तौर पर आप्रवासी बच्चों को सिखा सकने की क्षमता के अभाव का कम ही जिक्र होता है. इसकी वजह से जर्मन समाज में घुलने मिलने में असमर्थ और स्कूलों में विफल किशोरों की तस्वीर उभरी है.

शिक्षा का आधार हैं महिलाएं

यदि तुर्की मूल के आप्रवासियों पर गौर किया जाए तो पता चलता है कि बुजुर्ग लोगों ने स्कूली शिक्षा नहीं पाई है. हालांकि तुर्क मूल के बच्चे दूसरे बच्चों की तुलना में स्कूलों में खराब प्रदर्शन कर रहे हैं लेकिन उनकी तुलना यदि उनके पिता की पीढ़ी से की जाए तो उनकी हालत बेहतर है. खासकर जर्मनी में पैदा हुई लड़कियां शिक्षा में सफलता पाने वालों में शामिल हैं. उनमें से एक तिहाई ने हायर सेकंडरी या हाई स्कूल पास किया है और उनकी तादाद बढ़ रही है.

उम्मीद कम तो छात्रों का प्रदर्शन भी खराबतस्वीर: picture alliance/dpa

हालांकि गैरआप्रवासी परिवारों में पैदा हुई लड़कियों में से आधे ने उच्च शिक्षा पाई है, लेकिन उनके माता-पिता की पीढ़ी ने भी उच्च शिक्षा पाई थी. चोस्कुन चानन कहते हैं, "तुर्क मूल की स्थानीय महिलाएं सबमें अगुआ है. हम समझते हैं कि वे पुरुषों को भी अपने साथ ले जाएंगी." उच्च शिक्षा के मामले में विदेशी मूल के पुरुष पिछड़ रहे हैं. यदि वे अपने जातीय समुदाय के अंदर शादी करना चाहते हैं तो उन्हें महिलाओं से बराबरी करनी होगी.

चोस्कुन चानन चेतावनी देते हैं कि पूर्वाग्रहों की भी जिंदगी होती है. यदि एक बार यह पूर्वाग्रह पैदा हो जाए कि तुर्क समाज में घुलने मिलने को तैयार नहीं, तो लोग धीरे धीरे अपने को उसी तरह ढालने लगते हैं. समाजशास्त्री इसे स्टीरियोटाइप खतरा कहते हैं. चानन के अनुसार यदि कोई शिक्षक तुर्क मूल के बच्चे से वह अपेक्षा नहीं रखता जो वह दूसरे बच्चों से रखता है तो वह बच्चे के विकास को रोकता है.

सामाजिक तनाव और दिमाग

आंद्रेयास हाइंस कहते हैं कि स्कूल में हुए भेदभाव वाले अनुभव दिमाग में बैठ जाते हैं और वे चीजों को समझने की क्षमता को नुकसान पहुंचा सकते हैं. जानवरों पर किए गए परीक्षणों ने दिखाया है कि विशेष बर्ताव तनाव पैदा करता है और दिमाग पर छाप छोड़ता है. हाइंस कहते हैं कि जानवरों पर इसके असर को नापा जा सकता है. जब पिंजड़े में एक आक्रामक जानवर दूसरे टेस्ट वाले जानवर को तंग करता है तो हारमोन सिस्टम तनाव पैदा करने वाला हारमोन सेरोटोनिन छोड़ता है. इसकी वजह से अवसाद पैदा होता है. सीखने के लिए जिम्मेदार हारमोन डोपामिन की मात्रा भी बदल जाती है. इसकी वजह से दिमाग में बदलाव पैदा होते हैं जो दूसरी पीढ़ी को भी जा सकते हैं.

जानवरों में मॉबिंग से तनावतस्वीर: Fotolia

प्रोफेसर हाइंस इस समय अपनी टीम के साथ इस बात की जांच कर रहे हैं कि क्या इस तरह की बात मानवीय दिमाग में भी होती है. वे पता करना चाहते हैं कि क्या सामाजिक तनाव इंसान के दिमाग में भी बायोकेमिकल प्रतिक्रिया पैदा करता है. सवाल यह है कि क्या इसकी वजह से वे जीन सक्रिय या निष्क्रिय हो जाते हैं जो बुद्धिमत्ता के लिए जिम्मेदार हैं. क्या लोगों के साथ भेदभाव का असर यह होता है कि लोग जीन की वजह से उपलब्ध संभावनाओं का बौद्धिक क्षमता में इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं.

प्रोफेसर हाइंस इस बात को संभव मानते हैं कि तनाव पर होने वाली प्रतिक्रिया विरासत में दी जा सकती है. उनका कहना है कि नकारात्मक उम्मीदों के द्वारा सामाजिक भेदभाव इंसान को नुकसान पहुंचाता है. इसलिए वे बुद्धिमत्ता को बढ़ावा देने वाले त्तवों के समर्थन की वकालत करते हैं, अब वह चाहे भाषा सिखाना हो या स्वस्थ आहार.

रिपोर्टः लीडिया हेलर/एमजे

संपादनः निखिल रंजन

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