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विरोध की उभरती आवाज़

९ जुलाई २०१०

भारत में आर्थिक विकास के तहत सुधार- मसलन पेट्रोल की कीमत कम रखने वाले अनुदानों में कमी, कीमतों में वृद्धि के ख़िलाफ़ भारत बंद. इन पर अब जर्मन समाचार पत्रों की भी नज़र जा रही है.

महंगाई के विरोध में एकजुटतस्वीर: AP

म्युनिख से प्रकाशित स्युडडॉएचे त्साइटुंग की राय में यह प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह की बचत नीति के तहत एक और क़दम है, जिसके ज़रिये वे अनुदानों को घटाकर बजट को स्वस्थ बनाना चाहते हैं. आगे कहा गया है, ''पेट्रोल और डीज़ल के साथ-साथ केरोसीन की भी क़ीमत बढ़ी है, और इसका असर दसियों लाख ग़रीब लोगों पर पड़ रहा है, जो खाना बनाने के लिए ईंधन के तौर पर केरोसीन तेल का इस्तेमाल करते हैं.''

बेहाल जनतातस्वीर: AP

बंद के सिलसिले में अखबार का कहना है, ''ख़ासकर व्यापारिक महानगर मुंबई, कोलकाता और विपक्षी दलों द्वारा प्रशासित प्रदेशों पर इसका असर पड़ा. उत्तरी भारत के प्रदेशों, उत्तर प्रदेश और बिहार में पुलिस के साथ झड़प में अनेक प्रदर्शनकारी घायल हो गए...इसके बावजूद सभी नागरिक हड़ताल के पक्ष में नहीं थे, अनुमानों के अनुसार जिसकी वजह से अर्थजगत को लगभग 64 करोड़ डालर का नुकसान हुआ.''

बांग्लादेश में भी कामगारों का विरोध जारी है. कपड़ा मज़दूर न्युनतम वेतन के लिए आंदोलन कर रहे हैं. समाजवादी अखबार नोएस डॉयचलांड में इस विरोध की रिपोर्टें दी गई हैं. समाचार पत्र का कहना है कि जब तक उनकी मांगें पूरी नहीं होंगी, विरोध जारी रहने का अंदेशा है. रिपोर्ट में कहा गया है, ''पांच हज़ार टाका वेतन की मांग के साथ ट्रेड यूनियनों ने अपना आंदोलन शुरू किया है. लग सकता है कि तीन गुना न्यूनतम वेतन की मांग यथार्थवादी नहीं है, लेकिन दसियों साल से कपड़ा मज़दूरों को बहुत ही कम वेतन दिया जा रहा है और उनका ज़बरदस्त शोषण हो रहा है. पिछले दिनों सरकार ने उद्योगपतियों को चेतावनी देते हुए कहा है कि वे मानवीय रूख दिखाएं. इससे गैरसरकारी संगठनों को उम्मीद बंधी है कि शायद साढ़े तीन हज़ार टाका के आसपास एक समझौता हो जाएगा. ट्रेड यूनियनों, मानव अधिकार संगठनों व लेबर लॉ संगठनों के एक अंतर्राष्ट्रीय संघ ने विकसित देशों के व्यापारिक संस्थाओं से मांग की है कि वे आर्डर देते समय न्यूनतम वेतन की मांग पर ज़ोर दें. ये वेतन जीने के लिए पर्याप्त होने चाहिए, और साथ ही इनके ज़रिये इस बात की गारंटी दी जानी चाहिए कि वेतन कम रखते हुए बाज़ार के लिए छीनाछपटी न हो.''

तालिबान के निशाने पर लाहौरतस्वीर: AP

पाकिस्तान और आतंकवाद पहले के समान जर्मनभाषी अखबारों का विषय बना हुआ है. लाहौर में सूफ़ी दरगाह पर आत्मघाती हमले में कम से कम 40 लोगों की मौत हो गई, 170 से अधिक लोग घायल हो गए. फ़्रैंकफ़र्ट के अखबार फ़्रांकफ़ूर्टर आलगेमाइने त्साइटुंग में इस्लामी चरमपंथियों की ओर इशारा करते हुए इस सिलसिले में कहा गया है, ''हाल के समय में मुस्लिम समुदाय के अंदर ही हिसा की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं. जैसा कि रिवाज है, पाकिस्तान में इस भयानक हमले के लिए विदेशी तत्वों को ज़िम्मेदार ठहराने की कोशिश की गई. अखबारों में ऐसे चश्मदीद गवाहों के बारे में रिपोर्टें दी गईं, जिनसे लगे कि भारत या अमेरिका इन हमलों से जुड़े हुए हैं. लेकिन ज़्यादा संभावना इस बात की है कि आततायी पंजाब के इस्लामपंथी तबकों से आए हों. लाहौर पिछले समय में पंजाबी तालिबान के निशाने पर रहा है, तहरीके तालिबान पाकिस्तान के साथ जिसके संबंध हैं.''

प्रदर्शन और विरोध श्रीलंका में भी. लेकिन यहां एक मंत्री भी इस विरोध में शामिल हैं. फ़्रांकफ़ूर्टर आलगेमाइने त्साइटुंग में रिपोर्ट दी गई है कि उग्रराष्ट्रवादी दल के नेता व मंत्री विमल वीरवंश के नेतृत्व में राजधानी कोलंबो में संयुक्त राष्ट्र के दफ़्तर पर धावा बोला गया व उसका घेराव किया गया. प्रदर्शनकारियों की मांग है कि तमिलों के ख़िलाफ़ युद्ध अपराधों के लिए संयुक्त राष्ट्र की जांच बंद की जाए. समाचार पत्र का कहना है, ''श्रीलंका की सरकार व उसके समर्थक काफ़ी समय से अंतरराष्ट्रीय समुदाय की इस मांग को ठुकरा रहे हैं कि मानव अधिकारों के हनन के मामलों की जांच हो. आरोप है कि तमिल टाइगरों के ख़िलाफ़ लड़ाई के दौरान सेना की ओर से असैनिक नागरिकों को निशाना बनाया गया. स्वतंत्र अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों के अनुसार युद्ध के आख़िरी दो महीनों के दौरान कम से कम सात हज़ार नागरिकों की हत्या की गई. कोलंबो इस बात से इंकार करता है कि असैनिक नागरिकों को मारा गया है. उसका आरोप है कि उसके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप किया जा रहा है. प्रेक्षकों का मानना है कि श्रीलंका की सरकार अब ईरान, पाकिस्तान, और ख़ासकर चीन के साथ संबंध बढ़ाएगी.


और अंत में जर्मन मदद से नेपाल में समाज की मुख्यधारा में माओवादियों को फिर से लाने की कोशिश के बारे में एक रिपोर्ट. बॉन के समाचार पत्र गेनेरालआनत्साइगर इस सिलसिले में ध्यान दिलाया गया है कि जर्मन संस्था जीटीज़ेड की ओर से इस सिलसिले में पिछले तीन सालों में पचास लाख यूरो खर्च किए गए हैं. नेपाल में शांति और लोकतंत्र को आगे बढ़ाने के लिए और 25 लाख यूरो खर्च किए जाने वाले हैं. जर्मन मदद के बिना पूर्व छापामारों के शिविर में बिजली, पानी व संडास की सुविधा न होती. शिविर के कमांडर राजेश का कहना है कि यह संगठन तटस्थ होकर मदद देता है. समाचार पत्र के शब्दों में इस धन से पुर्व छापामार अब चिकित्साकर्मी, बिजली के मेकनिक, दर्ज़ी और कंप्यूटर एक्सपर्ट भी बनेंगे.

संकलन: अन्ना लेमान्न

अनुवाद: उभ

संपादन: ओ सिंह

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