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विवादों में सुप्रीम कोर्ट आखिरी आस

१३ सितम्बर २०१६

कावेरी जलविवाद पर भड़की हिंसा के बाद सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक सरकार को फटकारा है कि वह फैसले पर अमल से बच नहीं सकती. कुलदीप कुमार का कहना है कि पिछले दिनों में सरकारों का जिम्मेदारी से बचना गंभीर समस्या बन गई है.

Oberstes Gericht Delhi Indien
तस्वीर: picture-alliance/dpa

कावेरी जलविवाद बहुत पुराना है और इसके कारण कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच एक लंबे अरसे से तनाव रहा है. क्षेत्रीयतावाद को हवा देकर अपना उल्लू सीधा करने के लिए दोनों राज्यों के राजनीतिक दल हमेशा तैयार रहे हैं और इस बार भी जब सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक को आदेश दिया कि वह तमिलनाडु को प्रतिदिन बारह हजार क्यूसेक पानी दे तो बंगुलुरु और मैसूर में तमिलविरोधी हिंसा भड़क उठी जिसकी चिंगारी तमिलनाडु में भी उड़ती देखी गई. लेकिन यह न अप्रत्याशित था, न ही अभूतपूर्व.

अप्रत्याशित और अभूतपूर्व था कर्नाटक सरकार का सुप्रीम कोर्ट के सामने यह कहना कि आदेश का पालन करना कठिन है क्योंकि इससे राज्य में कानून और व्यवस्था के भंग होने का खतरा है. सुप्रीम कोर्ट ने इस पर ठीक ही फटकार लगाई और कहा कि राज्य सरकारें इस तरह के बहाने बना कर देश की सर्वोच्च अदालत के फैसले पर अमल करने से बच नहीं सकतीं. अंततः मुख्यमंत्री सिद्धरामैया को आश्वासन देना पड़ा कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर हर हालत में अमल किया जाएगा.

जिम्मेदारी का निर्वाह

पिछले कई दशकों के दौरान एक समस्या लगातार गंभीर होती गई है और वह है राज्य सरकारों और केंद्र सरकार द्वारा अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करने से बचना, राजनीति विवादों का समाधान राजनीतिक स्तर पर विचार-विमर्श के माध्यम से निकालने के बजाय उन्हें न्यायालय की देहरी पर रख आना और अदालतों के आदेश का पालन करने में किसी न किसी बहाने टालमटोल करना. चाहे वह अयोध्या विवाद हो या कावेरी जलविवाद, दिल्ली में सीएनजी के प्रयोग का सवाल हो या प्रदूषण कम करने के लिए वाहनों के प्रयोग पर बन्दिशें, सभी में किसी न किसी तरह से अदालत को ला खड़ा किया जाता है.

कहां कहां हो रहे हैं पानी पर झगड़े?

और जब अदालतें अपने निर्णय सुनाती हैं, तो अक्सर इस बात का रोना रोया जाता है कि वे अपने अधिकारक्षेत्र का अतिक्रमण कर रही हैं. क्या कोई राज्य सरकार अदालत के सामने यह तर्क दे सकती है कि यदि उसने अदालत के आदेश का पालन किया तो कानून-व्यवस्था बिगड़ जाने का खतरा है? क्या कानून-व्यवस्था बनाए रखने में अक्षमता व्यक्त करके राज्य सरकार स्वयं ही इस बात को स्वीकार नहीं कर रही कि वह संविधान के अनुसार शासन करने में सक्षम नहीं रह गई है, यानी उसे बर्खास्त कर दिया जाना चाहिए?

निरंकुश होने की राह पर

समस्या यह है कि इस समय लोकतंत्र के लगभग सभी स्तंभ निरंकुश होने की राह पर हैं. लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाने वाला मीडिया, विशेषकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया, विशेष रूप से सभी लक्ष्मण रेखाओं को लांघता दीख रहा है. कर्नाटक और तमिलनाडु में भड़की हिंसा के पीछे भी दोनों राज्यों के टीवी चैनलों की काफी बड़ी भूमिका रही है क्योंकि उन्होंने हिंसा की छिटपुट घटना को भी बार-बार दिखाकर इतना बड़ा बना दिया कि उससे दूसरे राज्य में लोगों की भावनाएं भड़क उठीं.

राजनीतिक दल ऐसी स्थिति का फायदा लेने के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं और इस बार भी उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी. हर समस्या के निपटारे के लिए अदालतों का मुंह जोहने का एक दुष्परिणाम यह हुआ है कि वे भी कार्यपालिका और विधायिका के अधिकारक्षेत्र में दखलंदाजी करने से बाज नहीं आतीं. एक ओर अदालतों में चार करोड़ से अधिक मामले सुनवाई के लिए पड़े हुए हैं, दूसरी ओर वे अक्सर ऐसे मामलों को भी तत्काल सुनवाई के लिए स्वीकार कर लेती हैं जिनकी इसके लायक अहमियत नहीं होती. गरज यह कि चारों तरफ अफरातफरी का माहौल बनता नजर आ रहा है.

आखिरी सहारा अदालत

इसके बावजूद एक बड़ी सच्चाई यह भी है कि आज आम नागरिक की निगाह में अदालत ही वह अंतिम जगह है जहां वह फरियाद लेकर जा सकता है और इंसाफ की उम्मीद कर सकता है. अनेक मामलों में अदालतों द्वारा दिखाई गई तत्परता और सक्रियता ने आम नागरिकों को इंसाफ दिलवाने में मदद भी की है. इसलिए न्यायव्यवस्था में कमियां होते हुए भी यह कहे बिना नहीं रहा जा सकता कि आज भी न्यायपालिका ही लोकतांत्रिक प्रणाली को सुचारु रूप से चलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है वरना संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों के लिए कुछ भी कर गुजरने वाले राजनीतिक दल और नेता लोकतांत्रिक मूल्यों और आदर्शों का उल्लंघन करने में किसी भी सीमा तक जा सकते हैं.

अदालतें, खासकर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जैसी ऊंची अदालतें, इसमें अग्रणी भूमिका निभाती रही हैं. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट की कर्नाटक सरकार को फटकार और बदले में सरकार का आश्वासन इस बात का एक और उदाहरण पेश करता है कि लोकतांत्रिक प्रणाली में सभी अंगों का एक-दूसरे के अधिकारों पर नियंत्रण होना चाहिए ताकि कोई एक अंग अत्यधिक शक्तिशाली न बन जाए. इसके साथ ही यह भी कहना पड़ेगा कि यदि सरकारों ने अपना दायित्व निभाने के प्रति गंभीरता न दिखाई, तो अदालतों का अपने हाथ में जरूरत से ज्यादा शक्ति केन्द्रित करना स्वाभाविक हो जाएगा.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार

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