विशाल कंगारुओं और घड़ियालों को निगल गया जलवायु परिवर्तन
१९ मई २०२०क्वींसलैंड म्यूजियम के जीवाश्म वैज्ञानिकों का कहना है कि हाल ही में जिन महाकाय प्राणियों का पता चला है वो वातावरण में बड़े परिवर्तनों की भेंट चढ़ गए. इन वैज्ञानिकों की रिसर्च रिपोर्ट विज्ञान पत्रिका नेचर कम्युनिकेशंस में छपी है. पानी की धारा में लगातार कमी, सूखे के बढ़ते प्रकोप, जंगलों की आग और वनस्पतियों में हुए परिवर्तनों के कारण कम से कम 13 विशाल जीवों की प्रजातियां लुप्त हो गईं.
बड़े आकार वाले इन जीवों में चार सरीसृप परभक्षी, धानी शेर और दुनिया के सबसे बड़े कंगारु और वोमबैट शामिल हैं. वोमबैट चार पैरों वाला ऑस्ट्रेलियाई जीव है जिसकी तीन विशाल प्रजातियां लुप्त हो गईं. यह जानकारियां उत्तर पूर्वी क्वींसलैंड में मैके के करीब साउथ वाकर क्रीक में विशाल जीवों पर रिसर्च पर आधारित है. यह जगह ग्रेट बैरियर रीफ के पास ही मौजूद है और कभी दर्जन भर से ज्यादा विशाल जीवों की यहां रिहायश थी.
क्वींसलैंड म्यूजियम के जीवाश्म वैज्ञानिक स्कॉट हॉकनुल का कहना है, "साउथ वाकर क्रीक के विशाल जीव अनोखे रूप से उष्णकटिबंधीय थे और उनमें मांस भक्षी सरीसृपों और विशाल शाकाहारी जीवों का प्रभुत्व था. ऑस्ट्रेलिया की मुख्य भूमि से इंसानों के पहुंचने के बाद ये जीव करीब 40000 साल पहले यहां से लुप्त हो गए. यूं इस बात में थोड़ा संदेह है और पक्के तौर पर इंसान को इन सबका दोषी नहीं माना जा सकता.
इंसान का यहां पहुंचना और पहले ही शुरू हो गया था इसलिए उन्हें इसके लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता. हॉकनुल कहते हैं, "हम इंसानों को 40000 साल पहले अपराध की जगह होने का दोषी नहीं मान सकते, हमारे पास पक्के सबूत नहीं है. इसलिए हम इन जीवों के लुप्त होने में इंसानों की भूमिका नहीं देखते."
रिसर्चरों ने इसकी बजाय वातावरण और जलवायु में हुए बड़े परिवर्तनों को इसका जिम्मेदार माना है. उनके मुताबिक इसी कालखंड में स्थानीय और क्षेत्रीय रुप से पर्यावरण की स्थिति बहुत खराब हो गई थी. इनमें बार बार आग लगना, घास के मैदानों का सिमटना और ताजे पानी का कम होने जैसे कारण शामिल हैं.
यह पहली बार नहीं है जब प्राकृतिक कारणों से विशाल जीवों के लुप्त होने की कहानी सामने आई है. धरती पर रहने वाले विशालकाय डायनोसॉर के लुप्त होने के पीछे भी ऐसे ही कारणों की बात होती है. मौजूदा दौर में भी कई जीवों के लुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है हालांकि उसके पीछे इंसानी गतिविधियां और उनके कारण वातावरण और जलवायु में हुए परिवर्तनों को दोषी माना जाता है.
एनआर/एमजे(डीपीए)
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