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वीआईपी संस्कृति से जूझता भारत

२५ सितम्बर २०१४

जहां ब्रिटेन और फ्रांस जैसे देशों में लोकतंत्र के लिए लंबा संघर्ष किया गया और इस संघर्ष के दौरान समाज में लोकतांत्रिक मूल्यों ने जड़ें जमाईं, वहीं भारत में लोकतंत्र मात्र ऊपर से थोपी हुई राजनीतिक व्यवस्था है.

तस्वीर: Zsolt Fulop - Fotolia.com

यह ठीक है कि ब्रिटिश शासन से स्वाधीन होने के लिए चले आंदोलन के दौरान लोकतांत्रिक चेतना और मूल्य भी विकसित हुए, लेकिन व्यापक भारतीय समाज में वे जड़ नहीं जमा पाए. भारत में बहुसंख्यक हिन्दू समाज जाति-व्यवस्था पर आधारित समाज है और इससे अन्य धर्म और संप्रदाय के लोग भी अछूते नहीं रह सके हैं. जाति-व्यवस्था का आधार ही यह विश्वास है कि कुछ लोगों को इस कारण जन्म से ही विशेषाधिकार प्राप्त होता है क्योंकि उन्होंने एक जातिविशेष में जन्म लिया है. इस सिक्के का दूसरा पहलू यह विश्वास है कि कुछ लोग जन्म से ही सभी प्रकार के अधिकारों से वंचित होते हैं क्योंकि उन्होंने एक जातिविशेष में जन्म लिया है. इस प्रकार की व्यवस्था पर टिका समाज लोकतांत्रिक मूल्यों को एकाएक कैसे आत्मसात कर सकता है?

नए किस्म की जाति-व्यवस्था

आजादी मिलने के समय देश में जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, भीमराव अंबेडकर, राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण और ईएमएस नंबूदिरीपाद जैसे राजनीतिक नेता थे जो न केवल स्वाधीनता संघर्ष की आंच में से तप कर निकले थे, बल्कि जो लोकतांत्रिक चेतना से युक्त प्रखर बौद्धिक भी थे. लेकिन जैसे-जैसे देश आगे बढ़ता गया, स्वाधीनता संघर्ष की स्मृति क्षीण होती गई, और ऐसे नेताओं की तादाद भी कम होती गई. इसी अनुपात में लोकतांत्रिक मूल्यों का क्षरण भी हुआ, नतीजतन देश में धीरे-धीरे वीआईपी संस्कृति ने जड़ जमा ली.

यह एक नए किस्म की जाति-व्यवस्था है जिसने पूरे समाज को आम और विशिष्ट में बांट दिया है. आम आदमी के पास कोई अधिकार नहीं है और विशिष्ट एवं अति विशिष्ट व्यक्तियों के पास हर प्रकार का विशेषाधिकार है. सरकार और उसका प्रशासनिक तंत्र कहने को तो आम आदमी की सेवा में हैं, लेकिन हकीकत में वह विशिष्ट और अति विशिष्ट (वीआईपी और वीवीआईपी) व्यक्तियों की चाकरी करते हैं. जनता की सेवा करने का वादा करके विधानसभा और संसद में चुने जाने वाले नेता और उनके परिजन एक बार वीआईपी होने के आदी हो जाते हैं तो फिर जिंदगी भर वीआईपी ही बने रहते हैं.

चरण सिंह का बंगला

पूर्व केन्द्रीय मंत्री अजित सिंह और उनके समर्थकों ने इन दिनों एक अजीब तमाशा किया हुआ है. राष्ट्रीय लोक दल के अध्यक्ष अजित सिंह लोकसभा का चुनाव हार गए हैं और अब सांसद नहीं हैं. वे नई दिल्ली में 12, तुगलक रोड पर एक विशाल बंगले में रहते हैं. इसी बंगले में उनके पिता और पूर्व प्रधानमंत्री चरण सिंह रहा करते थे. यह बंगला उन्हें 1977 में इसलिए मिला था क्योंकि वे पहली बार सांसद बनने के बावजूद देश के गृहमंत्री थे और इसलिए बड़े बंगले के हकदार थे. जब वे प्रधानमंत्री नहीं रहे और 1980 में इंदिरा गांधी चुनाव जीतकर सत्ता में वापस आ गईं, तब चरण सिंह ने नैतिक मूल्यों का मान रखते हुए केंद्र सरकार को पत्र लिखकर अनुरोध किया कि क्योंकि अब वे सामान्य सांसद हैं, मंत्री नहीं, इसलिए उन्हें उनके स्तर के उपयुक्त छोटा मकान दिया जाए. लेकिन सरकार ने उनके राजनीतिक कद को देखते हुए उनके इस अनुरोध को अस्वीकार कर दिया और उनसे इस बड़े बंगले में ही रहते रहने को कहा. इस बंगले में उनका निधन हुआ. उस समय उनके समर्थकों ने सरकार पर जोर डाला कि अन्य पूर्व प्रधानमंत्रियों की तरह ही उनका अंतिम संस्कार भी यमुना के किनारे किया जाए और उस स्थल को उनकी स्मृति में किसान घाट का नाम दिया जाए. तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने उनकी यह मांग मान ली. और जिस तरह राजघाट महात्मा गांधी की समाधि होने के कारण उनका स्मारक बन गया है, उसी तरह किसान घाट चरण सिंह का स्मारक बन गया.

मंत्रीजी की भैंसें और कुत्ते

लेकिन उनके पुत्र और राजनीतिक उताराधिकारी का आचरण बिलकुल ही भिन्न है. चुनाव हारने के बाद अजित सिंह को 80 दिनों के भीतर 12, तुगलक रोड वाला बंगला खाली करना था. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया और 24 सितंबर तक का समय मांगा. लेकिन सरकार ने उनकी मांग न मानकर सितंबर माह के मध्य में मकान की बिजली-पानी की सप्लाई काट दी. इससे क्रुद्ध होकर उनके समर्थकों ने गाजियाबाद में यातायात रोका, तोडफोड की और दिल्ली की बिजली-पानी की सप्लाई बैंक करने की धमकी दी. अब अजित सिंह और उनके समर्थक इस बंगले को चरण सिंह स्मारक बनाए जाने की मांग पर महापंचायत बुलाकर आंदोलन करने की धमकी दे रहे हैं. यानि हर कोशिश की जा रही है कि बंगला हाथ से न जाने पाए.

भारत में सामंती मूल्य आज भी हावी हैं. सार्वजनिक संपत्ति को व्यक्तिगत संपत्ति समझना और सत्ता में रहते हुए सरकारी मशीनरी को व्यक्तिगत कामों के लिए इस्तेमाल करना अब आम बात हो गई है. कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश के प्रभावशाली मंत्री आजम खां की रामपुर में कुछ भैंसें गायब हो गई थी. उन्हें ढूंढने के लिए राज्य की पुलिस ने जैसा सघन अभियान छेड़ा, वैसा शायद किसी कुख्यात अपराधी को ढूंढने के लिए भी नहीं छेड़ा गया. और अंततः मंत्रीजी का पारा तभी नीचे आया जब भैंसें मिल गईं. कुछ ही दिन पहले राजस्थान के मंत्री राजेंद्र राठौर का कुत्ता खो गया था. सामूहिक बलात्कार के दोषियों को खोज पाने में असफल रही पुलिस ने दिन-रात एक करके उस कुत्ते को ढूंढ निकाला. भारत में अब वीआईपी भैंसें और वीआईपी कुत्ते भी होने लगे हैं.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार

संपादन: ईशा भाटिया

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