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समाज

बदलती वैश्विक व्यवस्था से व्यापार के लिए नई चुनौतियां

२८ मई २०२१

बहुपक्षीय व्यापार समझौते धीरे-धीरे खुद अपने लिए ही परेशानी का सबब बनते जा रहे हैं. संरक्षणवाद लगातार बढ़ रहा है और पश्चिमी देशों व चीन के बीच तनाव काफी बढ़ गया है. ऐसे में क्या मुक्त व्यापार समझौतों का कोई भविष्य है?

Symbolbild Sanktionen Hafen Stacheldraht
तस्वीर: picture alliance/dpa/D. Reinhardt

व्यापार समझौतों का इतिहास संक्षिप्त में लिखे जाने की एक लंबी श्रृंखला है. मसलन, गैट, डब्ल्यूटीओ, रिसेप, टीपीपी, नाफ्टा इत्यादि. लेकिन वैश्विक व्यापार बढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर बहुपक्षीय समझौते काफी जटिल होते जा रहे हैं. अमरीकन इंटरप्राइज इंस्टीट्यूट के एक स्कॉलर डेरेक सीजर्स का मानना है कि व्यापार मामलों में आजकल किसी समझौते पर पहुंचना "एक पीढ़ी पहले के शुल्क कटौती की तुलना में कहीं ज्यादा जटिल है."

डीडब्ल्यू से बातचीत में डेरेक कहते हैं कि मुक्त व्यापार समझौतों का कुछ खास उद्योगों और सामाजिक समूहों पर प्रभाव का मूल्यांकन बड़ा कठिन है क्योंकि घरेलू स्तर पर इनका काफी विरोध हुआ है. वह कहते हैं, "इसी तरह, भारी वित्तीय मदद ने छोटी अर्थव्यवस्थाओं को प्रतियोगिता में टिके रहना मुश्किल बना दिया है. जैसे अमेरिका ने शेष विश्व के साथ व्यापार घाटे को बड़ा करके वैश्विक परिदृश्य को ही बदल दिया."

डेरेक कहते हैं, "व्यापारिक उदारीकरण को वैश्विक मुद्रा के तौर पर डॉलर से मदद मिलती है और अमरीका व्यापार घाटे के माध्यम से नकदी प्रदान करता है. उच्च व्यापार घाटे के प्रति अमेरिकी विद्वेष और डॉलर के भविष्य पर उठते प्रश्न व्यापार के जोखिम को और बढ़ा रहे हैं."

चीन का उदय

अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक फलक के बदलाव के पीछे अकेली सबसे बड़ी वजह चीन का उदय है. बीस साल पहले, चीन 15 साल तक चली लंबी वार्ता के बाद डब्ल्यूटीओ में शामिल हुआ. यूरोप और अमेरिका में यह विश्वास बढ़ने लगा कि अब व्यापार का दायरा बढ़ेगा और चीन में उदारीकरण के एक नए अध्याय की शुरुआत होगी.

आसान व्यापारिक शर्तों ने चीन को दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने में मदद की, लेकिन इससे कोई राजनीतिक बदलाव नहीं आया. अर्थव्यवस्था पर चीन के कम्युनिस्ट शासन की मजबूत पकड़ के बावजूद चीन अमरीका और यूरोप के साथ बड़े पैमाने पर व्यापार करता है. दो दशक के बाद भी, पश्चिमी देशों में चीन के साथ प्रतिस्पर्धा की बात हो रही है और लगातार बराबरी की मांग हो रही है.

एक बड़े निर्यातक के तौर पर, चीन एशिया में अपनी व्यापारिक भूमिका को बढ़ाने के लिए कंप्रेहेंसिव एंड प्रोग्रेसिव एग्रीमेंट फॉर ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप (CPTPP) और रीजनल कंप्रेहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (RCEP) जैसे व्यापारिक समझौतों की ओर देखता है. पिछले साल हुए क्षेत्रीय व्यापारिक समझौते RCEP का चीन ने ही नेतृत्व किया था जब नवंबर में चीन और एशिया-प्रशांत क्षेत्र के 14 अन्य देशों ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. यह समझौता करीब 2.2 अरब की आबादी और दुनिया की तीस फीसद अर्थव्यवस्था को कवर करता है. अब ऐसी खबरें भी आ रही हैं कि चीन CPTPP समझौते में भी शामिल होने की कोशिश में लगा है.

यह विडंबना ही है कि CPTPP भी ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप यानी TPP से ही निकला है जो कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र के देशों के साथ हुए समझौते से चीन को निकालने और अमरीका को जोड़ने के लिए किया गया था. फिर भी, डॉनल्ड ट्रंप ने अमेरिका को TPP से बाहर कर लिया और उसके बाद यह तब तक के लिए अप्रासंगिक हो गया जब तक कि यह CPTPP नाम से पुनर्जीवित नहीं हो गया.

ब्लूमबर्ग ने हाल ही में बताया था कि ऑस्ट्रेलिया, मलेशिया, न्यूजीलैंड और कुछ अन्य देशों के अधिकारियों ने चीनी अधिकारियों से विस्तार से बात की है. अंतत: CPTPP की कुछ शर्तें चीन के लिए परेशानी का सबब बन सकती हैं. CPTPP की कुछ शर्तें बहुत कठोर हैं, खासकर श्रम, सरकारी खरीद, राज्य के अधीन उपक्रम, सब्सिडी, ई-कॉमर्स और सीमापार डेटा ट्रांसफर से संबंधित कुछ प्रावधान.

बूढ़ा होता चीन

11:54

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राजनीति ने व्यापार को रौंद डाला

RCEP में ऑस्ट्रेलिया की सदस्यता और चीन के साथ उसका मुक्त व्यापार समझौता भी ऑस्ट्रेलियन जौ, गेहूं, कोयला, शराब और ऐसी ही कुछ चीजों पर शुल्क लगाने से चीन को नहीं रोक सका. यही नहीं, कोविड-19 महामारी के उद्गम की जांच की ऑस्ट्रेलिया की मांग और हांग कांग और शिनजियांग में मानवाधिकार हनन के नाम पर चीन की आलोचना के बाद चीन ने ऑस्ट्रेलिया के साथ होने वाली मंत्रिस्तरीय आर्थिक रणनीतिक बैठक को भी स्थगित कर दिया.

सीजर्स कहते हैं कि चीन इन सबको राज्य के विशेषाधिकार के तौर पर देखता है और इन मुद्दों पर किसी से बातचीत नहीं करना चाहता. वह कहते हैं, "सबसे बढ़िया उदाहरण यही है कि चीन के मुक्त व्यापार समझौते विदेशी प्रतिस्पर्धियों को यह अनुमति नहीं देते कि वो सरकारी उपक्रमों को नुकसान पहुंचाएं. वे मुक्त व्यापार केवल राज्य क्षेत्र के लिए हैं." सीजर्स कहते हैं कि ऑस्ट्रेलिया और चीन के बीच हाल के दिनों में बढ़ा तनाव ये दिखाता है कि चीन राज्य के हितों का दायरा कुछ ज्यादा ही बढ़ाता जा रहा था. उनके मुताबिक, "चीन के साथ बातचीत करने वाले देशों को ये समझना चाहिए कि वो सिर्फ शर्तों के आधार पर बाजार तक पहुंच बनाने पर ही बातचीत कर रहे हैं और चीन उम्मीद करता है कि उसके साथ वैसा ही व्यवहार हो."

पूर्वी एशिया की विशेषज्ञ क्रिस्टीना ओटे कहती हैं कि मुक्त व्यापार समझौते दंडात्मक शुल्क और ऐसे अन्य कार्यों से संरक्षण नहीं देते, जैसा कि ऑस्ट्रेलिया के उदाहरण से साफ हो जाता है. वह कहती हैं, "लेकिन फिर भी ये समझौते विभिन्न देशों के बीच व्यापारिक संबंधों को बढ़ाने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. यह सही है कि RCEP के रूप में एशियाई देशों के बीच तमाम मतभेदों के बावजूद एक समझौता हुआ."

यूरोपीय प्रतिबंध

यूरोपीय संघ और चीन के बीच व्यापक निवेश समझौते को कमजोर करने में भौगोलिक-राजनीतिक चिंताओं ने भी अहम भूमिका निभाई है. यूरोपीय संसद ने समझौते को ठंडे बस्ते में डालने के पक्ष में मतदान किया जिसके लिए जर्मनी पहले से ही प्रयास कर रहा था. चीन ने भी इस साल की शुरुआत में ईयू के सांसदों पर प्रतिबंध लगा दिए थे. जैसे को तैसा वाले ये प्रतिबंध उस घटना के बाद लगाए गए जब यूरोपीय संघ के 27 देशों ने मुस्लिम बहुल शिनजियांग प्रांत में नजरबंदी शिविर चलाने वाले चीनी अधिकारियों पर प्रतिबंधों को मंजूरी दी थी.

अमरीकी व्यापार प्रतिनिधि कैथरीन टाई कहती हैं कि वैश्विक व्यापार नीतियों की रणनीति पर एक बार फिर से सोचना होगा क्योंकि यह तमाम परिस्थितियों को बदलने में असफल रही है. वह कहती हैं, "बलात श्रम का उपयोग वैश्विक व्यापार के संबंध में सबसे क्रूर उदाहरण है." वॉशिंगटन में इस महीने पत्रकारों से बातचीत में टाई ने ये बात चीन के शिनजियांग प्रांत में हो रहे बलात श्रम के संदर्भ में कही.

जर्मनी के सरकारी व्यापार संवर्धन समूह जर्मनी ट्रेड एंड इंवेस्टमेंट (GTAI) के चेयरमैन और सीईओ युर्गेन फ्रेडरिक कहते हैं कि व्यापार समझौतों में भौगोलिक और राजनीतिक परिस्थितियां काफी मायने रखती हैं. फ्रेडरिक इसे जीवन का तथ्य कहते हैं. डीडब्ल्यू से बातचीत में वह कहते हैं, "यह बहस का विषय था कि क्या व्यापक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ये समय विशेषरूप से विवादास्पद भी थे." वह कहते हैं, "किसी भी स्थिति में जर्मन सरकार व्यापार और राजनीति दोनों ही क्षेत्रों में अंतरराष्ट्रीय बातचीत और समाधान में यकीन रखती है. सरकार इस बात से सहमत है कि यह दृष्टिकोण लंबे समय तक कायम रहेगा."

रिपोर्ट: क्लिफर्ड कूनन

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