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वो दिन जिसने बर्लिन की दीवार में पहली दरार डाली

महेश झा
९ अक्टूबर २०१९

9 अक्टूबर के दिन ही जर्मन एकीकरण की नींव रखी गई, लाइपजिग शहर में साम्यवादी सरकार के खिलाफ 70,000 लोगों के शांतिपूर्ण प्रदर्शन के साथ. आज जर्मन राष्ट्रपति फ्रांक वाल्टर श्टाइमायर लाइपजिग में उस दिन को याद कर रहे हैं.

Deutschland Montagsdemonstration in Leipzig 1989
तस्वीर: picture-alliance/dpa/Lehtikuva Oy

Leipzig protests 30 years on

03:28

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वर्ष 1989 की बात है. माहौल में तनाव था. दो दिन पहले यानी 7 अक्टूबर को जर्मन जनवादी गणतंत्र ने अपनी स्थापना की 40वीं वर्षगांठ बड़े धूमधाम लेकिन विपक्ष के प्रदर्शन के साथ मनाई थी. इस मौके पर सोवियत राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचोव भी मौजूद थे जिन पर हर साम्यवादी देश के लोगों ने सुधारों की उम्मीद लगा रखी थी. सोवियत संघ में ग्लासनोस्त और पेरेस्त्रोइका के नाम से सुधार शुरू हो चुके थे, लेकिन पूर्वी जर्मनी सहित कई अन्य देशों के कम्युनिस्ट नेता पद छोड़ने और सुधारों के लिए तैयार नहीं थे.

कम्युनिस्ट देशों में सुधारों का मतलब था, यात्रा करने की आजादी, अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता और आर्थिक सुधार ताकि बाजार में सामानों की कमी को पूरा किया जा सके. बहुत से लोग नियोजित साम्यवादी अर्थव्यवस्था को जरूरी चीजों के अभाव का कारण मानते थे. लोगों के बीच असंतोष था. असंतोष खासकर इसलिए कि उन्हें वे अधिकार भी नहीं दिए जा रहे थे जिनकी संविधान गारंटी करता था. विरोध को बुरी तरह दबाया जा रहा था, जीडीआर की कुख्यात खुफिया पुलिस स्टाजी सब पर नजर रख रही थी. विरोध या आलोचना का मतलब था, नौकरी खोना, पसंद के विषय में पढ़ाई न कर पाना और कई मामलों में कैद.

उम्मीदें गोर्बाचोव से थी. उम्मीदें देश की कम्युनिस्ट पार्टी से थी, जिसके नेता एरिष होनेकर सत्तर की उम्र पार कर चुके थे और लोग उच्च स्तर पर बदलाव की उम्मीद कर रहे थे जिसके साथ संरचनात्मक बदलाव भी शुरू होता. असंतोष खुद पार्टी के अंदर भी था. उस समय तक कम्युनिस्ट पार्टियों में खासकर सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टियों में सत्ता के हस्तांतरण का कोई तरीका नहीं निकला था. आम तौर सत्ता का परिवर्तन नेता की मौत के बाद होता था या उसे बर्बर तरीके से हटाकर. पार्टी सदस्यों की दोनों उम्मीदें पूरी नहीं हो रही थी और होनेकर अपनी नीतियों में बदलाव करने को तैयार नहीं थे.

1989 में लाइपजिग के सोमवार के प्रदर्शनतस्वीर: picture-alliance/dpa

सोवियत संघ की ओर से जीडीआर पर सुधारों का कोई दबाव नहीं था, लेकिन आधिकारिक स्तर पर विचारों में भारी अंतर मुश्किलें पैदा करने लगा था. पूर्वी जर्मनी में जीडीआर के रंगों वाले समाजवाद की बात होने लगी थी. संकेत साफ था कि वहां सोवियत संघ जैसे सुधार नहीं होंगे. एक साल पहले एरिष होनेकर की पश्चिम जर्मन चांसलर हेल्मुट कोल से बॉन में मुलाकात हुई थी और जीडीआर में अब होनेकर को अमेरिका आमंत्रित किए जाने की अटकलें लगने लगी थीं. इन सबका मतलब ये था कि पश्चिम जर्मनी ने साम्यवादी पूर्वी जर्मनी के अस्तित्व को स्वीकार लिया है और जल्द ही अमेरिका भी ऐसा करेगा. फिर एकीकरण का तो सवाल ही नहीं उठता था.

Leipzig protests 30 years on

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जीडीआर के विक्षुब्धों और भूमिगत काम करने वाले विपक्ष को उम्मीद थी कि गोर्बाचोव के बर्लिन दौरे पर शायद पूर्वी जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी सुधारों के कुछ संकेत दे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. गोर्बाचोव के सामने भी होनेकर ने पूर्वी जर्मन नीतियों की कामयाबी की बात की और उन्हें बदलने की जरूरत को नकारा. विपक्ष के लिए साफ हो गया था कि अंदर से सुधार नहीं होंगे. अब सवाल ये था कि लोकतांत्रिक सुधारों की मांग करने वाले विरोध प्रदर्शनों के प्रति कम्युनिस्ट सरकार का क्या रवैया होगा. कुछ महीने पहले चीन ने तियानानमेन चौक पर दिखा दिया था कि लोकतांत्रिक आवाज को किस तरह कुचला जाता है. लोगों में आशंका थी कि कहीं पूर्वी जर्मनी में भी यही न हो.

लाइपजिग में 2010 में सोमवार के प्रदर्शनों की यादतस्वीर: picture-alliance/dpa/H. Schmidt

इन्ही आशंकाओं के बीच गैरकानूनी माहौल में बने विभिन्न ग्रुप अलग अलग तरह से विरोध कर रहे थे. 9 अक्टूबर को लाइपजिग में कुछ होने वाला था. कम्युनिस्ट शासन के विरोधियों के अलावा पुलिस की भी इस पर नजर थी. लाइपजिग में सोमवार को लोकतांत्रिक अधिकारों की मांग के साथ 70,000 लोग सड़कों पर उतरे. बर्लिन से गए दो सरकार विरोधियों ने वीडियो से उसकी तस्वीर बनाई. वीडियो श्पीगेल पत्रिका के रिपोर्टर को सौंपा जिसने उसे पब्लिक ब्रॉडकास्टर एआरडी को दिया. अगले दिन टेलिविजन पर लाइपजिग के प्रदर्शन की तस्वीरें दिखाई गईं, असली वीडियोग्राफरों की पहचान छुपाने के लिए यह कहते हुए कि वीडियो इटली की एक कैमरा टीम ने लिया है.

सबको पता था कि इस वीडियो के बाद हालात बदलेंगे. दुनिया के साथ साथ जीडीआर के दूसरे हिस्से के लोगों को भी पता चला कि जीडीआर में कम्युनिस्ट सरकार के खिलाफ प्रदर्शन हो रहे हैं. लाइपजिंग में हर सोमवार प्रदर्शन होने लगे. देश के दूसरे शहरों में भी प्रदर्शन होने लगे. पार्टी के अंदर दबाव बढ़ा. एरिष होनेकर को पद से हटा दिया गया. उनके समर्थक दूसरे कई पॉलितब्यूरो सदस्य भी हटाए गए.

लाइपजिग के प्रदर्शन की रात सबसे बड़ा डर ये था कि पुलिस क्या कार्रवाई करेगी. चीन सहित दूसरे साम्यवादी देशों में, खुद जीडीआर में 1953 में, हंगरी में 1956 में और चेकोस्लोवाकिया में 1968 में लोकतांत्रिक आंदोलनों को दबाने का इतिहास रहा है. प्रदर्शन में भाग लेने वाले हर व्यक्ति की यही चिंता थी कि उसके साथ क्या होगा? लेकिन कुछ लोगों के सब्र की सीमा खत्म हो गई थी, सड़क पर उतरने वाले ऐसे लोग थे जो सोचने लगे थे कि अब हम या वे. सरकार पर से लोगों का भरोसा खत्म होता जा रहा था. शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर कोई कार्रवाई नहीं होने की वजह से ये भी संदेश गया कि पार्टी और सुरक्षा बलों के अंदर भी मांगों के लिए सहानुभूति है. दीवार खत्म होने तक आने वाले हफ्तों ने दिखा दिया कि शांतिपूर्ण प्रदर्शनों ने इतिहास बदल दिया है.

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