शरण की आस में एक दूसरे से अलग हो रहे हैं परिवार
२ अगस्त २०१८"18 की होने की जगह मैं मरना पसंद करूंगी." 17 साल की रिहम जानती है कि वह अपनी उम्र को बढ़ने से नहीं रोक सकती लेकिन उसे यह भी पता है कि 18 की हो जाने के बाद उसका अपनी मां से मिलने का सपना बस सपना ही रह जाएगा. रिहम लेबनान के रिफ्यूजी कैंप में रहती हैं. उसके साथ उसके पिता और तीन भाई बहन हैं, बस कमी है तो मां की. कांपती हुई आवाज में वह कहती है, "मुझे बस अपनी मां के पास जाना है. मुझे डर है कि मैं यहां अकेली रह जाऊंगी."
दरअसल रिहम का परिवार सीरिया से नाता रखता है. उसकी मां फतेम अलमूसा दमिश्क के एक स्कूल में पढ़ाया करती थीं. लेकिन एक दिन स्कूल बंद कर दिया गया और फतेम इसके खिलाफ आवाज उठाने लगीं. बदले में उन्हें जान से मार दिए जाने की धमकियां मिलने लगीं. देश के हालात देखते हुए परिवार ने देश छोड़ने का फैसला किया. यह 2015 की बात है. उस वक्त जर्मनी की चांसलर अंगेला मैर्केल ने वादा किया था कि हर शरणार्थी को अपने परिवार को साथ लाने का हक दिया जाएगा. इसी वादे पर भरोसा करते हुए फतेम ने जर्मनी जाने का फैसला किया. आज उन्हें जर्मनी आए तीन साल हो गए हैं लेकिन वह परिवार को अपने पास नहीं बुला पाई हैं.
वह फोन पर अपने परिवार से संपर्क में रहती हैं. उस वक्त को याद करते हुए वह कहती हैं, "हमारे पास इतना पैसा नहीं था कि सब जा सकें. लोगों ने बताया था कि बच्चे छह महीने बाद मेरे पास आ सकेंगे." फतेम के जर्मनी आने के एक साल बाद नियम बदल गए. शरणार्थियों की बढ़ती संख्या को देखते हुए देश में असायलम पैकेज 2 पारित किया गया. सरकार ने "सब्सिडरी रिफ्यूजी" की श्रेणी वालों के लिए परिवार को बुलाने पर दो साल तक के लिए रोक लगा दी. इस श्रेणी में उन लोगों को रखा जाता है जो देश में चल रहे युद्ध से भाग कर आए हैं लेकिन जो यह साबित नहीं कर सकते कि उन्हें निजी तौर पर जान का खतरा था. आज इस श्रेणी के दो लाख शरणार्थियों पर वापस अपने देश भेजे जाने का खतरा मंडरा रहा है.
मार्च 2018 से "फैमिली रियूनियन" पर लगी रोक को खत्म होना था. फतेम के पति अहद अलमूसा ने जर्मन दूतावास के कई चक्कर लगाए लेकिन सिर्फ निराशा ही हाथ आई. दूतावास की वेबसाइट पर लाल अक्षरों में लिखा मिला कि अगस्त से पहले कोई आवेदन स्वीकारे नहीं जाएंगे, जिसे देख कर बच्चे सिसक सिसक कर रोने लगे. पिता कहते हैं, "बच्चे मानसिक रूप से बहुत परेशान हैं." अहद कभी सीरिया में डॉक्टर के रूप में काम करते थे. आज वह जिस कैंप में रहते हैं, वहां आसपास कूड़े के ढेर हैं, साफ पानी की कमी है और दीवारों में गोलियों के निशान देखे जा सकते हैं. वह कहते हैं, "मैं अपने बच्चों की ऐसी परवरिश नहीं करना चाहता था."
अहद को सबसे ज्यादा चिंता अपनी बड़ी बेटी की है. दूतावास की वेबसाइट से वह पढ़ कर सुनाते हैं, "18 साल की उम्र होने पर माता पिता के पास जाने का अधिकार खत्म हो जाएगा." जर्मनी के कानून के अनुसार सिर्फ दंपति और नाबालिग बच्चे ही जर्मनी में रह रहे परिवार के सदस्य के पास जा सकते हैं. अर्जी देने के बाद प्रोसेसिंग में लंबा वक्त लगने पर अगर बच्चा बालिग हो जाता है, तो ऐसे में वह अपने घर वालों के पास जर्मनी नहीं आ सकता. इस कानून के लिए मानवाधिकार संगठन जर्मन सरकार की आलोचना भी करते रहे हैं.
रिहम को छोटी बहन राशा बताती है कि मां के जाने के बाद से रिहम डिप्रेशन में है और एक बार अपनी नस काटने की कोशिश भी कर चुकी है. रिहम अपने कमरे से बाहर भी नहीं निकलती, कहती है, "मुझे बाहर जाने में डर लगता है." वहीं रिहम की मां को पता है कि 26,000 लोग अपने परिवारों का इंतजार कर रहे हैं. ऐसे में उनके परिवार को जर्मनी आने में अभी तीन से चार साल और लग सकते हैं. दो साल में राशा भी 18 की हो जाएगी. हर गुजरते दिन के साथ परिवार की एक दूसरे से मिलने की उम्मीदें कम होती जा रही हैं. जब तक कोई नतीजा आएगा, तब तक शायद काफी देर हो चुकी होगी.
रिपोर्ट: एन एसवाइन, लिबनान
कहां कितने जर्मन वीजा आवेदन खारिज हुए