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समाज

शारीरिक उत्पीड़न का शिकार होते दक्षिण एशियाई मदरसा छात्र

आकांक्षा सक्सेना | एस खान, इस्लामाबाद | अराफातुल इस्लाम
२५ मार्च २०२१

बाल उत्पीड़न रोकने के प्रयासों के बावजूद बांग्लादेश, भारत और पाकिस्तान में छात्र कक्षाओं में हिंसा का सामना कर रहे हैं. इस पर रोक लगाने के लिए कानून बनाए गए हैं लेकिन जानकारों का कहना है कि ये उपाय अभी भी नाकाफी हैं.

Symbolbild Sexuelle Gewalt
सांकेतिक चित्र तस्वीर: Oinam Anand/dpa/picture alliance

बांग्लादेश में पिछले दिनों एक वीडियो वायरल हुआ जिसमें एक मदरसा शिक्षक एक छात्र को उसके जन्मदिन पर बहुत ही बेरहमी से पीट रहा था. आठ वर्षीय यह छात्र अपनी मां से मिलने के लिए मदरसे से बाहर जाने की कोशिश कर रहा था. छात्र की मां उसके जन्मदिन पर कुछ तोहफे देने के लिए वहां आई हुई थी. बांग्लादेश के दक्षिणपूर्वी बंदरगाह शहर चिटगांव की इस घटना ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया और आखिरकार शिक्षक को गिरफ्तार कर लिया गया.

इस घटना के बाद मुस्लिम बहुल इस देश में सोशल मीडिया पर यह चर्चा भी जमकर हुई कि यह सिर्फ एक शहर और एक मदरसे की घटना नहीं है बल्कि दशकों से देश भर में स्कूली छात्रों, खासकर मदरसा छात्रों के साथ ऐसी बेरहमी होती रही है.

मदरसा छात्रों का उत्पीड़न ज्यादा होता है

बांग्लादेश ब्यूरो ऑफ स्टेटिस्टिक्स (बीबीएस) और यूनिसेफ द्वारा साल 2012 और 2013 के बीच कराए गए एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि एक से चौदह साल के बीच करीब 80 फीसद बच्चों को "हिंसक सजा” का शिकार होना पड़ा जबकि 74.4 फीसद छात्रों को मनोवैज्ञानिक आक्रामकता का, 65.9 फीसद को शारीरिक दंड और 24.6 फीसद छात्रों को गंभीर शारीरिक दंड भुगतना पड़ा है. शारीरिक दंड की इस वास्तविक व्यापकता के साथ ही सर्वेक्षण से यह भी पता चलता है कि सिर्फ 33.3 फीसद लोग ही यह मानते हैं कि बच्चों के विकास के लिए शारीरिक दंड जरूरी है. सर्वेक्षण में भाग लेने वाले अशिक्षित और गरीबी में रह रहे ज्यादातर लोगों का मानना था कि बच्चों में अनुशासन लाने के लिए शारीरिक दंड एक आवश्यक तरीका है.

हालांकि सर्वेक्षण में पब्लिक स्कूलों और मदरसा या धार्मिक स्कूलों के छात्रों में शारीरिक दंड का तुलनात्मक जिक्र नहीं था लेकिन ढाका स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ में बाल मनोवैज्ञानिक हिलालुद्दीन अहमद कहते हैं कि सामान्य स्कूली छात्रों की तुलना में मदरसों में पढ़ने वाले छात्र शारीरिक उत्पीड़न के शिकार ज्यादा होते हैं. डीडब्ल्यू से बातचीत में हिलालुद्दीन अहमद कहते हैं, "मेरा अपना अनुभव कहता है कि मदरसों में पढ़ने वाले ज्यादातर छात्र शारीरिक उत्पीड़न के शिकार होते हैं. दूसरी ओर, अन्य स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों को मानसिक उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है."

कानूनी कार्रवाई के बावजूद शारीरिक दंड जारी है

साल 2011 में बच्चों को बेरहमी से पीटे जाने और फिर बच्चों के गंभीर रूप से चोटिल होने की लगातार कई घटनाओं के बाद बांग्लादेश सरकार ने इन कार्रवाइयों को ‘क्रूर, अमानवीय और अपमानजनक' बताते हुए शिक्षण संस्थाओं में किसी भी तरह की सजा देने पर प्रतिबंध लगा दिया. यह आदेश मदरसों समेत सभी स्कूलों के लिए था, लेकिन इस कानूनी कार्रवाई के एक दशक बीतने के बाद भी स्कूलों में बच्चों को पीटे जाने की घटनाएं लगातार जारी हैं.

बांग्लादेश की सुप्रीम कोर्ट की वकील मिति संजना डीडब्ल्यू से बातचीत में कहती हैं, "बांग्लादेश में शिक्षण संस्थाओं में शारीरिक दंड का मामला बहुत ही गंभीर है, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में. इसी शारीरिक दंड के चलते कई बच्चों में स्कूल के नाम पर खौफ पैदा हो जाता है और वो स्कूल जाने से डरने लगते हैं.” संजना उन घटनाओं को याद करती हैं जिनमें कुछ छात्रों ने अध्यापकों से अपमानित होने के बाद आत्महत्या कर ली. संजना कहती हैं कि बाल उत्पीड़न को रोकने के लिए सरकार को और सख्त कदम उठाने होंगे, "मुझे लगता है कि शिक्षण संस्थाओं में शारीरिक उत्पीड़न को रोकने के लिए विशेष कानून बनाए जाने की जरूरत है.”

ढाका में वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता इशरत हसन कहती हैं कि मौजूदा कानून शारीरिक उत्पीड़न को पूरी तरह से रोकने में सक्षम नहीं है. डीडब्ल्यू से बातचीत में वो कहती हैं, "हमारे देश में शारीरिक उत्पीड़न को पूरी तरह से खत्म नहीं किया गया है. हालांकि साल 2013 के चिल्ड्रेन ऐक्ट के जरिए किसी बच्चे का शारीरिक उत्पीड़न करने वाले व्यक्ति को सजा दी जा सकती है लेकिन इस कानून में संशोधन की जरूरत है ताकि कुछ विशेष प्रावधानों के जरिए शिक्षण संस्थाओं में शारीरिक उत्पीड़न के शिकार बच्चों को न्याय मिल सके.”

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भारत में मदरसा छात्रों पर दबाव

भारत में भी स्कूली छात्रों के उत्पीड़न को लेकर कई साल से बहस चल रही है. यहां भी बांग्लादेश की तरह तमाम कोशिशों के बावजूद छात्र स्कूलों में शारीरिक उत्पीड़न के शिकार होते आ रहे हैं. भारत में ज्यादातर मुस्लिम अभिभावक अपने बच्चों, खासकर बेटों को पढ़ने और धार्मिक शिक्षा की नींव मजबूत करने के लिए मदरसों में भेजते हैं. भारत में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की अभी भी कमी है और गरीब अभिभावकों के लिए मदरसे मुफ्त शिक्षा प्रदान करते हैं और कभी कभी रहने-खाने की व्यवस्था भी मुफ्त में कर देते हैं, इसलिए लोग अपने बच्चों को मदरसों में भेजते हैं.

जर्मनी स्थित माक्स प्लांक इंस्टीट्यूट फॉर द स्टडी ऑफ रिलीजियस एंड एथनिक डायवर्सिटी में वरिष्ठ रिसर्च फेलो इरफान अहमद कहते हैं, "जब मैं छोटा था, उत्तरी बिहार के डुमरी स्थित अपने गांव के मदरसा इस्लामिया अरेबिया में पढ़ता था. मुझे मेरे टीचर ने इसलिए खूब पीटा था क्योंकि मैंने अपना पाठ याद नहीं किया था. बाद में मैंने सरकारी स्कूल में पढ़ाई की और वहां भी मैं पीटा गया.” इरफान अहमद कहते हैं, "बच्चों का उत्पीड़न हर जगह होता है क्योंकि मुफ्त शिक्षा की समुचित निगरानी के अभाव में जिम्मेदारी भी ठीक से तय नहीं हो पाती. बदलाव के लिए जरूरी है कि समुदाय के भीतर से इसकी शुरुआत हो.”

पाकिस्तान में पिटाई से छात्र की मौत

पाकिस्तान में भी स्कूलों में बच्चों की पिटाई एक गंभीर मुद्दा है और वहां इस बारे में पिछले कुछ सालों में बहुत ही मामूली कदम उठाए गए हैं. पिटाई से न सिर्फ गंभीर रूप से घायल होने बल्कि कई बार बच्चों की मौत होने की घटनाएं भी यहां सामने आई हैं. 54 वर्षीय मुहम्मद अफजल फरवरी 2019 की उस घटना को नहीं भूलते जब उनके सबसे बड़े बेटे जुनैद अफजल की एक मदरसा शिक्षक की पिटाई से मौत हो गई थी.

वो कहते हैं, "मेरा बेटा पंजाब के लाला मुसा के पास हमारे गांव के एक स्कूल में पढ़ता था. उसके स्कूल के कुछ बच्चों ने तय किया कि वो लाहौर के एक मदरसे में पढ़ेंगे. जुनैद ने भी उनके साथ मदरसे में पढ़ने की जिद की तो हमने यह सोचकर वहां भेज दिया कि वह दिल से कुरान पढ़ेगा तो उसे दुआएं मिलेंगी लेकिन मुझे तो अपने बेटे का पिटाई से नीला पड़ चुका शव मिला. मदरसे के मौलवी ने उसकी बड़ी बेरहमी से पिटाई की थी.”

पाकिस्तान में मौलवियों का काफी प्रभाव है और यहां तक कि पुलिस भी कई बार उनके खिलाफ मामले दर्ज नहीं करती. अफजल कहते हैं कि उनके बेटे को पीटने वाले मौलवी के खिलाफ केस दर्ज कराने में उन्हें तीन महीने लग गए. डीडब्ल्यू से बातचीत में इस्लामाबाद में बाल अधिकार कार्यकर्ता मुमताज गोहर कहते हैं कि धार्मिक शिक्षण संस्थानों में ऐसी घटनाएं बहुत सामान्य हैं. इसी साल जनवरी में पंजाब के वेहारी जिले में एक धार्मिक शिक्षक ने आठ साल के एक बच्चे को इतना पीटा कि उसकी मौत हो गई. जनवरी 2018 में कराची में भी आठ साल के एक बच्चे की पिटाई से मौत हो गई थी. पाकिस्तान में इन घटनाओं के वीडियो भी वायरल हुए थे.

पिछले महीने सरकार ने बच्चों के शारीरिक उत्पीड़न पर प्रतिबंध लगाने वाले एक विधेयक को पारित किया लेकिन पाकिस्तान में मानवाधिकार आयोग के पूर्व अध्यक्ष मेहदी हसन कहते हैं कि सरकार ने अभी भी मौलवियों के प्रतिरोध के डर से पर्याप्त कदम नहीं उठाए हैं. मेहदी हसन कहते हैं, "मौलवियों का यह मानना है कि पवित्र कुरान को पढ़ाते समय बच्चों को पीटना अच्छा होता है, इसमें कोई बुराई नहीं है. और सरकार उनके प्रभाव से डरती है.”

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