चपरासी, माली और रसोइया बनेंगे स्कूली टीचर
३१ जुलाई २०२०2010 और 2014 में तत्कालीन लेफ्टफ्रंट सरकार ने संशोधित रोजगार नीति के तहत इन शिक्षकों की नियुक्ति की थी. लेकिन हाईकोर्ट ने इन नियुक्तियों को रद्द कर दिया था. बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी हाईकोर्ट का फैसला बहाल रखा था. लेकिन उसने एडहॉक आधार पर मार्च 2020 तक इन शिक्षकों से काम कराने की अनुमति दी थी. अब उसके बाद तमाम शिक्षक बेरोजगार हो चुके हैं. इसलिए राज्य की बीजेपी सरकार ने अब शीर्ष अदालत से इन लोगों को चपरासी के पद पर नियुक्त करने की अनुमति मांगी है. इन शिक्षकों की नियुक्ति महज मौखिक इंटरव्यू के जरिए की गई थी. लेकिन 7 मई 2014 को त्रिपुरा हाईकोर्ट ने इसे रद्द कर दिया था. उसके बाद 29 मार्च 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने भी हाईकोर्ट के फैसले पर मुहर लगा दी थी. सुप्रीम कोर्ट ने उसी साल 31 दिसंबर को कहा था कि आगे से तमाम ऐसी नियुक्तियां नई नीति बना कर की जाएं.
अदालती निर्देश के बाद सरकार ने 2017 में एक नई नीति बनाई और बर्खास्त शिक्षकों को तदर्थ आधार पर बनाए रखा. उसकी दलील थी कि राज्य में शिक्षकों की भारी कमी है. उसके बाद नवंबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने बर्खास्त शिक्षकों को तदर्थ आधार पर 31 मार्च 2020 तक काम करने की अनुमति दे दी थी. अदालती आदेश के बाद सरकार ने बर्खास्त शिक्षकों को दूसरे पदों पर नियुक्त करने का प्रस्ताव रखा और 1200 पदों पर नियुक्तियां भी हो गईं. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को अदालत की अवमानना का नोटिस भेज दिया. उसके बाद ऐसी नियुक्तियां रोक दी गईं.
दूसरी ओर शिक्षकों ने भी सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी जिस पर अदालत ने सरकार से हलफनामे के जरिए यह बताने को कहा था कि वह इन शिक्षकों की वैकल्पिक आजीविका के बारे में क्या सोच रही है. अपने उसी हलफनामेम में सरकार ने कहा था कि तदर्थ आधार पर नियुक्त इन शिक्षकों को कोई सरकारी लाभ नहीं दिया जाएगा. इसी याचिका में उसने कहा था कि ऐसे शिक्षकों को चपरासी, माली, रसोइया, सुरक्षा कर्मी और चौकीदार के पदों पर नियुक्त किया जा सकता है.
सुप्रीम कोर्ट में न्यायमूर्ति वाईयू ललित, न्यायमूर्ति शांतना गौरदार और न्यायमूर्ति विनीत सरन की खंडपीठ में बहस के दौरान वरिष्ठ एडवोकेट कपिल सिब्बल, कलिना गोंसालवेस और जयदीप गुप्ता ने शिक्षकों की ओर से पैरवी की. इनकी दलील थी कि शिक्षकों को अब तक की नौकरी के तमाम सरकारी फायदे देने होंगे. शिक्षकों की ओर से पैरवी करने वाले वकीलों की दलील थी कि राज्य सरकार ने विभिन्न गैर-तकनीकी पदों पर इन बर्खास्त शिक्षकों की दोबारा नियुक्ति का प्रस्ताव दिया है. ऐसे तमाम पद शिक्षक पद के मुकाबले निचले स्तर के हैं. इसकी बजाय शिक्षकों को उनके मौजूदा पदों पर तमाम सेवा लाभ के साथ काम जारी रखने की अनुमति दी जानी चाहिए. फिलहाल अदालत ने इस मामले पर सुनवाई के बाद अपना फैसला सुरक्षित रखा है.
सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने वाले शिक्षकों के प्रतिनिधि विजय कृष्ण बर्मन कहते हैं, "जो हुआ उसमें हमारी कोई गलती नहीं है. हमारी नियुक्ति तो सरकार ने उस समय तय नीति के तहत ही की थी. अब हमें शिक्षण से हटा कर सरकार दूसरे पदों पर नियुक्त करना चाहती है. लेकिन हमें अब तक सरकारी नौकरी के तमाम फायदे मिलने चाहिए.” उनका सवाल है कि आखिर पोस्ट-ग्रेजुएट उम्मीदवारों को माली और चपरासी के पद पर नियुक्ति का क्या मतलब है. सरकार को कोई समकक्ष पद सृजित करना चाहिए. उसका यह प्रस्ताव हास्यास्पद है. कुछ लोग ग्रुप सी और डी के पद स्वीकार कर सकते हैं. लेकिन शिक्षक के तौर पर अब तक की सरकारी नौकरी के तमाम फायदे देने होंगे.
शिक्षाविदों ने इसे दस हजार से ज्यादा शिक्षकों के साथ क्रूर मजाक करार दिया है. एक शिक्षाविद सुरेश कुमार गोस्वामी कहते हैं, "शिक्षकों को सरकार की गलतियों का खामियाजा भरना पड़ रहा है. सरकार को इन शिक्षकों को उनके मौजूदा पदों पर ही जारी रखने का प्रस्ताव अदालत में देना चाहिए था. आखिर वर्षों से छात्रों को पढ़ाने वाला कोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति अब चपरासी, रसोइया और माली का काम कैसे कर सकता है? उनकी डिग्री और वर्षों के अनुभव का क्या फायदा होगा?”
शिक्षा मंत्री रतन लाल ब्राह्मण कहते हैं, "हमारी पहली प्राथमिकता इन शिक्षकों को बेरोजगार होने से बचाना है. सरकार तो इनको मौजूदा पदों पर ही बनाए रखना चाहती थी. लेकिन हमारे हाथ अदालती निर्देश से बंधे हैं.” अब तमाम निगाहें सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर टिकी हैं. लेकिन अदालत का फैसला चाहे जो हो, फिलहाल इस मुद्दे पर विवाद थमने के आसार कम ही हैं.
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