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शिक्षा से बढ़िए ज्ञान की ओर

१० मई २०१२

ज्ञान शिक्षा पाने से कुछ ज्यादा है. वह लोगों को विकास करने, राजनीतिक रूप से सक्रिय होने की ताकत देता है. डॉयचे वेले की मुख्य संपादक ऊटे शेफर का कहना है कि यह हमेशा शासक वर्ग के हित में नहीं होता.

तस्वीर: picture-alliance/dpa

शिक्षा से शक्ति मिलती है, यह वाक्य 400 साल पुराना है. अंग्रेज दार्शनिक फ्रांसिस बेकन ने इस सिद्धांत के साथ तार्किक युग की नींव रखी. उनके सिद्धांत आज भी लागू होते हैं. ज्ञान ताकत है, शिक्षा आर्थिक और राजनीतिक विकास, लोकतंत्र और सामाजिक न्याय की मौलिक शर्त है, इसे दुनिया में हर रोज परखा जा सकता है. पिछले दिनों ट्यूनीशिया में क्रांति के साथ शुरू हुए अरब आंदोलनों में भी इसे देखा गया है.

अरब विद्रोह

पढ़े लिखे और मध्यवर्गीय लोगों ने आंदोलन की शुरुआत की. खासकर 20-25 साल के युवा लोगों, छात्रों और बुद्धिजीवियों ने जिन्हें सरकार विकास का मौका नहीं दे रही थी. रब्बात से रियाद तक डॉक्टर, इंजीनियर, पत्रकार अधिक आजादी, अधिक हिस्सेदारी, रोजगार बाजार में उचित भागीदारी और असली संभावनाओं के लिए लड़ रहे थे. एक लड़ाई जो पूरी नहीं हुई है, जिसे अब चुनाव और लोकतांत्रिक संस्थानों के जरिए मजबूत करना होगा.

शिक्षा अधिकार देती है, अधिक भागीदारी की वजह बनती है, इसे शायद अरब शासकों ने कम करके आंका. पिछले 20 सालों में अरब देशों में स्कूल और कॉलेजों की स्थापना के बिना यह आंदोलन संभव नहीं होता. मानव विकास रिपोर्ट के अनुसार अरब देशों ने दो दशक पहले शिक्षा का प्रसार शुरू किया, नतीजे देखने लायक हैं. ट्यूनीशिया के राष्ट्रपति बेन अली भी शिक्षा के मामले में सुधारवादी थे. बढ़ती संख्या में लोगों को अच्छी शिक्षा मिल रही थी, लेकिन उसका कोई फायदा नहीं मिल रहा था. नौकरी नहीं, अवसर नहीं, भागीदारी नहीं. ये सब पहले से ही बंटा था, हमेशा उन्हीं खानदानों में. विरोध प्रदर्शनों की शुरुआत से पहले ट्यूनीशिया में बेरोजगारी दर 40 फीसदी थी. यदि उन्हें शिक्षा के असर का शुरू से पता होता तो बेन अली जैसे तानाशाह शिक्षा पर इतना जोर नहीं देते.

तस्वीर: picture-alliance/dpa

शिक्षा मौलिक मानवाधिकार

विकास शिक्षा के बिना संभव नहीं है. यह बात अंतरराष्ट्रीय समुदाय को समझ में आ गई है और उसने इसे अपना राजनीतिक लक्ष्य तथा मांग बना ली है. संयुक्त राष्ट्र का दूसरा मिलेनियम गोल विश्व भर में लोगों को प्राथमिक शिक्षा देने की मांग करता है. विकास दिख रहा है, लेकिन बहुत धीमा और अलग अलग इलाकों में अलग अलग. 1999 से 2009 के बीच प्राइमरी स्कूल जाने वाले बच्चों की तादाद 7 फीसदी बढ़कर 89 फीसदी हो गई. हाल के दिनों में विकास की गति धीमी हुई है. एशिया और अफ्रीका के बहुत से इलाकों में 2015 तक लक्ष्य हासिल नहीं किए जा सकेंगे. विकासशील इलाकों में 100 में से सिर्फ 87 बच्चे प्राइमरी शिक्षा पूरी करते हैं. बहुत से गरीब देशों में तो 40 फीसदी बच्चे आखिरी क्लास में जाने से पहले ही स्कूल छोड़ जाते हैं. देहाती इलाकों और संकट क्षेत्र के बच्चों के पास तो पढ़ने के अवसर और कम होते हैं. और लगभग हर कहीं अभी भी लड़कियों के साथ भेदभाव होता है. अभी बहुत कुछ करना बाकी है.

इसके बावजूद एशिया के टाइगर देशों के अलावा भारत और चीन की मिसाल दिखाती है कि शिक्षा से सीधे आर्थिक फायदा होता है. दक्षिण कोरिया 50 के दशक में बहुत बुरी हालत में था, जैसे आज अफ्रीका के कई देश हैं. लड़के और लड़कियों की शिक्षा में समान रूप से निवेश ने बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं, जन्मदर में कमी और आर्थिक विकास में योगदान दिया है. चीन का तेज आर्थिक विकास भी शिक्षा के कारण ही संभव हुआ है. 25 साल से कम उम्र के हर चीनी युवा के लिए शिक्षा सबसे अहम मुद्दा है. लेकिन चीन इस बात की भी मिसाल है कि अभी भी ऐसे शासक हैं जो अधिक आजादी दिए बिना शिक्षा पर जोर दे रहे हैं. ऐसे मॉडेल तब तक ही चल सकते हैं जब तक उसे बहुमत का समर्थन हो.

कोई अवैध शासन अपने शिक्षित बहुमत की ताकत के खिलाफ लंबे समय तक सत्ता में नहीं रह सकता. जब बहुत शिक्षित हो जाता है तो लोकतांत्रिक परिवर्तन, हिस्सेदारी और फैसले में भागीदारी के दरवाजे खुल जाते हैं. जैसा कि रूस, शुरुआती रूप से चीन में और अरब देशों में हुआ है.

जिम्बाब्वे, अफगानिस्तान और उत्तर कोरिया जैसे देशों में यह बहुत मुश्किल है. जब तक वहां का बहुमत गरीबी में जी रहा है, सरकारी प्रचारतंत्र से घिरा है, शिक्षा के अभाव में कुछ और नहीं जानता और उसे निष्पक्ष सूचना उपलब्ध नहीं है. जब तक वह नेटवर्क नहीं बना सकता, जानकारी साझा नहीं कर सकता, तब तक तानाशाह और सत्ता पर कब्जा करने वाले लोग सुरक्षित रहेंगे. शिक्षा के मौलिक अधिकार के लिए लड़ाई जारी रखने की यह अच्छी वजह है.

रिपोर्ट: ऊटे शेफर/मझा

संपादन: ए जमाल

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