भारत में सरकार और ट्रेड यूनियनों के बीच बातचीत टूटने के बाद 15 करोड़ लोग हड़ताल कर रहे हैं. सरकार और ट्रेड यूनियनों का रुख एक दूसरे से अलग है लेकिन उन्हें साथ लाने की कोशिश करनी होगी.
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नौकरी और श्रमिकों के भविष्य के लिहाज से ट्रेड यूनियनों की मांग उचित है. लेकिन निवेश को आकर्षित करने के लिहाज से नहीं. निवेश नहीं होगा तो नई नौकरियां पैदा नहीं होंगी. और इसमें ट्रेड यूनियनों की भी दिलचस्पी होनी चाहिए कि नए रोजगार बनें ताकि उनके सदस्यों की संख्या बढ़े.
आरएसएस से संबंधित ट्रेड यूनियनों के पीछे हटने के बाद यह हड़ताल एक सरकार विरोधी हड़ताल बन गई है. ट्रेड यूनियनों को अपनी एकता बनाए रखने की जरूरत है.
भारत में जहां 25 प्रतिशत लोग सौ रुपये से भी कम आय पर जिंदगी गुजारने को मजबूर हैं, पर्याप्त आमदनी देने वाली नौकरियों की जरूरत है. दूसरी और जिन लोगों के पास नौकरियां हैं, उसे बचाये रखना भी महत्वपूर्ण है. इसकी रणनीति कर्मचारियों को मैनेजरों के साथ मिलकर बनानी होगी. नए श्रम कानून पर व्यापक चर्चा के बाद आम राय बननी चाहिए.
जर्मनी इस बात का अच्छा उदाहरण है कि ट्रेड यूनियनों के मजबूत होने से किसी मुल्क की आर्थिक हालत खराब नहीं होती. उद्यमों में मुनाफे और श्रमिकों के कल्याण को एक दूसरे के खिलाफ नहीं समझा जाना चाहिए. तभी जर्मनी महंगे श्रम वाला देश होने के बावजूद आर्थिक रूप से अत्यंत सशक्त है और उसके सामान की दुनिया भर में मांग है. जर्मनी में सबसे जरूरी उद्यमों के संचालन में कर्मचारियों की भागीदारी है.
मुनाफे का एक अहम पहलू है ग्राहकों में साख. चाहे ट्रांसपोर्ट हो, बैंक या दूसरे सरकारी उद्यम, उनका भविष्य और मुनाफा और इसके साथ ही कर्मचारियों का कल्याण ग्राहकों को साथ रखने से ही संभव है. अर्थव्यवस्था के खुलने के साथ ग्राहकों की मजबूरी के दिन खत्म हो रहे हैं. उन्हें लुभा कर और अच्छी सर्विस देकर ही अपने साथ रखा जा सकता है. यह बात मैनेजरों को भी समझनी होगी और कर्मचारियों को भी.
मशीनों पर हमले से न्यूनतम वेतन तक
मजदूर आंदोलनों और उनके संगठनों ने पिछले 150 साल में बहुत कुछ हालिस किया. उनकी जड़ें औद्योगिक काल के उन आंदोलनों में है जब मजदूरों ने कारखानों के मालिकों के शोषण के खिलाफ विद्रोह किया था.
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फायदे और नुकसान
18वीं सदी में ब्रिटेन में शुरू हुई औद्योगिक क्रांति दुनिया के लिए तकनीकी प्रगति लेकर आई लेकिन साथ सामाजिक समस्याएं भी. मजदूर औद्योगिक उत्पादन की रीढ़ थे, लेकिन वे मालिकों के शोषण का विरोध कर रहे थे. ब्रिटेन में उन्होंने रोजगार खाते मशीनों को तोड़ना शुरू कर दिया.
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कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो
उद्योगों में काम करने वाले लोगों की भी हालत खराब थी. उन्हें घंटों काम करना पड़ता, बहुत कम तनख्वाह मिलती और शायद ही अधिकार थे. उन्होंने संगठित होना शुरू किया. कार्ल मार्क्स और फ्रीडरिष एंगेल्स ने शोषित वर्ग को एक कार्यक्रम दिया और एकजुट होने की अपील की.
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राजनीतिक हुआ मजदूर आंदोलन
मजदूरों के कई संगठनों ने मिल कर 1864 में फर्स्ट इंटरनेशनल बनाया. साथ ही विल्हेल्म लीबक्नेष्ट और ऑगुस्ट वेबेल के नेतृत्व में जर्मन लेबर ऑर्गेनाइजेशन और सोशल डेमोक्रैटिक लेबर पार्टी जैसे दलों का गठन हुआ. इन दोनों पार्टियों से आज की सोशल डेमोक्रैटिक पार्टी बनी.
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सोशल डेमोक्रैट बनाम कम्युनिस्ट
जर्मन सोशल डेमोक्रैटिक पार्टी दूसरे देशों के लिए आदर्श बनी. मजदूरों के लिए उसका संघर्ष विचारधारा से प्रेरित था. पहले विश्व युद्ध के बाद बहुत से यूरोपीय देशों में मजदूर आंदोलन सोशल डेमोक्रैटों और कम्युनिस्टों में बंट गया. लेनिन ने कम्युनिस्ट क्रांति के बाद सोवियत संघ का गठन किया.
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नाजियों ने लगाया प्रतिबंध
विभाजन के बावजूद 1920 के दशक में मजदूर आंदोलन चरम पर था. ट्रेड यूनियनों में सदस्यों का रिकॉर्ड बन गया. जर्मनी में नाजियों के सत्ता में आने पर इस पर रोक लग गई. आजाद ट्रेड यूनियनों को भंग कर दिया गया, नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया और कुछ को फांसी दे दी गई.
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जीडीआर में विद्रोह
दूसरे विश्व युद्ध के बाद मित्र देशों की निगरानी में ट्रेड यूनियनों को फिर से जायज करार दिया गया. जीडीआर में ट्रेड यूनियन महासंघ बना. 17 जून 1953 को लाखों कामगारों ने राजनीतिक नेतृत्व के खिलाफ विद्रोह किया. सोवियत सैनिकों ने विद्रोह को कुचल दिया. ट्रेड यूनियन सरकार के साथ रहा.
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मजदूर बिन मजदूर आंदोलन
लोकतांत्रिक देशों में 1945 के बाद से ट्रेड यूनियनों का महत्व गिरता गया है. कभी मजदूर आंदोलनों की नींव रखने वाले औद्योगिक कामगारों की तादाद लगातार गिरती जा रही है. इसके अलावा 60 और 70 के दशक से महिला और पर्यावरण आंदोलनों ने उसे पीछे धकेल दिया है.
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मजदूर नेता से राष्ट्रपति
राष्ट्रीय सीमाओं से बाहर धूम मचाने वाला एक ट्रेड यूनियन है पोलेंड का सोलिदारनोस्क. 1980 में स्थापना के कुछ ही समय बाद वह जनांदोलन बन गया. उसने 10 साल बाद देश में राजनीतिक बदलाव में अहम भूमिका निभाई. उसके पहले नेता लेख वालेंसा 1990 में राष्ट्रपति बने.
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मौजूदा स्थिति
इन दिनों ट्रेड यूनियन और वामपंथी पार्टियां काम और जीवन की परिस्थितियों में बेहतरी के लिए संघर्ष करती हैं. मसलन वेतन की डंपिंग, दफ्तर में भेदभाव की समाप्ति और पर्याप्त पेंशन के लिए.
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हड़ताल से आम लोगों पर असर होता है और उनका गुस्सा भी बढ़ता है. अच्छी सेवा देकर हड़ताल के लिए सहानुभूति भी हासिल की जा सकती है क्योंकि कर्मचारियों के पास अपनी मांग मनवाने के लिए हड़ताल एक महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक जरिया है. लेकिन हड़ताल के जरिए आम लोगों पर दबाव डालना अच्छी रणनीति नहीं. एक अच्छा उद्यम मैनेजमेंट और कर्मचारियों के सहयोग पर ही निर्भर है और सहयोग के लिए बातचीत और समझौते की तैयारी आवश्यक है.