श्रोता बना प्रसारक
२९ जुलाई २००९वह 1964 का वर्ष था. अक्टूबर या नवंबर का महीना रहा होगा. दोपहर का समय था. रेडियो की सुई घुमाते-घुमाते अचानक सुना, "यह जर्मन आकाशवाणी डॉएचे वैले है". मैं रेडियो से और भी चिपक गया. क्या? जर्मन आकाशवाणी? तो क्या जर्मनी से हिंदी में भी कार्यक्रम होता है! मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा.
मैं उन दिनों बंबई में (तब मुंबई बंबई ही था) मैट्रिक की पढ़ाई कर रहा था. जब भी दोपहर में घर पर होता और मौक़ा मिलता, रेडियो पर इस "जर्मन आकाशवाणी" को ढूंढने लगता. कभी कार्यक्रम लगता था, कभी नहीं लगता था. कार्यक्रम का प्रस्तुतीकरण बहुत सुंदर तो नहीं था, लेकिन यह सोच कर, कि वह हज़ारों मील दूर (तब भारत में किलोमीटर का चलन नहीं था) जर्मनी से आ रहा था, सब कुछ बड़ा कर्णप्रिय व रोमांचक लगता था.
मुझे नहीं मालूम था कि मैं अनजाने में ही डॉएचे वैले हिंदी कार्यक्रम के प्रथम श्रोताओं में से एक बन गया था. बाद में एक बार उस समय हिन्दी की सबसे प्रतिष्ठित पत्रिका "धर्मयुग" का एक अंक हाथ लग गया. उसमें इसी हिन्दी कार्यक्रम के बारे में एक सचित्र लेख छपा था. बढ़े चाव से पढ़ा.
फ़ोटो में स्टूडियो में माइक्रोफ़ोन के सामने बैठी डॉ. सुषमा लोहिया का चेहरा तो अब भी याद है, लेकिन हो सकता कि स्वर्गीय आदम आबूवाला भी रहे हों. लेख पढ़ते ही तुरंत पत्र लिखा. कुछ दिन बाद हिन्दी में टाइप किया हुआ एक सुन्दर जवाब भी आया. साथ में कोलोन शहर का दृश्य दिखाता एक पोस्टकार्ड भी था. उस समय की अंग्रेज़ी श्रोता पत्रिका "हैलो फ्रेंड्स" भी आने लगी. उस के हर अंक का बड़ी अधीरता से इंतज़ार रहता. उसी से पता चला कि जर्मन विद्वान कालिदास की "शकुंतला" पर कितने मुग्ध थे.
"हैलो फ्रेंड्स" और "धर्मयुग" वाले लेख से मन में रेडियो प्रसारक बनने का शौक जागा. प्रसारक बना 1971 में. लेकिन, कैसी विडंबना कि स्टूडियो डॉएचे वेले का नहीं, उसके प्रतिस्पर्धी रेडियो बर्लिन इंटरनैश्नल का था. पूर्वी जर्मनी में था. बात कुछ ऐसी हुई कि 70 वाले दशक के अंत में दोनों से, पूर्वी जर्मनी से भी और उसकी विदेश प्रसारण सेवा से भी, मुंह मोड़ना पड़ा. पश्चिम जर्मनी में घर बसाना पड़ा.
तब कोलोन में उन चेहरों से मिला, जिनको पहले केवल रेडियो पर आवाज़ सुनकर जानता था. कुछ नयी आवाज़ें और नये चेहरे भी थे. अब मेरी आवज़ भी उनके साथ जुड़ने लगी थी.
अब तो डॉएचे वैले के साथ तीन दशक हो रहे हैं. यह रेडियो स्टेशन कोलोन से बॉन आ गया है. टेलीविज़न के पर्दे और इंटरनेट पर भी देखा सुना जा सकता है. टेप की जगह कंप्यूटर ने लेली है. हिंदी की दो-दो सभाएं होने लगी हैं. अपने संवाददाता हैं. अपना वेबसाइट है. नहीं है, तो संस्कृत कार्यक्रम और पहले जैसी मेरी प्रिय हिंदी (जो भारत में भी नहीं रही).
हिंदी के 45 वर्षों में मेरे भी 30 वर्ष हैं. अब मैं पूरी शांति के साथ सन्यास ले सकता हूं. पर इतना जानता हूं कि सन्यास में भी हिंदी प्रसारण इंटरनेट पर सुना करूंगा. वेबसाइट पढ़ा करूंगा. मन ही मन कहा करूंगा-- मैं भी कभी प्रसारक था, अब फिर श्रोता हूं.
राम यादव