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संकट में पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था

टॉमस बैर्थलाइन१७ नवम्बर २००८

पाकिस्तान इस समय भयंकर वित्तीय संकट से जूझ रहा है. सोमवार को दुबई में अमेरिका, जर्मनी और चीन जैसे उसके मित्र देशों का एक सम्मेलन हो रहा है जिसमें पाकिस्तान की सहायता करने के रास्ते तलाशे जा रहे हैं.

ख़स्ताहाल अर्थव्यवस्था और चरमपंथ से जूझता पाकिस्तानतस्वीर: AP

पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था की समस्याएँ उसके ढाँचे में निहित हैं. आयात निर्यात से हमेशा ज़्यादा रहा है. कपड़ा उद्योग चीनी प्रतिस्पर्धा के आगे कब का घुटने टेक चुका है. आए दिन बिजली की कटौती से जनता तो परेशान है ही, उद्योग जगत का भी दम घुट रहा है. राजनीतिज्ञों और सेना के बीच सत्ता संघर्ष चलने से आर्थिक विकास की उपेक्षा होती रही है.

पाकिस्तानी नेतृत्व के सामने कड़ी चुनौतीतस्वीर: AP

पाकिस्तान में सत्तापक्ष का कहना है कि आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष में वह मोर्चा बन गया है और इसकी क्षतिपूर्ति उसे मिलनी चाहिये. पाकिस्तान सरकार यह भी मान कर चल रही है कि विश्व समुदाय परमाणु हथियार सम्पन्न देश में आर्थिक या राजनीतिक अस्थिरता का ख़तरा मोल नहीं लेना चाहेगा. पूर्व राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ ने भी अमेरिका के साथ इसी तरह की नीति अपनाई थी और आतंकवाद के विरुद्ध कथित युद्ध में एकजुटता दिखाने की क़ीमत वसूलने के प्रयास किए थे.

लेकिन यह व्याख्या ही काफ़ी नहीं है. पाकिस्तान की भुगतान समस्या हो, उग्रवादी विद्रोही हों या आतंकवादी हमले हों, सब की जड़ ग़लत नीतियों में ही है. मुशर्रफ़ और उनके जैसे सैनिक अफ़सर अतीत में सारी तिकड़में लगा कर केवल अपनी सत्ता बचाए रखने में व्यस्त रहे, विदेशी सहायता लेते रहे, इस्लामवादी पार्टियों और तालिबान को बढ़ावा देते रहे, दिखावे के तौर पर उनके विरुद्ध कभी-कभार कोई सनसनीखेज़ अभियान भी चला दिया, लेकिन हर हाल में लोकतांत्रिक विपक्ष का दम घोंटते रहे..

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अन्य देश भी कम दोषी नहीं है. उन्होंने भी मुशर्रफ से कभी कोई शिकायत नहीं की और उन्हें "अनिवार्य साथी " माना जाता रहा. वित्तीय इंजेक्शन भी हमेशा काम नहीं करते. 11 सितंबर 2001 के बाद पाकिस्तान में आर्थिक विकास की ऊंची दर देखने में आई थी लेकिन शिक्षा, आधारभूत ढांचों या औद्योगिक निवेश में वैसी कोई बढ़ोतरी नहीं देखने में आई. बढ़ोत्तरी आई केवल विशिष्ट वर्ग के पास विदेशी मुद्रा में और हथियारों के भंडारों में.

पाकिस्तान का वार्तमान वित्तीय संकट विदेश और पाकिस्तान के बीच की पारस्परिक निर्भरता को भी उजागर करता है. उम्मीद की जानी चाहिए कि यह एहसास संकट के इस समय में कुछ अरब डॉलर जुगाड़ कर लेने तक ही सीमित नहीं रहेगा. यही मौक़ा है संबंधों को एक नई नींव पर खड़ा करने का. साझे लक्ष्यों के लिए सच्चे सहयोग का. इसके लिए सब को अपनी-अपनी ग़लती स्वीकार करनी होगी. फिलहाल तो यही लगता है कि इस्लामाबाद और वॉशिंगटन के बीच अविश्वास घटने की जगह बढ़ रहा है.

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