म्यांमार की नेता आंग सान सू ची संयुक्त राष्ट्र आम सभा में नहीं जाएंगी. रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ हिंसा के बाद आलोचक सू ची से नोबेल शांति पुरस्कार वापस लेने की मांग कर रहे हैं.
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आंग सान सू ची के प्रवक्ता ने इस बात की जानकारी दी कि सू ची इस साल संयुक्त राष्ट्र की आम सभा में हिस्सा नहीं लेंगी. प्रवक्ता ने कहा है कि वो अपना ध्यान "रखाइन के आतंकवादी हमलों" पर लगायेंगी. माना जा रहा है कि संयुक्त राष्ट्र सू ची पर रोहिंग्या मामले में दबाव बना रहा है. नोबेल शांति पुरस्कार विजेता सू ची म्यांमार की राष्ट्रपति तो नहीं हैं लेकिन सत्ता की चाबी उन्हीं के हाथ में है और माना जाता है कि देश से जुड़े अहम फैसले उन्हीं की मर्जी से होते हैं.
सू ची के प्रवक्ता जॉ हताय ने कहा है, "पहला कारण रखाइन में आतंकवादी हमले हैं. सू ची रखाइन राज्य में स्थिति को शांत करने में अपना ध्यान लगा रही हैं." इसके साथ ही हताय ने ये भी कहा, "दूसरा कारण है कि देश के कुछ इलाकों में लोग हिंसा भड़का रहे हैं. तीसरा कारण है कि हम सुन रहे हैं कि कुछ आतंकवादी हमले हो सकते हैं और हम इस स्थिति से निपटने की कोशिश में हैं."
इससे पहले समचार एजेंसी रॉयटर्स से बातचीत में हताय ने कहा कि वो पक्के तौर पर सू ची के यूएन की आमसभा में जाने के बारे में नहीं कह सकते, हालांकि उन्होंने इस बात पर जोर दिया था, "वह कभी भी आलोचना और समस्याओं का सामना करने से नहीं डरतीं. शायद उन पर इस मुद्दे से निपटने के लिए ज्यादा दबाव बन रहा है."
रखाइन में हुए कुछ आतंकवादी हमलों के बाद जिस तरह से सुरक्षाबलों ने रोहिंग्या आबादी के खिलाफ हिंसा शुरू की है उसे लेकर पूरी दुनिया में सू ची की आलोचना हो रही है. सुरक्षा बलों की कार्रवाई और म्यांमार के बहुसंख्यक बौद्ध लोगों की हिंसा से डर कर लाखों की तादाद में रोहिंग्या मुसलमान पलायन कर रहे हैं. इन बेबस लाचार लोगों की तस्वीरों ने पूरी दुनिया में हलचल दी है.
कौन हैं रोहिंग्या मुसलमान
म्यांमार के पश्चिमी रखाइन प्रांत में रोहिंग्या मुसलमानों की आबादी लगभग दस लाख है. लेकिन उनकी जिंदगी प्रताड़ना, भेदभाव, बेबसी और मुफलिसी से ज्यादा कुछ नहीं है. आइए जानते हैं, कौन हैं रोहिंग्या लोग.
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इनका कोई देश नहीं
रोहिंग्या लोगों का कोई देश नहीं है. यानी उनके पास किसी देश की नागरिकता नहीं है. रहते वो म्यामांर में हैं, लेकिन वह उन्हें सिर्फ गैरकानूनी बांग्लादेशी प्रवासी मानता है.
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सबसे प्रताड़ित लोग
म्यांमार के बहुसंख्यक बौद्ध लोगों और सुरक्षा बलों पर अक्सर रोहिंग्या मुसलमानों को प्रताड़ित करने के आरोप लगते हैं. इन लोगों के पास कोई अधिकार नहीं हैं. संयुक्त राष्ट्र उन्हें दुनिया का सबसे प्रताड़ित जातीय समूह मानता है.
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आने जाने पर भी रोक
ये लोग न तो अपनी मर्जी से एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा सकते हैं और न ही अपनी मर्जी काम कर सकते हैं. जिस जगह वे रहते हैं, उसे कभी खाली करने को कह दिया जाता है. म्यांमार में इन लोगों की कहीं सुनवाई नहीं है.
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बंगाली
ये लोग दशकों से रखाइन प्रांत में रह रहे हैं, लेकिन वहां के बौद्ध लोग इन्हें "बंगाली" कह कर दुत्कारते हैं. ये लोग जो बोली बोलते हैं, वैसी दक्षिणपूर्व बांग्लादेश के चटगांव में बोली जाती है. रोहिंग्या लोग सुन्नी मुसलमान हैं.
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जोखिम भरा सफर
संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि 2012 में धार्मिक हिंसा का चक्र शुरू होने के बाद से लगभग एक लाख बीस हजार रोहिंग्या लोगों ने रखाइन छोड़ दिया है. इनमें से कई लोग समंदर में नौका डूबने से मारे गए हैं.
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सामूहिक कब्रें
मलेशिया और थाइलैंड की सीमा के नजदीक रोहिंग्या लोगों की कई सामूहिक कब्रें मिली हैं. 2015 में जब कुछ सख्ती की गई तो नावों पर सवार हजारों रोहिंग्या कई दिनों तक समंदर में फंसे रहे.
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इंसानी तस्करी
रोहिंग्या लोगों की मजबूरी का फायदा इंसानों की तस्करी करने वाले खूब उठाते हैं. ये लोग अपना सबकुछ इन्हें सौंप कर किसी सुरक्षित जगह के लिए अपनी जिंदगी जोखिम में डालने को मजबूर होते हैं.
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बांग्लादेश में आसरा
म्यांमार से लगने वाले बांग्लादेश में लगभग आठ लाख रोहिंग्या लोग रहते हैं. इनमें से ज्यादातर ऐसे हैं जो म्यांमार से जान बचाकर वहां पहुंचे हैं. बांग्लादेश में हाल में रोहिंग्याओं को एक द्वीप पर बसाने की योजना बनाई है.
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आसान नहीं शरण
बांग्लादेश कुछ ही रोहिंग्या लोगों को शरणार्थी के तौर पर मान्यता देता है. वो नाव के जरिए बांग्लादेश में घुसने की कोशिश करने वाले बहुत से रोहिंग्या लोगों को लौटा देता है.
तस्वीर: Reuters
दर ब दर
बाग्लादेश के अलावा रोहिंग्या लोग भारत, थाईलैंड, मलेशिया और चीन जैसे देशों का भी रुख कर रहे हैं.
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सुरक्षा के लिए खतरा
म्यांमार में हुए हालिया कई हमलों में रोहिंग्या लोगों को शामिल बताया गया है. उनके खिलाफ होने वाली कार्रवाई के जवाब में सुरक्षा बलों का कहना है कि वो इस तरह के हमलों को रोकना चाहते हैं.
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मानवाधिकार समूहों की अपील
मानवाधिकार समूह म्यांमार से अपील करते हैं कि वो रोहिंग्या लोगों को नागरिकता दे और उनका दमन रोका जाए.
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कानूनी अड़चन
म्यांमार में रोहिंग्या लोगों को एक जातीय समूह के तौर पर मान्यता नहीं है. इसकी एक वजह 1982 का वो कानून भी है जिसके अनुसार नागरिकता पाने के लिए किसी भी जातीय समूह को यह साबित करना है कि वो 1823 के पहले से म्यांमार में रह रहा है.
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आलोचना
रोहिंग्या लोगों की समस्या पर लगभग खामोश रहने के लिए म्यांमार में सत्ताधारी पार्टी की नेता आंग सान सू ची की अक्सर आलोचना होती है. माना जाता है कि वो इस मुद्दे पर ताकतवर सेना से नहीं टकराना चाहती हैं. सू ची हेग को अंतरराष्ट्रीय अदालत में रोहिंग्या मुसलमानों के नरसंहार से जुड़े आरोपों का सामना करने के लिए जाना पड़ा है.
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म्यांमार की नेता के रूप में संयुक्त राष्ट्र में अपने पहले भाषण में सू ची ने देश में अल्पसंख्यक रोहिंग्या मुसलमानों के साथ हो रहे व्यवहार और इस समस्या से निपटने की सरकार की कोशिशों का बचाव किया था. रोहिंग्या मुसलमानों को संयुक्त राष्ट्र दुनिया में सबसे ज्यादा भेदभाव सहने वाला जातीय समुदाय मानता है. रोहिंग्या मुसलमानों का कहना है कि म्यांमार के सुरक्षाबल उन्हें देश से भगाने के लिए उनके खिलाफ कार्रवाई कर रहे हैं.
इसी साल अगस्त में एक पुलिस चौकी पर आतंकवादी हमले के बाद सुरक्षा बलों की कार्रवाई तेज हो गई है. रोहिंग्या मुसलमानों के कई घरों और गांवों को जला दिया गया है. म्यांमार के सुरक्षा बल इस बात से इनकार करते हैं कि उन्होंने इन घरों को जलाया है.
सू ची ने अब तक रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ हो रही हिंसा की निंदा तक नहीं की है. यही वजह है कि बहुत से लोग उनसे नोबेल शांति पुरस्कार वापस लेने की मांग कर रहे हैं.
बुधवार को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद इस मामले पर चर्चा करेगी, हालांकि यह चर्चा बंद दरवाजों के पीछे होगी. सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य रूस और चीन ने सार्वजनिक रूप से म्यांमार की सरकार का समर्थन किया है. चीन ने म्यांमार में विकास और स्थिरता को सुरक्षित बनाए रखने के लिए सरकार की तारीफ भी की है. संयुक्त राष्ट्र की आम सभा मंगलवार को शुरू हुई और 25 सितंबर तक चलेगी.