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सउदी अरब: सहयोगी या आतंक का वित्तीय पोषक

४ अगस्त २०११

सउदी अरब को अमेरिका का रणनैतिक सहयोगी माना जाता है, लेकिन दूसरी ओर 9/11 के ज्यादातर हमलावर सउदी ही थे. अल कायदा को वित्तीय मदद भी सउदी अरब के चंदों से मिलती है.

Nur für Projekt 9/11: Hintergrund Terrorfinanzierer
तस्वीर: DW / fotolia

जब ताजातरीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा जून 2009 में अपने पहले मध्यपूर्व दौरे पर रियाद पहुंचे तो उन्होंने सउदी राजघराने की तारीफ करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. दोस्ताना अंदाज में रंगे ओबामा ने वयोवृद्ध सउदी शाह अब्दुल्लाह को कहा कि दोनों देश न सिर्फ आर्थिक बल्कि रणनैतिक सहयोगी भी हैं और उनकी "बुद्धिमानी और शालीनता" की तारीफ भी की.

यदि विकीलीक्स द्वारा जारी गोपनीय अमेरिकी दस्तावेजों पर भरोसा किया जाए तो राष्ट्रपति ओबामा की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन उसी साल बहुत कम प्रशंसनीय आकलन पर पहुंची थी. क्लिंटन ने नाराज होकर एक मेमो में लिखा था, "इस बात के लिए सउदी अधिकारियों को राजी करवाना एक स्थायी चुनौती है कि आतंकवाद को सउदी अरब से मिलने वाली वित्तीय मदद पर कार्रवाई सामरिक प्राथमिकता है." आलोचना का चरम था, "सउदी अरब से आने वाला धन विश्व भर में सुन्नी आतंकी दलों का सबसे महत्वपूर्ण वित्तीय स्रोत है."

दो चेहरों वाला सहयोगी

ओबामा और क्लिंटन के बयानों का विरोधाभास एक दूसरे के साथ दोनों देशों के जटिल संबंधों के लिए ठेठ है. एक ओर सउदी अरब मध्यपूर्व में अमेरिका का सबसे महत्वपूर्ण तेल सप्लायर ही नहीं है, अमेरिकी उसे ईरान के बढ़ते प्रभाव की विरोधी सामरिक धुरी भी मानते हैं जो कूटनीतिक पहलकदमियों के जरिए क्षेत्रीय विवादों को सुलझाने में योगदान देता है. दूसरी ओर सउदी अरब में बहुत सी ऐसी बातें हैं जिनकी अमेरिका दूसरे देशों में कड़ी आलोचना करता है, मसलन मानवाधिकारों का हनन, धार्मिक स्वतंत्रता का अभाव, मीडिया सेंसरशिप, महिलाओं और पुरुषों में असमानता. इनमें से अधिकांश का आधार सरकारी वहाबी विचारधारा है जिसे इस्लाम का कट्टरपंथी संप्रदाय माना जाता है. इसलिए बहुत से विशेषज्ञों को कोई आश्चर्य नहीं हुआ कि 11 सितंबर के अधिकांश हमलावर सउदी मूल के थे.

शाह अब्दुल्लाह सुधार लाने की संयमित कोशिश कर रहे हैं. लेकिन वहाबी और अल कायदा की विचारधारा में बहुत सारी समानताएं हैं, कहना है विज्ञान और राजनीति फाउंडेशन (एसडब्ल्यूपी) के इस्लाम और आतंकवाद विशेषज्ञ गीडो श्टाइनबर्ग का. इसका नतीजा यह होता है कि "अक्सर युवा सउदी, जो कुछ उन्होंने स्कूलों और कॉलेजों में सीखा है उसके आधार पर कट्टरपंथी हल्कों में लुढ़क जाते हैं." श्टाइनबर्ग का कहना है कि सउदी नेतृत्व सरकारी विचारधारा और अल कायदा की विचारधारा में इस नजदीकी को मानने को तैयार नहीं.

13 मई 2003 में रियाद का आत्मघाती हमलातस्वीर: picture alliance/dpa

धन से भरा बक्सा

सबसे गंभीर आरोप आतंकवाद को वित्तीय मदद का है. क्या सचमुच अल कायदा को मिलने वाले चंदे का अधिकांश हिस्सा सउदी अरब और खाड़ी के दूसरे धनी देशों से आता है, इसे साबित नहीं किया जा सकता. प्रमुख जर्मन पत्रिका डेअर श्पीगेल में काम करने वाले यासीन मुशरबाश जैसे विशेषज्ञों का मानना है कि सउदी अरब से कूरियर नियमित रूप से हजारों की रकम बक्से में भर कर अफगानिस्तान और पाकिस्तान ले जा रहे हैं, जो फिर वहां के आतंकी कैंपों और ट्रेनिंग शिविरों में पहुंच जाता है.

लेकिन इसके लिए कोई सरकारी सउदी दफ्तर जिम्मेदार नहीं है. मुशरबाश कहते हैं, "ये धर्मार्थ संगठनों का साफ साफ दिखने वाला नेटवर्क है जिनका कुछ हद तक जानबूझकर उनके जाने बिना दुरुपयोग किया जा रहा है." अल कायदा विशेषज्ञ का कहना है कि इसके बावजूद यह मानकर चला जा सकता है कि दफ्तरों में ऐसे कुछ लोग हैं जो जानबूझकर अपनी आंखें मूंद लेते हैं. श्टाइनबर्ग कहते हैं, "यदि आप सोचें कि श्रमिकों की बड़ी संख्या के कारण सउदी अरब और पाकिस्तान के बीच लोगों की कितनी आवाजाही है, तो धन की आवाजाही पर नजर रखना और उसे रोकना मुमकिन नहीं है."

कट्टरपंथी गुटों को चंदा देने में सउदी दरियादिली की परंपरा है और वह 1980 के दशक में ही शुरू हुई थी जब खाड़ी के धनी अरबों ने अफगानिस्तान में सोवियत टुकड़ियों का विरोध करने वाले मुजाहिदीनों को भारी वित्तीय मदद दी थी. आतंकवाद विशेषज्ञ गीडो श्टाइनबर्ग कहते हैं, "ओसामा बिन लादेन ने उसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और 1990 के दशक में सउदी राजघराने से अंतिम रूप से उनके संबंध तोड़ने से पहले मुजाहिदीन को सरकारी सउदी मदद भी मिली थी ." लेकिन 11 सितंबर 2001 के आतंकी हमले के बाद अल हारामीन फाउंडेशन जैसे अर्धसरकारी संगठनों को बंद कर दिया गया, क्योंकि वहां से आतंकवादी और कट्टरपंथी संगठनों को अप्रत्यक्ष रूप से पैसा गया था. सउदी सोच में परिवर्तन की वजह सिर्फ अमेरिकी दबाव ही नहीं बल्कि यह तथ्य भी था कि वह देश भी 2003 से हमले का लक्ष्य बन गया है. श्टाइनबर्ग का कहना है यहां तक कि किसी सुविचारित अप्रत्यक्ष मदद का भी आज कोई सबूत नहीं दिया जा सकता. सउदी अरब की सरकारी नीति कुल मिलाकर स्पष्ट हो गई है. विवाद का विषय यह है कि क्या वर्तमान निगरानी संरचना पर्याप्त है.

इस्लाम विशेषज्ञ गिडो श्टाइनबर्ग

यूरोप से मिलने वाला चंदा

अल कायदा को हमलों के लिए सिर्फ सउदी अरब और खाड़ी क्षेत्र के धनी लोगों से ही चंदा नहीं मिलता. यासीन मुशरबाश का कहना है कि इंटरनेट और व्यक्तिगत संपर्कों की मदद से आतंकी नेटवर्क विश्व भर में अपने समर्थकों से धन जुटाता है. यूरोप में भी. पश्चिमी अरब इलाके में अल कायदा की शाखा ने धन जुटाने का एक नया स्रोत खोज लिया है. वहां कट्टरपंथी फिरौती लेने के लिए प्रमुख रूप से विदेशियों को बंधक बना लेते हैं.

लेख: खालिद अल काउतित/मझा

संपादन: प्रिया एसेलबॉर्न

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