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सड़क हादसों को रोकना जरूरी

१७ सितम्बर २०१४

भारत में औसतन 14 लोग हर घंटे सड़क हादसों में जान गंवा रहे हैं. इससे हो रहे नुकसान का आकलन कर सरकार ने अब ब्रिटिश कालीन मोटर वाहन कानून से तौबा कर सख्त कानून बनाने की पहल की है.

तस्वीर: DW

भारत में सड़क हादसों की सालाना संख्या पांच लाख पहुंच गई है. इनमें दो लाख लोगों की जान जाती है. इससे अर्थव्यवस्था को मानव संसाधन के लिहाज से दो लाख करोड़ रुपये की सालाना हानि होती है. सड़क हादसों के कारण अपना सर्वाधिक जनधन गंवाने वाले देशों में भारत दुनिया का अव्वल देश है. इस भयावह तस्वीर के पीछे सदियों पुराने कानून और उसे भी पालन न करा पाने की प्रशासनिक अक्षमता अहम कारण है. एक तो यातायात नियमों को तोड़ने पर जुर्माने की राशि कुछ सौ रुपये ही है और मुआवजे के लिए पीड़ित पक्ष को ही कानूनी लड़ाई लड़ने की मजबूरी ने वाहन चालकों को दुस्साहसी बना दिया है.

अब जागी सरकार

सड़क हादसों की साल दर साल भयावह होती स्थिति ने सरकार को नया कानून बनाने पर मजबूर कर दिया है. अंतरराष्ट्रीय सड़क संगठन आईआरएफ बीते कई सालों से सरकार पर मौजूदा हालात को सुधारने के लिए दबाव बना रहा था. लगभग दो दशक के इंतजार के बाद अब नई सरकार ने मोटर वाहन कानून में क्रांतिकारी बदलाव की पहल तेज की है. सड़क परिवहन मंत्रालय ने सुरक्षा को अहमियत देते हुए नए कानून का नाम सड़क परिवहन एवं सुरक्षा विधेयक 2014 रखा है. इसे संसद के आगामी सत्र में पेश करने की तैयारी है.

अक्सर कानून के शीर्षक में ही उसका मंतव्य छुपा होता है. ब्रिटिश कालीन मोटर वाहन अधिनियम के नाम से ही पता चलता है कि यह मोटर वाहन मालिकों के हितों की रक्षा करता है. आईआरएफ की भारत शाखा के प्रमुख केके कपिला कहते हैं कि ब्रिटिश राज में अधिकांश वाहन मालिक अंग्रेज ही होते थे जबकि चुनिंदा भारतीय वाहन मालिक तत्कालीन शासन की छत्रछाया में पल रहे रजवाड़ों के लोग थे. मुठ्ठी भर लोगों के लिए बने मोटर वाहन कानून में जनसामान्य के हितों की कोई जगह नहीं थी.

आजादी के बाद जब इस कानून को अपनाया गया तब किसी वाहन से घायल होने वाले पक्ष के हिस्से में जो क्षतिपूर्ति आई वो उस समय के लिहाज से तो ठीक थी मगर समय के साथ मुद्रा के अवमूल्यन को देखते हुए इसमें माकूल इजाफा नहीं हुआ. उदारीकरण के बाद बेहतर होती सड़कों पर जनसंख्या की वृद्धिदर को चुनौती देते वाहनों की वृद्धि दर ने हालात बद से बदतर बना दिए.

तस्वीर: DW/S. Waheed

सख्त सजा

मौजूदा कानून में यातायात नियम तोड़ने पर कुछ सौ रुपये का जुर्माना लगता है. पर्यावरण को वाहनों से होने वाले नुकसान को कम करने के लिए बने नियम तोड़ने पर जुर्माने की राशि हजार का आंकड़ा छू चुकी है. जबकि सड़क हादसे में पीड़ित पक्ष को उसकी उम्र, सामाजिक हैसियत और हादसे में उसकी भूमिका के आधार पर कुछ लाख रुपये का हर्जाना मिलता है. इसके लिए भी कानूनी लड़ाई में एक पीढ़ी का वक्त लगना सामान्य बात है.

मगर अब ऐसा नहीं होगा. प्रस्तावित कानून के मसौदे का मकसद अगले पांच साल में सड़क हादसों की संख्या में दो लाख की कटौती करना है. अगर यह नहीं होता है तो माना जाएगा कि कानून प्रभावी नहीं है और इसमें फिर से माकूल बदलाव होंगे. सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी का कहना है कि सरकार अब कानून की भी समीक्षा करेगी और हालात को सुधारने के लिए हर संभव कठोर उपाय करेगी.

इसीलिए अब जुर्माने की राशि को दस हजार से तीन लाख रुपये तक करने का प्रस्ताव है. साथ ही हादसा करने पर मुआवजा भी मुद्रा स्फीति के मुताबिक होगा जो गलती साबित होने का इंतजार किए बिना पहले ही पीड़ित को देना होगा. बाद में निर्दोष साबित होने पर इसकी भरपाई की जा सकेगी. इतना ही नहीं वाहन कंपनियों को भी जबावदेह बनाने के लिए वाहन में तकनीकी खामी पाए जाने पर प्रति वाहन पांच लाख रुपये का जुर्माना कंपनी से वसूलने की तैयारी है.

नशे में गाड़ी चलाते हुए पहली बार पकड़े जाने पर 25 हजार रुपये और इसके बाद पकड़े जाने पर 50 हजार जुर्माने के साथ वाहन और ड्राइविंग लाइसेंस जब्त करने का प्रावधान किया गया है. रेडलाइट का पालन न करने या सीट बेल्ट नहीं बांधने पर पांच हजार रुपये का जुर्माना और तीन बार ऐसा करते पकड़े जाने पर ड्राइविंग लाइसेंस रद्द करने के अलावा जेल की सजा का खतरा भी मौजूद रहेगा. सड़क हादसे में बच्चे की मौत होने पर तीन लाख रुपये का तत्काल जुर्माना और सात साल की सजा तथा बिना गिरफ्तारी वारंट के ही हिरासत में लेने के पुलिस को अधिकार देने जैसे प्रावधान नए कानून का हिस्सा बनाए गए हैं.

पहल का नफा नुकसान

कपिला के मुताबिक उदारवादी कानून के पैरोकार भले ही इसका विरोध करें लेकिन अब भारत में कानूनन सख्ती समय की मांग है. उनका कहना है कि इन हादसों से होने वाला नुकसान अपूरणीय होता है. इसका खामियाजा न सिर्फ पीड़ित परिवार को बल्कि समूची व्यवस्था को भुगतना पड़ता है. मानव संसाधन के लिहाज से जनधन की इस हानि को रोकने के लिए कानून का सख्त होना ही एकमात्र उपाय है. लोग अपना रवैया तभी बदलेंगे.

इसके उलट एक अन्य आशंका भ्रष्टाचार बढ़ने की जताई जा रही है. यह हकीकत है कि भारत में कानूनों की कमी नहीं है बल्कि इन्हें प्रभावी ढंग से लागू नहीं करा पाने की समस्या गंभीर है. इसका कारण व्यवस्था के हर अंग में व्याप्त भ्रष्टाचार है. अभी भी हजार रुपये के जुर्माने से बचने के लिए वाहन चालक पुलिसकर्मी को कुछ सौ रुपये की घूस देकर आसानी से बच जाते हैं. दिल्ली ऑटो यूनियन के अध्यक्ष राजेन्द्र सोनी कहते हैं कि अब घूस की राशि हजारों में हो जाएगी. क्योंकि कानून तो बदले जा सकते हैं लेकिन वे लोग नहीं जिन पर इसे लागू करना है और जिन्हें लागू कराना है.

सड़क हादसों की लगातार गहराती समस्या से कोई इंकार नहीं कर सकता है. साथ ही भ्रष्टाचार भी भारत में शास्वत सत्य बन गया है. ऐसे में भ्रष्टाचार बढ़ने के डर को देखते हुए लचर कानून से काम चलाना कहीं की समझदारी नहीं है. कानून सख्त करना आंशिक तौर पर ही सही मगर असरकारी होगा इसमें भी कोई शक नहीं है. समय के साथ समाज का नजरिया बदलना लाजिमी है और इस आधार पर भारत की सड़कें भी महफूज होंगी यह आस नहीं छोड़नी चाहिए.

ब्लॉग: निर्मल यादव

संपादन: महेश झा

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