'सपनों से होता है बहुत कुछ हासिल'
१८ नवम्बर २०१२![](https://static.dw.com/image/16387597_800.webp)
समारोह की शुरूआत में डोरोता आम दर्शकों के लिए अपरिचित नाम थीं लेकिन फिल्मोत्सव में उनकी फिल्मों को देखने के बाद लोग उनके मुरीद हो गए. पहली बार किसी भारतीय फिल्मोत्सव में उनकी सात फिल्मों का प्रदर्शन किया गया है. डोरोता ठीक से अंग्रेजी नहीं बोल पातीं. वह दुभाषिए की सहायता से बात करती हैं. लेकिन उनकी बातों में फिल्म निर्माण और उसकी विषयवस्तु के प्रति गंभीरता झलकती है.
वह कहती हैं, ‘पोलैंड में हालीवुड के अलावा दूसरी कोई फिल्म देखना संभव नहीं है. वहां तो पोलिश फिल्में भी देखना मुश्किल है. इसकी वजह यह है कि फिल्में सिनेमा घरों में लंबे समय तक नहीं चलतीं. लेकिन अपने एक सप्ताह के प्रवास के दौरान मैंने कई हिंदी और बांग्ला फिल्में देखी हैं.'
इस महिला फिल्मकार की फिल्में अपने किरदार के अकेलेपन और उसकी निगाह से सामाजिक व्यवस्था की विसंगतियों का चित्रण करती हैं. वह कहती हैं, ‘सपनों से हम बहुत कुछ हासिल कर सकते हैं. इसलिए सपने देखने से डरना नहीं चाहिए.' डोरोता अपनी फिल्मों के जरिए पोलैंड से बेहतर भविष्य की तलाश में इंग्लैंड और आयरलैंड जैसे देश में जाकर बसने वालों की बढ़ती तादाद को एक वैश्विक संकट मानती हैं. उन्होंने अपनी फिल्मों में इस समस्या को उठाने का प्रयास किया है. डोरोता कहती हैं कि पश्चिम यूरोपीय देशों में जाकर लोग ज्यादा पैसे जरूर कमा सकते हैं. लेकिन इस अतिरिक्त पैसे से हमेशा खुशियां हासिल करना संभव नहीं है.
डोरोता की दो फिल्मों-टूमॉरो विल बी बेटर और क्रोज ने समारोह में काफी प्रशंसा बटोरी. उनकी फिल्मों में बाल किरदार ज्यादा होते हैं और उनका निर्देशन कोई आसान काम नहीं है. यह बात डोरोता भी मानती हैं. क्रोज एक ऐसी युवती की कहानी है जिसकी मां उस पर पर्याप्त ध्यान नहीं देती. अपना परिवार बनाने की कोशिश में वह युवती तीन साल के एक बच्चे का अपहरण कर लेती है. वह बताती हैं कि इस फिल्म को बनाने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा. रेडियो और अखबारों में विज्ञापन के जरिए इसके लिए बच्चों से आवेदन मंगाए गए थे. लेकिन शूटिंग आगे बढ़ने पर मौसम काफी ठंडा हो गया. ऐसे में बच्चों के मात-पिता ने उनको कम कपड़ों में अभिनय की अनुमति देने से इंकार कर दिया. फिल्म में काम करने वाली दोनों युवतियां अलग-अलग सामाजिक पृष्ठभूमि से आई थीं. उनमें से एक धनी परिवार से थी तो दूसरी गरीब. दोनों के बीच सामंजस्य बनाना भी एक बड़ी चुनौती रही.
सामाज का चित्रण
डोरोता अपनी फिल्मों के जरिए समाज की विसंगतियों को उठाती रही हैं. वह कहती हैं, ‘हमारी सामाजिक व्यवस्था में मुठ्ठी भर लोगों के पास तमाम सुख-सुविधाएं हैं.' डोरोता अपनी फिल्मों के जरिए असली जीवन में आने वाली समस्याओं को उठाने के लिए जानी-जाती हैं. फिल्मोत्सव में लोगों ने उनकी फिल्मों को काफी पसंद किया है. इससे वह खुश हैं. वह बच्चों के जरिए बड़े लोगों की कहानियां और उनके जीवन के सुख-दुख उठाती रही हैं. डोरोता कहती हैं, ‘मैं जिन मुद्दों को उठाती हूं वह कमोबेश दुनिया के हर हिस्से में मौजूद हैं.'
उनको इस बात का दुख है कि पोलैंड के लोग जीवन में सबसे अहम चीज यानी अपने परिवार को भुला कर इंग्लैंड और आयरलैंड जैसे देशों की ओर पलायन कर रहे हैं. लेकिन पैसों के लिए परिवार के इस बिखराव से उनको खुशी की बजाय गम ही ज्यादा मिलते हैं. डोरोता बताती है कि फिल्म की शूटिंग के दौरान वह मॉनीटर की बजाय कैमरे पर नजर गड़ाए रहती है. इससे किरदारों को नजदीक से देखने और उनसे बेहतर संवाद कायम करने में सहायता मिलती है.
अब वह किसी भारतीय फिल्म निर्माता के साथ मिल कर काम करने की भी योजना बना रही हैं. डोरोता कहती हैं, ‘मेरे मन में ऐसा करने की इच्छा है. देखें बात कब बनती है.'
रिपोर्टः प्रभाकर, कोलकाता
संपादनः आभा मोंढे