सफल ही नहीं सार्थक भी हों साहित्य के उत्सव
३० जनवरी २०१८![Indien Jaipur Literatur Fest 2018 | Tabla Maestro Zakir Hussain](https://static.dw.com/image/42355911_800.webp)
देश के कोने कोने में सालाना साहित्य उत्सवों की भरमार है और इनमें सबसे आगे है जयपुर लिटरेचल फेस्टिवल यानी जेएलएफ जो पिछले 11 साल से देश दुनिया में आकर्षण का केंद्र बना हुआ है. साहित्य, सिनेमा, संगीत, कला, फैशन, राजनीति, वित्त और बाजार. कोई ऐसा सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक विषय या व्यक्ति नहीं होगा जो जेएलएफ में न जुड़ता हो.
जयपुर के दिग्गी पैलेस के खचाखच भरे प्रांगण में एक साथ कई सत्र चलते हैं, पुलिस टुकड़ी तैनात रहती है, युवाओं और स्कूल कॉलेज जाने वाले छात्र छात्राओं का हुजूम टूट पड़ता है, परिवार बच्चों के साथ पिकनिक मूड में घूमने फिरने आते हैं, जहां तहां सेल्फियों के लिए चेहरे और कैमरे टंगे रहते हैं. परिसर तक पहुंचने वाले रास्तों पर जाम लग जाता है और पांच दिन सुरक्षा व्यवस्था और ट्रैफिक को लेकर पुलिसकर्मियों के पसीने छूटे रहते हैं. दुनिया का सबसे बड़ा साहित्यिक शो बताया जाने वाला जेएलएफ एक पर्यटनीय इवेंट भी है. साहित्यिक पर्यटन कह लीजिए. दूर दूर से लोग आते हैं. 200 से ज्यादा मेहमान वक्ता आते हैं. विभिन्न क्षेत्रों के सितारों की एक ठीकठाक सी महफिल जेएलएफ में जम जाती है. जेएलएफ के नाम के आगे अब एक मीडिया कंपनी का नाम भी जुड़ा है. कई सारे अन्य प्रायोजक भी हैं जिनकी फेहरिस्त यहां आने वाले मेहमानों की तरह ही विविध, विशाल और भारीभरकम है.
साहित्य के उत्सव अब देशव्यापी हैं. हैदराबाद, मुंबई, भुवनेश्वर, लखनऊ, बंगलुरू, कोलकाता, चेन्नई, गोवा, दिल्ली, देहरादून और केरल का कोझीकोड़- जहां जाइए उत्सव होगा. कुछ साल के अंत में तो कुछ साल की शुरुआत में. इनके अलावा विभिन्न साहित्यिक सामाजिक संगठनों के भी आयोजन हैं. जयपुर में ही इस साल से दो और उत्सव शुरू हुए. एक का तो नाम ही है समानांतर साहित्य उत्सव यानी पीएलएफ. प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से शुरू हुए इस आयोजन को जेएलएफ की तड़कभड़क और साहित्य के व्यवसायीकरण के खिलाफ एक समांतर शुरुआत बताया गया है. इसी तरह दो दिवसीय जन साहित्य पर्व भी हुआ. जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच, और कुछ जन संगठन और छात्र संगठन इसके मिलेजुले आयोजक थे. इसने खुद को समांतर होने का दावा नहीं किया. बहुत सीमित साधनों में राजस्थान विश्वविद्यालय के एक छोटे से हिस्से में संपन्न हुआ जिसमें लाइव आर्ट और सस्ती किताबों के स्टॉल लगाए गये और साहित्य, कला और सिनेमा के जरिए प्रतिरोध की राजनीति को बचाए रखने का आह्वान किया गया.
अगर थोड़ा पेशेवर नजरिया रखें, अहम के टकरावों और दोहरे रवैये से बचें और अपना उल्लू सीधा करने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाएं तो आने वाले समय में छोटे आयोजन भी जेएलएफ जैसे नामी गिरामी स्पॉन्सर पोषित भव्य कार्यक्रमों को चुनौती दे सकते हैं. बेशक अपनी नैतिक अवधारणाओं और सैद्धांतिक मान्यताओं की वजह से ये जेएलएफ जैसा स्वरूप हासिल न करें लेकिन साहित्यिक गरिमा, सांस्कृतिक चेतना और लोकतांत्रिक जागरूकता वाले उद्देश्यपूर्ण अभियान तो बन ही सकते हैं. राजनीतिक और सांस्कृतिक बहुसंख्यकवाद और हिंसा से भरे ऐसे समय में ये अभियान जरूरी हस्तक्षेप की तरह रहने चाहिए. लेकिन ऑडियंस की भागीदारी सुनिश्चित करने के तरीके निकालने होंगे. मास मीडिया के जरिए न संभव हो तो सोशल मीडिया, लोक मीडिया और बाह्य मीडिया तो है.
जेएलएफ का आकर्षण इतना मुग्धकारी और उसकी बुनावट इतनी मनोहारी है कि युवा वहां खिंचे जाते हैं. लेकिन उमड़ती भीड़ की धूल के बैठते ही चिताएं और विमर्श भी बैठ जाते हैं. तो फिर ऐसे आयोजनों का क्या हासिल? क्या ये सिर्फ मनोरंजन और टाइमपास का माध्यम हैं? इस तरह के सवालों का कोई सीधा जवाब नहीं बनता. कहा जा सकता है कि लोग किताबों और लेखकों और कलाकारों और सिने सितारों से रूबरू हो रहे हैं तो एक स्वाद तो बन ही रहा है. उनके भी दिमाग में कुछ बातें अपना प्रभाव जमाती होंगी. मनोरंजन से इतर भी तो कुछ कशमकश होगी. ये सब संभावनाएं तो हैं लेकिन बुनियादी बात यही है कि उत्सवों के सरोकार ठोस और स्थायी होना चाहिए. वे भीषण उपभोक्तावादी मेले की तरह नहीं हो सकते. मनोरंजन और खरीदारी के लिए तो मेले और मॉल इस देश में हैं ही.
साहित्यिक जलसे की तो विशिष्ट प्रासंगिकता और निहितार्थ होने चाहिए. ये कहकर पीछा नहीं छुड़ाया जा सकता कि हम तो सिर्फ मंच देते हैं, निष्पक्ष रहते हैं, वैचारिक असहमतियों का आदर करते हैं. एक राजनीतिक-सामाजिक उद्देश्य तो निर्धारित करना ही होगा. खुद को अराजनीतिक कहते रहना नासमझी या नादानी है या वह भी एक राजनीति ही है. 2006 में जब जेएलएफ शुरू हुआ था तो इसका उद्देश्य आज के मुकाबले इतना धुंधला नहीं था. लेकिन उसकी कथित तेजस्विता को फीका पड़ते ज़्यादा देर नहीं लगी. वो बहुसंख्यकवादी समय का एक चर्चित पर सामर्थ्यहीन इवेंट बनकर रह गया.
भाषा की प्रस्तुति से ज्यादा जब भाषा का आतंक हो, किताबों से ज्यादा विवादों की चर्चा, मुद्दों की धार न हो ढेर सारे सत्र हों, लेखकों से ज्यादा सेलेब्रिटीज़ की धमक हो, कला की जगह सनसनी, शब्द भीड़ में गुम होने लगें और भीड़ सेल्फियों में और मेहमान सुरक्षा कवचों में, साहित्य का उत्सव नहीं शो बन जाए- तो समझा जा सकता है कि ऐसे आयोजनों की राजनीतिक सांस्कृतिक दिशा क्या है. वे सफल तो होंगे लेकिन सार्थक नहीं.