सार्वभौम प्राइमरी शिक्षा के सहस्राब्दी लक्ष्य पर यूनेस्को की ताजा रिपोर्ट ने भारत के प्रदर्शन पर संतोष जताया है. लेकिन गुणवत्ता और वयस्क शिक्षा के हालात अब भी दयनीय हैं. क्या भारत को इतने भर से ख़ुश हो जाना चाहिए?
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15 साल पहले 164 देशों ने सबके लिए शिक्षा के आह्वान के साथ इस लक्ष्य को पूरा करने का संकल्प लिया था. लेकिन एक तिहाई देश ही इस लक्ष्य को पूरा कर पाए हैं. भारत के नाम बेशक कुछ तारीफ है कि उसने अपने यहां प्राइमरी शिक्षा में नामांकन की दर में सुधार किया है लेकिन शैक्षिक गुणवत्ता और वयस्क साक्षरता के मामले में भारत अभी भी लिस्ट में नीचे ही है. यूनेस्को ने माना है कि भारत ड्रापआउट की दर में 90 फीसदी गिरावट लाने में सफल रहा है. और इस मामले में पड़ोसी देश नेपाल को भी सराहा गया है. उसने भी अभूतपूर्व अभियान चलाकर अपने यहां सबके लिए शिक्षा अभियान को नई ऊंचाईंयां हासिल कराई हैं.
लेकिन क्या भारत को यूनेस्को की मामूली सी तारीफ पर इतराना शुरू कर देना चाहिए या अपने अंदर झांकने और जमीनी स्थिति का मुआयना सही परिप्रेक्ष्य में करने का भी ये सही वक्त होना चाहिए? अगर भारत शैक्षिक कमियों को लांघना चाहता है तो उसे अपनी सारी ताकत उन विसंगतियों को दूर करने में लगानी होगी जो सार्वभौम शिक्षा के नागरिक अधिकार को खोखला करने पर आमादा रहती आई हैं और कर ही रही हैं. इस लिहाज से देखें तो अपनी पीठ थपथपाने से ज्यादा ये मौका सजगता और सतर्कता का है.
प्राथमिक शिक्षा तक सर्वशिक्षा अभियान चलाकर भारत ने सफलता हासिल की है और इसे बुनियादी अधिकार बनाकर, मुफ्त शिक्षा का प्रावधान कर आम समाज को जोड़ने की कोशिश की गई है. लेकिन आज जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं तो पाते हैं कि अभियान तो सफल रहा लेकिन इस अभियान की गुणवत्ता सवालों के घेरे में है. इसमें भर्तियां तो हो गईं, आंकड़े भी आ गए लेकिन सिस्टम और प्रणाली तो लचर ही नजर आती है.
शिक्षा की गुणवत्ता एक बड़ा प्रश्न है. आप दाखिले दिलाकर, कक्षाओं में उत्तीर्ण होने की दरें बढ़ाकर अपना ढोल पीट सकते हैं लेकिन इसका क्या लाभ. उत्तराखंड जैसे राज्य का ही उदाहरण लें जहां कहने को तो साक्षरता दर देश की कुल साक्षरता दर से अधिक यानी करीब 80 फीसदी बताई जाती है लेकिन असल हालात का अंदाजा आप यहां के सरकारी प्राइमरी स्कूलों का दौरा कर लगा सकते हैं. और यही स्थिति कमोबेश देश के अन्य राज्यों में भी है.. सर्वशिक्षा अभियान और उसके बाद मिड-डे मील महायोजना के साथ खिलवाड़ भी इस देश में देखा गया है कि सही इरादे किस तरह अंजाम तक पहुंचते पहुंचते करप्ट कर दिए जाते हैं.
भाषा सीखते बच्चे
पहली कक्षा में कैसे सीखते हैं दुनिया भर के बच्चे अक्षर लिखना और किताबें पढ़ना. देखें तस्वीरों में
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चीनः जितनी जल्दी उतना अच्छा
चीन में तीन साल के बच्चे पहली बार अक्षर देखते हैं और छह साल की उम्र से लिखना शुरू करते हैं. पांचवी कक्षा तक उन्हें 10,000 अक्षर सीखने होते हैं. कड़ी मेहनत का काम. क्योंकि चीनी अक्षर किसी नियम पर नहीं बने हैं. उन्हें बस वैसा का वैसा याद करना पड़ता है.
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जापानः स्कूल खत्म होने तक
जापान के स्कूली बच्चों के लिए लिखना सीखने की प्रक्रिया पहली कक्षा में खत्म नहीं होती. नवीं कक्षा तक हर साल नए अक्षर सिखाए जाते हैं. मूल जापानी शब्द लिखना सीखने के लिए उन्हें 2100 अक्षर सीखने पड़ते हैं. रोज अभ्यास जरूरी है नहीं तो याद होना मुश्किल.
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मिस्रः एक नई भाषा
मिस्र के बच्चे जब लिखना सीखते हैं तो इसके लिए उन्हें नई भाषा सीखनी पड़ती है. क्योंकि इलाकों में बोली जाने वाली बोली मानक अरबी से बहुत अलग है. सरकारी स्कूलों में हर कक्षा में करीब 80 बच्चे होते हैं, इसलिए हर बच्चा उतने अच्छे से सीख नहीं पाता. कुछ बच्चे तो अच्छे से लिखना और पढ़ना कभी नहीं सीख पाते.
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मोरक्कोः सिर्फ अरबी नहीं
कुछ समय पहले तक मोरक्को में बच्चे सिर्फ अरबी भाषा सीखते थे. 2004 से वहां पहली कक्षा में बैर्बर भाषा तामाजिघ्थ सिखाई जाने लगी है. इस कारण बैर्बर इलाके में निरक्षर लोगों की संख्या कम हुई है. 2011 से यह भाषा आधिकारिक बना दी गई है.
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पैराग्वेः आदिवासियों की भाषा
लैटिन अमेरिका में आदिवासियों की भाषा को आगे बढ़ाया जा रहा है. पैराग्वे के बच्चे स्पैनिश तो सीखते ही हैं साथ गुआरानी भी सीखते हैं. लेकिन मुख्य भाषा के तौर पर एक ही चुनी जा सकती है. किसी जमाने में सुंदर लिखना ही सबसे अच्छा था लेकिन आज बच्चों को प्रिंट वाले अक्षर भी सीखने पड़ते हैं.
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कनाडाः नियमों पर नहीं
कनाडा में हर जगह इंग्लिश ही नहीं है यहां एक भाषा इनूक्टिटूट भी है. यह उत्तरी नूनावुट में एस्किमो लोगों की भाषा है. सही शब्द लिखना इसमें कोई मुश्किल नहीं. क्षेत्रीय बोलियों को समझना भी आसान है. जैसा बोला जाता है वैसा ही लिखा जाता है.
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इस्राएलः मदद की जरूरत
इस्राएली बच्चों को हिब्रू सीखना आसान बनाने के लिए अक्षरों की मदद ली जाती है. पहली कक्षा के बच्चों को व्यंजन के साथ कौन सा स्वर लगेगा बताने के लिए अलग अलग स्वरों की तस्वीर बना कर इन्हें अक्षरों के रूप में काट लिया जाता है. फिर इन्हें व्यंजनों के साथ जोड़ना बताया जाता है. लेकिन यह सब सिर्फ पहली कक्षा तक.
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ग्रीकः कई स्वर
कौन सा आई लिखना है... ग्रीस में पहली क्लास के बच्चे अक्सर ये सवाल पूछते हैं. आई स्वर के लिए ग्रीक में छह अलग अलग वर्ण हैं. ई और ओ भी दो तरीके से लिखे जाते हैं. इसके लिए कोई नियम नहीं हैं. इन्हें रटना ही पड़ता है. इसलिए शुरुआती कक्षाओं में शुद्ध लिखना अलग से सिखाया जाता है.
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सर्बियाः एक भाषा, दो लिपियां
सर्बियाई भाषा किरील लिपी में लिखी जा सकती है और लैटिन में भी. बच्चों को दोनों ही सीखनी पड़ती हैं. पहली कक्षा में बच्चे किरील लिपी सीखते हैं और दूसरी कक्षा में लैटिन. कुछ समय बाद बच्चे खुद तय करते हैं कि वह कौन सी लिपी में लिखना चाहते हैं.
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भारतः कई भाषाएं कई लिपियां
भारत की राष्ट्रीय भाषा भले ही हिन्दी हो लेकिन हर राज्य की अपनी अलग भाषा है और अलग लिपी भी. इसलिए पहली कक्षा में बच्चे को हिन्दी, इंग्लिश और राज्य की भाषा सिखाई जाती है. ये जरूरी नहीं कि बच्चे की अपनी मातृभाषा भी इन तीनों में से एक हो. भारत में 22 आधिकारिक भाषाएं हैं.
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पाकिस्तानः दाएं से या बाएं से
किस तरफ से लिखना है, दाएं से या बाएं से. पाकिस्तान में बच्चे दोनों तरफ से लिखना सीखते हैं. क्योंकि पहली कक्षा में उर्दू और इंग्लिश दोनों सिखाई जाती हैं. बच्चों को अंग्रेजी लिखने में परेशानी आती है.
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ईरानः फारसी
ईरान में कई भाषाएं बोली जाती हैं. बच्चे स्कूल में फारसी लिखना सीखते हैं. फारसी मातृभाषा होने पर भी इसे लिखना मुश्किल हो सकता है. इसे इंडो जर्मन भाषा कहा जाता है. सबसे पहले बच्चे सीधी रेखा, वक्र रेखा और तिरछी लकीरें खींचना सीखते हैं इसके बाद शुरू होता है अक्षर ज्ञान.
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जर्मनीः सुन कर लिखें
20 साल पहले जर्मनी में सुन कर लिखने की परंपरा कई स्कूलों में शुरू हुई थी जिस पर काफी बहस है. पहली कक्षा में अक्षरों के साथ एक तस्वीर होती है, जो उस अक्षर का उच्चारण बताती है, ठीक अंग्रेजी के ए फॉर एप्पल जैसी... जर्मन में एफ तो उच्चारण में एफ होता है लेकिन वी का उच्चारण फ जैसा और जे का य जैसा.. इस कारण शब्दों का उच्चारण भी बदल जाता है, हिज्जे भले ही अंग्रेजी जैसे लगे.
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पोलैंडः शुरू से शुरू
पोलैंड में पहली कक्षा से नहीं बल्कि शून्य कक्षा से स्कूल शुरू होता है, यानी एक तरह का किंडरगार्टन. इस क्लास में जाना बच्चों के लिए अनिवार्य है. यहां ये खेल खेल में अक्षरों से पहचान करते हैं. औपचारिक तौर पर लिखने की शुरुआत पहली कक्षा में होती है.
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शिक्षा के मामले में देखें तो एक समस्या छात्र शिक्षक अनुपात की भी है. पद रिक्त पड़े हुए हैं. टीचर या तो हैं नहीं हैं तो जहां उन्हें होना चाहिए वहां नहीं हैं. पाठ्यक्रमों की विसंगति तो पूरे देश में एक विकराल समस्या के रूप में उभर कर आई है. पब्लिक स्कूल बनाम सरकारी स्कूल का विद्रूप और विरोधाभास भी इस देश में किसी से छिपा नहीं है. फिर स्कूली संसाधन का भी सवाल है. आज भी कई सरकारी स्कूल जर्जर हालात में चल रहे हैं. कई जगह तो देखा गया है कि लड़कियों के लिए टॉयलेट तक नहीं होते.
कहा जा सकता है कि विकसित और अमीर देशों के पास मौके हैं, संसाधन हैं, सब कुछ है. वे किसी भी लक्ष्य को आसानी से पूरा कर सकते हैं, भारत इतनी बडी आबादी का देश है, समस्याएं बहुत सारी हैं आदि आदि. लेकिन हम ये भी ध्यान दिलाना चाहेंगे कि लक्ष्य के प्रति बेहतर नतीजा देने वाले देशों में अर्जेटीना, क्यूबा, चिली और नेपाल जैसे अपेक्षाकृत छोटे, कमजोर और गरीब देश भी शामिल हैं.
हमें स्वीकार करना चाहिए कि लालफीताशाही और अकर्मण्य और सुस्त सरकारी मशीनरी, किस तरह नेक लक्ष्यों को चौपट करती जाती है. बाहुबली देशों की कतार में आने के लिए आतुर और मगन देश को ये नहीं भूलना चाहिए कि सार्वभौम प्राथमिक शिक्षा हो या अन्य सामाजिक मुद्दे, वो अब भी विसंगतियों के दलदल में फंसा है और उससे उबरने के लिए जिस इच्छाशक्ति की जरूरत है वो सत्ता-राजनीति के लिए एक समय बाद बस एक नारा भर रह जाता है. गेंद की तरह उसे उछालते रहिए.