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समाज

वक्त के साथ परंपराएं भी बदलें

मारिया जॉन सांचेज
१७ अक्टूबर २०१८

देश के सबसे अधिक शिक्षित राज्य केरल में इस समय परंपरा के प्रति अंधभक्ति और संविधान के प्रति निष्ठा के बीच जबरदस्त संघर्ष चल रहा है.

Sabarimala Tempel
तस्वीर: picture-alliance/dpa/Bildfunk/H. Kumar

सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अनुसार सबरीमला मंदिर के द्वार सभी आयु की महिलाओं के लिए खोले जाएंगे. अभी तक दस से पचास वर्ष की आयु की स्त्रियां इस मंदिर में प्रवेश करने के अधिकार से वंचित थीं क्योंकि माना जाता था कि इस मंदिर के अधिष्ठाता देवता अय्यप्पा बाल ब्रह्मचारी हैं और पचास वर्ष से कम की आयु की स्त्री के मंदिर में प्रवेश करने से उनके ब्रह्मचर्य पर आंच आती है.

पिछली दो सदियां में देश भर में और विशेषकर केरल में अंधविश्वासों, धार्मिक कुरीतियों और सामाजिक विषमताओं से लड़ने की परंपरा रही है. एक समय था जब केरल में निम्न जाति की महिलाएं अपना वक्ष नहीं ढंक सकती थीं. इसके खिलाफ आंदोलन चला और उन्हें वक्ष ढंकने का अधिकार मिला. इसी तरह मंदिरों में अछूत मानी जाने वाली जातियों को प्रवेश प्राप्त नहीं था. इसके खिलाफ बीसवीं सदी के प्रारंभिक दशकों में वहां 'मंदिर प्रवेश आंदोलन' का उदय हुआ और उसने सफलता भी प्राप्त की. लेकिन आज उसी केरल में संघ परिवार और उससे जुड़े भारतीय जनता पार्टी और विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठन सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरोध में सड़क पर उतरे हुए हैं और महिला श्रद्धालुओं को मंदिर में जाने से रोकने के लिए कटिबद्ध हैं.

अदालत के फैसले का विरोध तस्वीर: Reuters/Amit Dave

केरल से लगातार महिला दर्शनार्थियों और पत्रकारों पर हमलों की खबरें प्राप्त हो रही हैं. कांग्रेस की हालत इतनी दयनीय है कि उसका राष्ट्रीय नेतृत्व तो शुरुआत में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का समर्थन कर रहा था और सबरीमला मंदिर में हर आयु की स्त्रियों के प्रवेश के पक्ष में था लेकिन उसका केरल नेतृत्व फैसले का विरोध करते हुए संघ के सुर में सुर मिला रहा है.

राज्य की वाम मोर्चा सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन करने के लिए कृतसंकल्प है और कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दल इसके लिए उसकी आलोचना कर रहे हैं. यानी उनके लिए धार्मिक अंधविश्वास कानून के शासन से अधिक महत्वपूर्ण है. दिलचस्प बात यह है कि तीन तलाक के मुद्दे पर मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के लिए घड़ियाली आंसू बहाने वाली भाजपा हिंदू महिलाओं के अधिकारों का विरोध कर रही है.

अफजल गुरु की फांसी का विरोध करने वालों को वह सुप्रीम कोर्ट की सर्वोच्चता और उसके आदेशों की संवैधानिक पवित्रता की याद दिलाया करती थी लेकिन सबरीमला मंदिर में प्रवेश के मामले में वह इस सब को भूल गई है. यूं इसके पहले भी वह बाबरी मस्जिद मामले में कह चुकी है कि यदि सुप्रीम कोर्ट का फैसला उसके खिलाफ गया तो वह उसे नहीं मानेगी क्योंकि अदालतें आस्था के सवालों पर फैसले नहीं दे सकतीं.

बड़ी संख्या में महिलाएं भी फैसले के खिलाफ तस्वीर: Reuters/Sivaram V

भाजपा केरल में अपनी जड़ें जमाने में अभी तक नाकाम रही है. उसे लग रहा है कि हिंदू धर्म को खतरे में बता कर और इस मुद्दे पर जनभावनाओं को भड़का कर वह अपनी जनाधार में विस्तार कर सकती है. कांग्रेस जैसी अवसरवादी पार्टियां उसके सुर में सुर मिलाकर अपनी ही जड़ों में मट्ठा डाल रही हैं.

कांग्रेस को अपने इतिहास का भी कतई खयाल नहीं. उसी की सरकार ने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में हिंदू कोड बिल जैसे विधेयक को संसद में पारित कराया था और इसका उस समय संघ, जनसंघ और अन्य हिंदुत्ववादी संगठनों ने विरोध किया था. संघ तो यूं भी भारतीय संविधान की जगह 'मनुस्मृति' को स्थापित करना चाहता था.

इतिहास साक्षी है कि हिंदू समाज ने सती प्रथा पर लगे कानूनी प्रतिबंध और विधवा विवाह को मिली कानूनी स्वीकृति के कारण आधुनिकता की ओर कदम बढ़ाया है. वरना हिंदू धर्मशास्त्रों में तो विवाह को जन्म-जन्मांतर का संबंध माना जाता है और उसके विच्छेद की कोई व्यवस्था नहीं है. लेकिन आज कानून के मुताबिक हिंदू समाज में भी तलाक की व्यवस्था है. दहेज और छुआछूत गैरकानूनी हैं जबकि कोई चाहे तो धर्म के आधार पर उनकी वैधता भी सिद्ध कर सकता है. इसलिए केरल के मुख्यमंत्री पी विजयन ने ठीक ही कहा है कि समय के साथ-साथ अनेक धार्मिक रीति-रिवाज बदलने पड़ते हैं और आज सबरीमला मंदिर में यही हो रहा है.

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