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सभी का नुकसान हुआ ब्रिटिश फैसले से

क्रिस्टॉफ हाजेलबाख/एमजे२४ जून २०१६

असंभव संभव हो गया है. ब्रिटेन के बहुमत ने यूरोपीय संघ छोड़ने का फैसला किया है. डॉयचे वेले के क्रिस्टॉफ हाजेलबाख का कहना है कि इस फैसले के बाद ईयू को बदले की भावना नहीं दिखानी चाहिए.

Großbritannien London Taxifahrer hält einen Sticker aus dem Fenster mit der Aufschrift leave
तस्वीर: © Getty Images/J.Tallis

जनमत संग्रह का नतीजा बहुत ही बुरा है, सबके लिए. इस फैसले ने सिर्फ पराजित छोड़े हैं. ब्रेक्जिट के समर्थक इस समय आजादी का अहसास कर रहे होंगे, लेकिन वे जल्द ही देखेंगे कि यह छद्म आजादी है. देश और निर्धन हो जाएगा. और इतना ही नहीं, यूनाइटेड किंगडम टूट सकता है, क्योंकि स्कॉटलैंड का बहुमत यूरोपीय संघ में रहना चाहता है और वह अलग हो सकता है. संयुक्त आयरलैंड की मांग भी जोर पकड़ सकती है, क्योंकि ब्रिटेन के बाहर निकलने के बाद यूरोपीय संघ की बाहरी सीमा आयरलैंड के बीचोबीच से गुजरेगी.

बाकी बचे यूरोपीय संघ के लिए भी नतीजे कम से कम इतने ही गंभीर होंगे. ईयू अच्छी खासी सदस्यता फीस चुकाने वाला एक सदस्य ही नहीं खोएगा, सदस्यों की सूची से विदेश नैतिक, कूटनैतिक और सैनिक तौर पर कद्दावर देश नहीं रहेगा जिसने ईयू को वैश्विक और प्रतिस्पर्धी बनाया है. जर्मनी को तो ब्रिटेन की खास तौर पर कमी खलेगी. बहुत से सदस्य देश हैं जो यूरोप की किलेबंदी करना चाहते हैं और बजट अनुशासन जिनके लिए पराया शब्द है. लंदन और बर्लिन इस मामले में एकमत थे. जर्मनी के लिए एक पार्टनर नहीं रहेगा.

लेकिन इस फैसले का सबसे गंभीर परिणाम राजनीतिक है. ब्रिटेन का उदाहरण दूसरे देशों के लिए भी आकर्षक साबित हो सकता है. भले ही सदस्यता छोड़ने जैसी बात न हो लेकिन कुछ देश इसी तरह के जनमत संग्रह की धमकी दे सकते हैं और ब्रिटेन की ही तरह अपवादों और विशेष अधिकारों की मांग कर सकते हैं. अंत में ऐसा यूरोपीय संघ बच जाएगा जिसके सदस्य अपनी अपनी पसंद का लाभ उठाएं और कोई अपने को जिम्मेदार महसूस न करे. ऐसी संस्था विश्व में गंभीर भूमिका निभाने में सक्षम नहीं होगी.

यूरोप का फायदा

यूरोप में बहुत से लोग ऐसे हैं जो ब्रेक्जिट फैसले के नतीजों का ब्रिटेन को अहसास कराना चाहते हैं. बाहर का मतलब बाहर होता है. रियायतें नहीं दी जाएंगी. वे दूसरे देशों के लिए मिसाल कायम करना चाहते हैं कि भगोड़ों को माफ नहीं किया जाता. मानवीय रूप से यह समझ में आने वाली बात है लेकिन यह अपने ही हितों के खिलाफ होगा. बदला चाहने वाले इस बात को नजरअंदाज कर रहे हैं कि बहुत से देशों में माहौल कितना ईयू विरोधी हो गया है. धमकी देने से माहौल और गरमाएगा. इसके बदले अब शांत रहने और ब्रिटेन के साथ नए संपर्क बनाने का समय है. स्वाभाविक रूप से यह सदस्यता का विकल्प नहीं हो सकता, लेकिन 'सब कुछ या कुछ भी नहीं' की नीति यहां मददगार नहीं होगी.

यूरोपीय संघ को खुद भी अपने अंदर झांकना होगा. नागरिकों के लिए ब्रसेल्स का यह मंत्र काफी नहीं है कि यूरोपीय स्तर पर ज्यादा अधिकार देकर ही सभी समस्याओं का समाधान किया जा सकता है. एक उदाहरण शरणार्थी संकट है, जो बहुत से लोगों के लिए महाद्वीप की सबसे बड़ी चुनौती है. यहां यूरोपीय नीति का मतलब जर्मनी की यह मांग थी कि असीमित संख्या में शरणार्थियों को यूरोप के देशों में बांटा जाए, जबकि दूसरे उन्हें लेना ही नहीं चाहते थे. राजकोषीय घाटे की अनसुलझी समस्या ने भी मतभेदों को पाटने के बदले ज्यादा खाईयां बनाई हैं. धनी देशों को लगता है कि उनका इस्तेमाल हो रहा है, गरीब देशों को लगता है कि उन पर धौंस दिखाई जा रही है.

यूरोपीय सहयोग के फायदे को भविष्य में बेहतर तरीके से दिखाया जाना चाहिए. ईयू को शांति परियोजना बताकर बाकी मुद्दों को दरकिनार करना काफी नहीं है. हां, ब्रिटिश फैसला दुःस्वप्न जैसा है. लेकिन वह जोरदार चेतावनी भी है. इस घड़ी की मांग है कि आत्ममंथन किया जाए और भविष्य में हम साथ मिलकर क्या हासिल करना चाहते हैं, उस पर विचार किया जाए.

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