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समलैंगिकता पर 'वायरल' चेतना और कानून

ऋतिका राय/एमजे १२ जून २०१५

भारतीय ईकॉमर्स साइट के कपड़ों के विज्ञापन में एक लेस्बियन जोड़े को दिखाए जाने पर ऐसी 'वायरल' प्रतिक्रिया तो अपेक्षित है ही. यह एकलौता मामला नहीं बल्कि समलैंगिक संबंधों को अवैध मानने वाले भारत में जारी हैं ऐसे कई प्रयास.

तस्वीर: Getty Images

28 मई को वीडियो शेयरिंग साइट यूट्यूब पर डाले गए इस विज्ञापन में समाज में मौजूद समलैंगिक संबंधों और उनके समाज की मुख्यधारा में शामिल होने की कोशिशों को दिखाया गया है. इस 3 मिनट के विज्ञापन ने समलैंगिकता को अपराध मानने वाले देश भारत में एक बार फिर बहस को जन्म दिया है. प्यार, सम्मान और आपसी समझ पर आधारित व्यक्तिगत पसंद को वरीयता देते हुए समाज में धर्म, जाति, लिंग की ही तरह यौन प्राथमिकता और संबंधों के आधार पर भी भेदभाव ना किए जाने का मुद्दा जोरदार तरीके से उठा है.

मई 2015 में भारत में एलजीबीटी अधिकारों के लिए काम करने वाले एक सामाजिक कार्यकर्ता हरीश अय्यर के शादी के विज्ञापन पर कुछ ऐसी ही प्रतिक्रिया देखने को मिली थी. 36 वर्षीय हरीश की मां पद्मा अय्यर ने उनकी शादी के लिए अच्छे लड़कों के रिश्ते मंगवाए थे. कई प्रमुख अखबारों के नकारने के बाद जाकर मुंबई के एक अंग्रेजी टैबलॉयड ने देश का पहला समलैंगिक शादी का विज्ञापन प्रकाशित किया. बाकी अखबार समलैंगिकता को अपराध मानने वाले देश में ऐसा विज्ञापन छापकर कानूनी पचड़े में नहीं पड़ना चाहते थे. इसके बारे में भी मीडिया, सोशल मीडिया और सामाजिक हलकों में खूब चर्चा हुईं. इस बीच विज्ञापन छपने के कुछ ही दिनों के भीतर हरीश अय्यर को आधा दर्जन प्रस्ताव मिल चुके थे.

विएतनाम के समलैंगिक जोड़े की इस तस्वीर को मिला था 2013 का वर्ल्ड प्रेस फोटो अवार्डतस्वीर: Maika Elan, Most

मानवाधिकार संगठनों के प्रयासों के बावजूद समलैंगिक संबंधों को समाज और कानून का समर्थन नहीं मिलता है. समलैंगिकता को आपराधिक दर्जा देने वाले सुप्रीम कोर्ट के 2013 के फैसले को संयुक्त राष्ट्र ने "भारत के लिए पीछे की ओर एक बड़ा कदम" कहा था. कोर्ट ने डेढ़ सौ साल पुराने ब्रिटिश काल के एक कानून को बरकरार रखा जिसमें धारा 377 के अनुसार समलैंगिक यौन संबंधों को अपराध माना गया है, जिसमें दोषी पाए जाने पर 10 साल तक की जेल हो सकती है. 2009 में ही दिल्ली हाई कोर्ट ने धारा 377 को संविधान में तय किए गए समानता, निजता और स्वतंत्रता के मानव के मूल अधिकारों के विरूद्ध बताते हुए समलैंगिकता से प्रतिबंध हटा लिए थे. कई धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक संगठनों के कड़े विरोध के चलते 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला बदल दिया.

देश भर से समलैंगिक व्यक्तियों और जोड़ों के साथ भेदभाव, अत्याचार और सामाजिक उत्पीड़न के कई मामले सामने आते रहते हैं. कई जगहों पर परिवारों में "करेक्टिव रेप" की खबरें भी आई हैं. इसमें समान सेक्स की यौन प्राथमिकता वाले व्यक्ति के साथ परिवार खुद बलात्कार करवाता है. उन्हें लगता है कि किसी इतरलिंगी के साथ शारीरिक संबंध बन जाने से समलैंगिक व्यक्ति को बदला जा सकता है. इस तरह की बर्बर परंपरा अफ्रीका और कैरेबियाई देशों में प्रचलित है, जहां अनजान या दूर के संबंधियों से यह कृत्य करवाया जाता है. भारत में परिवार के भीतर गुपचुप तरीके से होने के कारण ये मामले रिपोर्ट नहीं होते. करेक्टिव रेप के मुद्दे पर सत्यवती नाम की फिल्म बना रही डायरेक्टर दीप्ति ताडांकी बताती हैं कि उनके रिसर्च के दौरान उन्हें भारत के सिलिकन वैली बंगलूरु में ऐसे दो "खौफनाक" मामलों का पता चला. एक मामला समलैंगिक लड़की का था, जिसके साथ परिवार वालों ने उसके चचेरे भाई ने बलात्कार करवाया. दूसरे मामले में एक समलैंगिक व्यक्ति को उसकी मां के साथ संबंध बनाने को विवश किया गया. ताडांकी कहती हैं, "जब भी कुछ बुरा होता है आप सहारे के लिए अपने परिवार के पास जाते हैं. जब परिवार ही अत्याचार करे और पुलिस के पास जाने से गिरफ्तारी का डर हो, तो आप कहां जाएंगे?"

ऋतिका राय/एमजे (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)

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