नीति आयोग ने गठन के ढाई साल की कसरत के बाद एक ऐक्शन एजेंडा जारी किया है जिसमें ऐक्शन कम, मुश्किलें और मजबूरियां ज्यादा दिखती हैं. मानो ये सरकार की सिकुड़ती भूमिका और कॉरपोरेट की आमद का औपचारिक ऐलान कर रहा हो.
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तीन साल के लिए तैयार इस अजेंडे में विकास की प्राथमिकताओं, अर्थव्यवस्था के बुनियादी ढांचे में बदलाव, आर्थिक सुधारों और मूलभूत आर्थिक लक्ष्यों का व्यापक विवरण है. साथ ही अर्थव्यवस्था के मौजूदा हाल और विकास की प्रमुख बाधाओं और समस्याओं पर गहरी चिंता प्रकट की गयी है. ये आयोग अपने पहले प्रमुख अरविंद पनगढ़िया की असमय विदाई के लिए भी जाना जाएगा. एक जनवरी 2015 को नीति आयोग के गठन के साथ ही केंद्र सरकार ने कथित रूप से विकास का नया मॉडल रखने और भारतीय अर्थव्यवस्था का क्रांतिकारी रूपांतरण करने का दावा किया था. ये एक तरह से पंचवर्षीय योजना के नेहरूवादी मॉडल और मिश्रित अर्थव्यवस्था की विरासत का औपचारिक अंत था. हालांकि नियोजित विकास का वो मॉडल 1991 में लागू किये गये आर्थिक सुधारों के बाद से ही अप्रासंगिक हो चला था.
नीति आयोग के 200 पन्ने के मौजूदा ऐक्शन प्लान पर नजर डालें तो अर्थव्यवस्था का शायद ही कोई क्षेत्र इससे अछूता है. इसमें अर्थव्यवस्था के सभी सेक्टरों का रेखांकन है, चिंताएं हैं और सुझाव हैं. लेकिन उसके लिये कोई योजनाबद्ध परियोजना नहीं बनायी गयी है. मसलन उच्च शिक्षा में सुधार पर जोर देते हुए कहा गया है कि देश में विश्वस्तर के 20 विश्वविद्यालय बनाने, शोध प्रणाली और नियामक प्रक्रिया में सुधार और कौशल आधारित और पेशेवर शिक्षा को बढ़ावा देना होगा. स्वायत्तता और पारदर्शिता पर भी खासा जोर है. लेकिन हाल के दिनों में विश्वविद्यालयों और संस्थानों में जो घटनाएं घटी हैं, उससे स्पष्ट है कि वास्तविकता कुछ और है. इन संस्थानों में संघ के वैचारिक हस्तक्षेप दिखने लगे हैं. मिसाल के लिए आईआईटी दिल्ली में पंचगव्य पर 50 से ज्यादा शोध प्रस्तावों का आना, सभी आईआईटी में "देशभक्ति” रॉक बैंड बनाने की कवायद, जेएनयू में पीएचडी दाखिले की प्रक्रिया में बदलाव, जेएनयू के वीसी का कैंपस में टैंक रखने का सुझाव, माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय में गौशाला की स्थापना, विश्वविद्यालयों में संघ की पृष्ठभूमि वाले कुलपतियों की नियुक्ति आदि ऐसे कई मामले हैं, जिनसे पता चलता है कि नीति आयोग की कथित गंभीरता कहां जाकर ढेर हो रही है.
प्लान के अनुसार बेरोजगारी की समस्या विकट होती जा रही है, खास तौर पर अंडर एंप्लॉयमेंट या प्रच्छन्न बेकारी जिसमें लोग कम से कम पारिश्रमिक पर काम करने के लिये मजबूर हैं. उसके लिये नेशनल स्किल डेवलपमेंट मिशन को चाहिये कि वो 2020 तक कम से कम 80 प्रतिशत नौकरी सुनिश्चित करें क्योंकि अब तक सरकार के स्किल डेवलपमेंट प्रोजेक्ट का अपेक्षित लाभ नहीं मिला है. मानव संसाधन को कुशल और पेशेवर बनाना एक बड़ी चुनौती है क्योंकि भारत अभी सिर्फ 2.3 फीसदी कामगार आबादी को ही कुशल बना पाया है. अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों में ये प्रतिशत 55 से 65 फीसदी है.
चंदों पर चलते राजनीतिक दल
लोकतंत्र में राजनीतिक दल लोगों के विचार के विकास में योगदान देते हैं और उनका समर्थन जीतकर उनके हित में प्रशासन चलाते हैं. लेकिन सदस्यों से पर्याप्त धन न मिले तो पार्टियों को चंदे पर निर्भर होना पड़ता है.
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बढ़ा खर्च
राजनीतिक दलों का खर्च बढ़ा है. वहीं उनका जनाधार खिसका है. लोकतांत्रिक संरचना के अभाव में सदस्यों की भागीदारी कम हुई है. पैसों की कमी चंदों से पूरी हो रही है, जिसका सही हिसाब किताब नहीं होता.
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जुलूस
खर्च इस तरह के जुलूसों के आयोजन पर भी है. चाहे चुनाव प्रचार हो या किसी मुद्दे पर विरोध या समर्थन व्यक्त करने के लिए रैलियों का आयोजन. नेताओं को लोकप्रियता दिखाने के लिए इसकी जरूरत होती है.
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रैलियां
लोकप्रियता का एक पैमाना स्वागत में सड़कों पर उतरने वाली भीड़ है. इस भीड़ का इंतजाम स्थानीय पार्टी इकाई को करना होता है. कार्यकर्ताओं को लाने ले जाने का भी खर्च होता है.
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छोटी पार्टियां
राष्ट्रीय पार्टियों के कमजोर पड़ने से लगभग हर राज्य में प्रांतीय पार्टियां बन गई हैं. स्थानीय क्षत्रपों को भी अपनी पार्टी चलाने के लिए पैसे की जरूरत होती है.
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कहां से आए धन
बहुत से प्रांतों में आर्थिक विकास न होने के कारण चंदा दे सकने वाले लोगों की कमी है. फिर पैसे के लिए चारा घोटाला होता है या चिटफंड घोटाला.
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पैसे की लूट
फिर सहारा स्थानीय कंपनियों का लेना पड़ता है. बंगाल में सत्ताधारी त्रृणमूल के कुछ नेता घोटालों के आरोप में जेल में हैं, जनता सड़कों पर उतर रही है.
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नजरअंदाज नियम
भारत का चुनाव आयोग दुनिया के सबसे सख्त आयोगों में एक है. उसने स्वच्छ और स्वतंत्र चुनाव करवाने में तो कामयाबी पाई है लेकिन राजनीतिक दलों को लोकतांत्रिक और पारदर्शी बनाने में नाकाम रहा है.
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पारदर्शिता संभव
भारत जैसे लोकतंत्र को चलाने वाली बहुत सी राजनीतिक पार्टियां खुद कानूनों का पालन नहीं करतीं. आम आदमी पार्टी अकेली पार्टी है जो चंदे के मामले में पारदर्शी है.
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प्राथमिकता क्या
सालों से सत्ता में रही और स्वच्छ प्रशासन के लिए जिम्मेदार रही पार्टियां या तो जुलूस, धरना, प्रदर्शन में वक्त गुजार रही है...
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दलगत राजनीति
...या फिर जीत का जश्न मनाने, नए प्रदेशों पर कब्जा करने की योजना बनाने और वहां सत्ता में आने की तैयारी करने में.
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परेशान जनता
तो देश के बड़े हिस्से को पानी, बिजली जैसी आम जरूरत की चीजें उपलब्ध नहीं है. अभी भी लोगों को पीने के पानी के लिए लाइन में खड़ा होना पड़ता है.
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भारतीय अर्थव्यवस्था अभी भी कृषि आधारित है जहां 50 प्रतिशत आबादी की आजीविका खेती से चलती है. लेकिन प्लान में यह सलाह दी गयी है कि खेती करने वालों को दूसरे लाभदायक काम करने के लिये प्रोत्साहित किया जाए और साथ ही खेती को लाभकारी बनाया जाए. दोनों परस्परविरोधी बातें हैं. अगर आप कृषि को अपने विकास पैमाने के लिए अनफिट मान रहे हैं तो ये स्पष्ट कीजिए. लेकिन इससे पहले आपको ये जवाब तो देना होगा कि आखिर कृषि पर निशाना और किसान पर बोझ क्यों. किसान की जगह कॉरपोरेट को रखने का एजेंडा ही अगर विकास का सूत्र है, तो चिंताएं और सवाल भी स्वाभाविक हैं. अभी पिछले दिनों उत्तराखंड सरकार ने पहाड़ी राज्य मे जड़ीबूटी से जुड़ा एक अभूतूपूर्व करार पतंजलि के बाबा रामदेव के साथ किया है. ऐसा लगता है कि इसमें सरकार ने किसानों के संरक्षक की अपनी बुनियादी भूमिका से सरेंडर करते हुए पतंजलि को ही कमोबेश "नियामक संस्था” बना दिया है. और इस तरह के उदाहरण आपको और राज्यों में भी मिलेंगे.
प्लान में स्वास्थ्य से लेकर श्रम सुधारों में सुधार पर बल दिया गया है. अभी हाल ही में ऐसे सुधार किये गये हैं जिनको कॉरपोरेट हित में बताते हुए कड़ा विरोध किया गया. नये सुधारों की सिफारिश का क्या मकसद है? संसद में पहली बार ऐसा हुआ कि दूसरा या मध्य साल का आर्थिक सर्वेक्षण रखा गया. अगस्त में पेश इस सर्वेक्षण में कहा गया है कि साढ़े सात फीसदी से ऊपर का विकास लक्ष्य अव्यावहारिक है और देश में नोटबंदी के बाद रोजगार क्षेत्र में भी मंदी है. लेकिन इधर तीन साल के एजेंडा में इसकी कोई चर्चा नहीं है. जबकि नीति आयोग का प्लान अगले 15 वर्षों के लिये एक विजन डॉक्यूमेंट होने का दावा करता है, जिसमें तीन साल का ऐक्शन अजेंडा और सात वर्षों की स्ट्रैटेजी शामिल है. क्या तेजी से बदलते ग्लोबल परिदृश्य में 15 वर्षों का नियोजन संभव है? सिर्फ कुछ अलग दिखने की महत्त्वाकांक्षा में ये एक नियोजित विकास से दूसरे नियोजन की ओर जाने की कोशिश है या महज शब्दजाल है?
विदेशी निवेश और पीपीपी मॉडल की लगातार वकालत करते हुए सरकार अपनी जवाबदेही को न्यूनतम करने की ओर अग्रसर है. जब आर्थिक सर्वे से लेकर नीति आयोग की रिपोर्टें तक चुनौतीपूर्ण हालात बयान कर रही हैं तो फिर इस ऐक्शन अजेंडे के जरिये क्या बताने की कोशिश की जा रही है. क्या आप हाथ खड़े कर रहे हैं, भरोसा बनाये रखने के लिए आश्वस्त कर रहे हैं या जनता को ये आखिरी इशारा कर रहे हैं कि उनकी डगमगाती नाव का खेवैया अब कॉरपोरेट ही होगा?
कहां से आया कौन सा खाना
हर दिन हमारी खाने की प्लेट में जो कुछ भी होता है, वो सब हमेशा से आसपास के खेतों में पैदा नहीं होता था. कई चीजें तो हजारों मील का सफर करके यहां पहुंचती हैं. तो देखिए कहां से आती है कौन सी चीज.
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आधी दुनिया का चावल
आज विश्व की आधी से भी अधिक आबादी का मुख्य आहार चावल है. भारत में भी पैदा होने वाला धान मूल रूप से चीन से आया. एक किलो चावल पैदा करने में 3,000 से 5,000 लीटर पानी लग जाता है.
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गेंहू की यात्रा
7,000 साल से पहले से पूर्वी इराक, सीरिया, जॉर्डन और तुर्की जैसे इलाकों में गेंहू उगाने के सबूत मिले हैं. इसको कई तरह की प्रक्रियाओं से कहीं ब्रेड, कहीं पास्ता तो कहीं रोटी की शक्ल दी जाती है. गेंहू के सबसे बड़े उत्पादक चीन, भारत, अमेरिका, रूस और फ्रांस हैं.
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मक्का - एज्टेक का सोना
मूल रूप से केंद्रीय मेक्सिको में पैदा होनेवाला मक्का अब विश्व के सभी महाद्वीपों में फैल चुका है. केवल 15 फीसदी मक्का इंसानों की थाली तक पहुंचता है बाकी जानवरों को खिलाने के काम आता है. ग्लोबल फूड इंडस्ट्री में इससे ग्लूकोज सीरप बनाया जाता है. अमेरिका में 85 फीसदी जीएम मक्का उगाया जाता है.
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आलू बिन सब सून
दक्षिण अमेरिका के एंडीज का मूल निवासी आलू आज विभिन्न किस्मों में हमारे लिए उपलब्ध हैं. 16वीं सदी में स्पेन के योद्धाओं ने जब पेरू पर कब्जा किया तब उन्होंने आलू का स्वाद चखा और उसे यूरोप ले आए. तब से स्पेन और जर्मनी, आयरलैंड जैसे कई यूरोपीय देशों में आलू उगाया जाने लगा. आज चीन, भारत और रूस आलू के सबसे बड़े उत्पादक हैं.
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चीनी - गन्ना या चुकंदर
गन्ना पूर्वी एशिया में कहीं से आया माना जाता है. इसकी मिठास के इस्तेमाल का इतिहास 2,500 साल से भी पुराना है. आज पूरे विश्व की जरूरतें पूरी करने के लिए इसे सबसे ज्यादा ब्राजील में उगाया जाता है. कुछ हिस्से से बायोइथेनॉल भी बनती है. इसे उगाना मुश्किल और कम कमाई वाला काम है. यह चीनी यूरोप में चुकंदर से बनने वाली चीनी से सस्ती होती है.
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कॉफी - काली लक्जरी
इथियोपिया से शुरु होकर दुनिया भर की पसंदीदा ड्रिंक बन चुकी कॉफी ने लंबा सफर तय किया है. एक कप कॉफी में 140 लीटर पानी छिपा है. इसे वर्चुअल वाटर कहते हैं. इसकी पैदावार पर विश्व के करीब 2.5 करोड़ कॉफी किसान निर्भर हैं. इनमें से करीब आठ लाख छोटे किसान अपने उत्पाद सहकारी समितियों के माध्यम से बेचते हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/N.Armer
चीन से चाय
चाय चीन से आई और अब दुनिया में सबसे ज्यादा खपत वाला पेय पदार्थ है. हर सेंकड दुनिया भर में करीब 15,000 चाय के कप पिए जा रहे हैं. कॉफी के दीवाने यूरोप में भी इन दिनों चाय का क्रेज बढ़ता जा रहा है. ब्रिटिश शासन के दौरान केन्या से लेकर भारत और श्रीलंका में उगाई गई चाय को इंग्लैंड पहुंचाया जाता था. आज कई भारतीय चाय बागानों में काम करने वालों की हालत दयनीय है.
तस्वीर: DW/Prabhakar
केला - लोकप्रिय ट्रॉपिकल फल
अगर केले को विश्व का सबसे लोकप्रिय फल कहें, तो गलत नहीं होगा. दक्षिणपूर्ण एशिया से निकला केला आज जब जर्मनी के बाजारों में बिकता है, तो स्थानीय सेबों से भी सस्ता पड़ता है. इसके सबसे बड़े निर्यातक लैटिन अमेरिका और कैरेबियाई देश हैं. इन्हें उगाने वालों के कामकाज की स्थितियां काफी कठिन होती हैं. इसके अलावा इसमें कीटनाशक दवाइयों के भारी इस्तेमाल के कारण भी समस्या होती है.
तस्वीर: Transfair
खाने का ग्लोबलाइजेशन
सदियों से खाने पीने के मामले में भौगोलिक इलाकों के बीच हुई अदला बदली को वैश्वीकरण की पहली लहर माना जा सकता है. इंटरनेशनल सेंटर फॉर ट्रॉपिकल एग्रीकल्चर, सीआईएटी ने एक विस्तृत स्टडी में आज विश्व भर में प्रचलित मुख्य भोजन और पेय पदार्थों की जड़ें तलाशने का काम किया है.