सरकार पर गंगा की बर्बादी का आरोप
२४ जून २०१२गंगा नदी को बचाने वालों और बांध समर्थक बिल्डर लॉबी की लड़ाई सड़कों पर आ गई है. उत्तराखंड के श्रीनगर में गंगा महासभा के कार्यकर्ताओं पर श्रीनगर बांध के समर्थकों ने हमला बोल दिया. कई लोग घायल हो गए. इन लोगों को पुलिस ने अपनी सुरक्षा में लेकर यूपी के मुज़फ्फरनगर जिले में छोड़ा. श्रीनगर में अभी भी तनाव की खबरें हैं.
कई लोग श्रीनगर बांध के विरोध में एक सभा करने के लिए जमा हुए थे. महासभा के सक्रिय सदस्य कानपुर आईआईटी के पूर्व प्रोफेसर जीडी अग्रवाल उर्फ स्वामी ज्ञान स्वरूप सानंद भी घायल हैं . इस घटना के बाद वाराणसी में गंगा बचाओ समर्थकों ने अपने अभियान को और तेज करने की धमकी दी है. जल्दी ही 'रन फॉर गंगा' दौड़ का आयोजन बालीवुड अभिनेता गोविंदा के नेतृत्व में किया जाएगा.
दिल्ली में प्रदर्शन
दिल्ली के जंतर मंतर पर साधू-संत पहले ही प्रदर्शन कर केंद्र सरकार को तीन महीने का अल्टीमेटम दे चुके हैं कि अगर सरकार नहीं चेती तो 25 नवम्बर को पूरे देश के साधू दिल्ली के राम लीला मैदान पर प्रदर्शन करेंगे. वाराणसी से हजारों की तादाद में दिल्ली पहुंचे साधू-संतों और गंगा की अविरलता के समर्थक विभिन्न संगठनों के कार्यकर्ताओं के साथ बनारस की कई मस्जिदों के इमाम भी शामिल थे. इन लोगों ने गंगा को बचाने के लिए राजघाट पर इबादत और दुआ की. द्वारिकापीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूप नाद सरस्वती के नेतृत्व में महात्मा गांधी की समाधि राजघाट से शुरू हुई गंगा यात्रा जंतर मंतर पर पहुंचकर विशाल प्रदर्शन में तब्दील हो गई.
प्रदर्शन की सबसे दिलचस्प बात ये रही कि इसमें बीजेपी की उमा भारती और कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह भी मौजूद थे. कलाकार मुकेश खन्ना, हजरत निजामुद्दीन की दरगाह के ख्वाजा अफजल निजामी, किसान यूनियन के अध्यक्ष ठाकुर भानु प्रताप सिंह समेत हजारों लोगों ने इसमें शिरकत की. प्रदर्शन स्थल के बाहर कांग्रेस नेता आस्कर फर्नान्डीज़ भी मौजूद थे. इस मौके पर शंकराचार्य ने कहा कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी गंगा की अविरल धारा के समर्थक थे. लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि उनकी पत्नी और यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी तक बात पहुंच नहीं पा रही है.
मैग्सेसे पुरस्कार विजेता और 'जल पुरुष' के रूप में विख्यात राजेन्द्र सिंह भी गंगा को उसके नैसर्गिक स्वरूप दिलाने के अभियान में शामिल हैं. डॉयचे वेले से बातचीत में उन्होंने कहा, "असली समस्या सरकार की इच्छाशक्ति की कमी की है. गंगा को नष्ट करने वाले, उसमें मल मूत्र बहाने वाले, बड़े बड़े बांध बनाकर गंगा के हत्यारों के खिलाफ कभी कोई कार्रवाई की ही नहीं गई." उनके मुताबिक केंद्र सरकार जब तक गंगा को बचाने के लिए कानून नहीं बनाती तब तक समस्या का समाधान निकलना संभव ही नहीं है. वह उल्टा सवाल करते हैं कि गंगा में नाले गिराने वालों पर क्या कार्रवाई हुई. उनके मुताबिक 8 नवम्बर 2008 को केंद्र सरकार ने गंगा नदी को राष्ट्रीय नदी इसलिए घोषित कर दिया क्योंकि 2009 में संसदीय का चुनाव थे. सिर्फ अपने फायदे के लिए ऐसा किया. उन्होंने कहा, "गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करना मात्र कागज़ी घोषणा साबित हुई है. सरकार गंगा का उद्धार चाहती ही नहीं है."
हिंदू धर्म की मान्यताओं के मुताबिक मोक्षदायिनी गंगा को उसके नैसर्गिक रूप में वापस लाने के लिए संघर्ष कर रहे दर्जनों संगठनों में से एक गंगा महासभा के संयोजक सचिव गोविन्द शर्मा को भरोसा है कि जिस दिन सरकार चाह लेगी उस दिन गंगा का उद्धार अवश्य हो जाएगा. उनके मुताबिक भगीरथ की तपस्या से जन कल्याण और मोक्ष की प्राप्ति के लिए गंगा धरती पर अवतरित हुई. लेकिन विडंबना है कि वही गंगा आज स्वयं प्रदूषण का शिकार हो गई. उनके संगठन ने विशेषज्ञों के जरिए एक बिल भी तैयार कराया है जिसमें गंगा को उसके वास्तविक स्वरुप में वापस लाने के श्रेष्ठ समाधान मौजूद हैं. केंद्र सरकार उसे लागू कर सकती है, लेकिन सरकार कुछ करना नहीं चाहती. वह भी गंगा को बचाने के लिए कानून की वकालत करते हैं. लेकिन गंगा को 'प्रतिबंधित क्षेत्र' घोषित करने के विचार के खिलाफ हैं. कहते हैं कि भारत की जनता ये कतई बर्दाश्त नहीं कर सकती. क्योंकि गंगा तो उन सबके कल्याण के लिए धरती पर अवतरित हुई है. वह ये भी कहते हैं कि शवदाह से गंगा में 3-4 फीसदी से भी कम प्रदूषण होता है. 70 फीसदी औद्योगिक और 25 प्रतिशत से अधिक कचरा नालों से गंगा में गिरता है.
कागजी 'गंगा एक्शन प्लान'
गंगा एक्शन प्लान 1986 में राजीव गांधी ने शुरू किया था. तब से अब तक इस परियोजना में 1,000 करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च हो चुके हैं और गंगा स्वच्छ होने के बजाए और अधिक प्रदूषित हो गई है. मार्च 2000 में इस परियोजना को वापस ले लिया गया. शुरू से ही इस परियोजना पर राजनीति होती रही जिसका परिणाम गंगा में बढ़ती गंदगी के रूप में सामने आया. हिमालय से लेकर बंगाल के गंगा सागर तक गंगा की वास्तविक लम्बाई 2,525 किलोमीटर है. गंगा तट पर उत्तर भारत के पांच राज्य बसते हैं और करीब 100 शहरों की लगभग 40 करोड़ की आबादी इस नदी के इर्द गिर्द है. करीब 80 संसदीय क्षेत्र भी गंगा से भौगोलिक रूप से जुड़े हुए हैं. देश की किसी नदी के किनारे इतनी बड़ी आबादी निवास नहीं करती. लेकिन तब भी गंगा का उद्धार नहीं हो पा रहा है.
यूपी और बिहार सबसे ज्यादा ज़िम्मेदार
गंगा को सबसे अधिक प्रदूषित उत्तर प्रदेश करता है, दूसरे स्थान पर बिहार और तीसरे नंबर पर पश्चिमी बंगाल आता है. इन प्रदेशों से हर दिन गंगा में दो करोड़ 90 लाख लीटर प्रदूषित कचरा गिरता है. गंगा में गंदे पानी के चिन्हित 68 नाले यूपी में और 26 उत्तराखंड में गिरते हैं. इसके आलावा उत्तराखंड के दो, यूपी के 40, बिहार के 23, बंगाल के 22 यानि कुल 87 बड़े नाले गंगा में गिरते हैं.
उत्तराखंड की 38, यूपी की 500, बिहार की 24 और बंगाल की 32 औद्योगिक इकाइयों का गंगा को प्रदूषित करने में बड़ा योगदान है. उत्तराखंड की 4, यूपी की 18 और बिहार की 8 चीनी मिलों का कचरा भी गंगा की भेंट चढ़ता है. इनके आलावा यूपी में कानपुर की 413 चमड़ा शोधन ईकाइयां भी गंगा को मैला करने में बड़ी अहम भूमिका निभा रही हैं.
जहर उगलते सीवेज
नदियों को प्रदूषण से बचाने के लिए सीवेज शोधन संयंत्रों (एसटीपी) की बड़ी अहम् भूमिका है. यूपी में 54 बड़े शहर नदियों के किनारे बसे हैं. इनमें 26 गंगा के किनारे, 7 यमुना, तीन गोमती, दो-दो रामगंगा, घाघरा, तथा तीन अन्य नदियों के किनारे बसे हैं. इन 54 नगरों से 2934.92 मेगा लीटर प्रति दिन (एमएलडी) सीवेज प्रतिदिन निकलता है. अभी तक इस सीवेज के ट्रीटमेंट के लिए जो एसटीपी बनाए गए हैं उनकी छमता सिर्फ 1193.85 एमएलडी है जो कुल सीवेज का मात्र 40 फीसदी है. यही नहीं प्रदेश के 630 नगरों में से 575 में सीवेज ट्रीटमेंट की कोई व्यवस्था नहीं है. वाराणसी में दो एसटीपी भूमि न मिलने के अभाव में लग नहीं पा रहे हैं. इसी तरह अन्य स्थानों का हाल है. राज्य के सभी नगरों में सीवेज के लिए 350 अरब रुपये दरकार हैं और सरकार अब तक मात्र 40 अरब की परियोजनाएं ही लागू कर सकी है.
अब न गीत बनते हैं और न फिल्में
'हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में गंगा बहती है' इस तरह के गीत अब से दशकों पहले बना करते थे. 'गंगा तेरा पानी अमृत' जैसे गीत भी अतीत का अध्याय बन चुका है. यही नहीं 'छोरा गंगा किनारे वाला' जैसे गीत भी बीते दौर की बात हो चुकी है. 'गंगा की सौगंध', 'कसम गंगा की' और 'राम तेरी गंगा मैली' बीते जमाने की इन फिल्मों के अलावा अब इस नदी का जिक्र बॉलीवुड की गलियों में भी नहीं होता. लमही पत्रिका के संपादक विजय राय कहते हैं, "गंगा का अब वह महत्त्व केवल अंतिम संस्कार के कर्मकांडों तक सीमित हो कर रह गया है." उनके मुताबिक हम सब इसके जिम्मेदार हैं. कहते हैं, "ट्रेन या बस जब गंगा के किसी भी पुल पर से गुजरती है तो हर खिड़की खुल जाती है. लोग शीश नवा कर उसमें पैसे फेंकते हैं. लेकिन गंगा के उद्धार के लिए कुछ नहीं करते."
रिपोर्ट: एस वहीद, लखनऊ
संपादन: ओ सिंह