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सवर्णों की दलित राजनीति

१५ अप्रैल २००९

भारत के लोकसभा चुनावों के इतिहास में पहली बार ऐसा मौका आ ही गया है कि दलित नेता भी पूरे मन से प्रधानमंत्री बनने का ख़्वाब देख रहे है. ख़्बाब पूरे करने के लिए दलितों की राजनीति अब ये नेता सवर्णों के साथ कर रहे हैं.

दलितों के बाद अब सवर्णों पर नज़रतस्वीर: UNI

इस बार के चुनाव में एक चौथाई वोटर दलित हैं, लिहाज़ा सबकी नज़रें इन पर हैं. यूं तो समाज में सबसे कमज़ोर माना जाने वाला वर्ग अब तक कई नेताओं की राजनीतिक बाजूओं में ताकत भर चुका है. लेकिन जानकार कहते हैं कि अब तो दलितों की राजनीति भी सवर्ण कर रहे हैं.

बहुजन समाज ने बदली राजनीति की दिशातस्वीर: UNI

''तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार.'' इस नारे के साथ एक ऐसी पार्टी उत्तर भारत की राजनीति में आई जिसने कांग्रेस और बीजेपी जैसी पार्टियों के सारे समीकरण बिगाड़ दिए. दरअसल बीएसपी के इस शुरुआती नारे में समाज के एक ऐसे तबके की बैचेनी और चुनौती देने की ताक़त का एहसास होता है, जिसे अब भी भारत के कई कोनों में हिकारत भरी नज़रों से देखा जाता है.

ये वो संदेश था जो पिछड़ों की राजनीति करने के उस्ताद भी नहीं समझ पाए और बहनजी से गच्चा खा गए. मुलायम सिंह ने यूपी में और लालू ने बिहार में पिछड़ों की राजनीति की शुरुआत की. लेकिन, पिछड़ों की बात करने वाले यह दोनों नेता, एक हद के बाद रुक गए. दलितों की ताक़त का इन्हें एहसास नहीं था, लिहाज़ा दलितों के लिए इनके पास कुछ नहीं था.

यूपी में मुलायम सिंह को दलितों की ताक़त का एहसास 1992 में हुआ, जब उन्होंने कांशीराम के साथ मिलकर नारा दिया, ''मिले मुलायम-कांशीराम, हवा हो गया जय श्रीराम.'' ये सिर्फ नारा नहीं, बदलाव था. कांग्रेस और बीजेपी के बाद यूपी में समाजवादी पार्टी और बीएसपी की गठबंधन सरकार आई. इसके बाद तो यूपी से निकली मौकापरस्त राजनीति पूरे देश में फैल गई. आख़िरकार दो साल पहले मई की चिलचिलाती गर्मी में चुनाव के नतीजे आए. बीजेपी और कांग्रेस की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई.

लालू और मुलायम ने पिछड़ों को 'राजनीति में आवाज़' दीतस्वीर: UNI

समाजवादी पार्टी भी हांफ गई. मायावती का हाथी ऐसी चाल चला कि सब देखते रह गए. 13 साल बाद यूपी में किसी एक पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिला. जो बहुजन हित की बात करेगा, वही देश पर राज करेगा. नारा चल निकला. तिलक, तराजू और तलवार पर निशाना साधने वाली पार्टी की हाल के वर्षों में चाल भी बदली, चेहरा भी बदला और चरित्र भी. ''हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है.'' इस नए नारे के साथ बीएसपी ने यूपी में ब्राह्मणों को अपने साथ जोड़ा. पार्टी ने दलितों से ज़्यादा अगड़ी जातियों को टिकट बांटे.

कई लोगों ने बीएसपी की प्रमुख मायावती पर टिकट बेचने का भी आरोप लगाया. बहरहाल मायावती की प्रयोगशाला में किया गया यह प्रयोग भी हिट रहा और यूपी में बीएसपी को बहुमत मिल गया.लेकिन दलितों की राजनीति और उनकी दशा को गौर से देखने वाले कहते हैं अब बीएसपी दलितों की पार्टी नहीं रही. जवाहरलाल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर तुलसी राम कहते हैं कि, ''बीएसपी अब सवर्णों की पार्टी है. ब्राह्मणों की पार्टी है. वह अंबेडकर को भूल चुकी है.''

तुलसी राम कहते हैं कि भारत की कोई भी राजनीतिक पार्टी दलितों के लिए काम नहीं कर रही है. दलितों की बात करने वाली पार्टियां उन्हें उकसाकर अपनी चुनावी दुकान चला रही है. बीएसपी की ही बात करें तो पार्टी ने यूपी में 20 सीटों पर ब्राह्मण उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है.

यूपी से दिल्ली तक !तस्वीर: UNI

बिहार में भी दलितों की राजनीति करने वाले रामविलास पासवान केंद्र में अक्सर मंत्रिमंडल का मज़ा लेते रहे हैं. इन चुनावों में पासवान अभी लालू के साथ खड़े दिख रहे हैं. कोई नहीं कह सकता कि एक महीने बाद वो कहां किसके साथ खड़े होंगे.भारत की राजनीति में सिफ़र से शिखर तक आने के लिए दलितों ने कितना संघर्ष किया. इसका पता इसी बात से चलता है कि जो मुकाम लालू और मुलायम जैसे नेताओं ने फटाफट हासिल कर लिया, उसे पाने के लिए कांशीराम को लंबा इंतज़ार और लंबा सफ़र तय करना पड़ा.

1984 में गठित बहुजन समाज पार्टी पाँच वर्ष बाद 1989 में दर्जन भर विधायकों के साथ विधानसभा में पहुँची. इसके बाद कांशीराम ने इलाहाबाद से वीपी सिंह के ख़िलाफ़ और अमेठी से राजीव गाँधी के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ा, लेकिन नाकाम रहे. भारतीय राजनीतिक के जानकार इस बात से इनकार नहीं करते हैं कि कांशीराम ने उत्तर भारत, खासकर उत्तर प्रदेश, पंजाब और मध्यप्रदेश में दलितों का वोट बैंक तैयार किया और उसे एक शक्तिशाली राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल किया. कांशीराम ने उत्तर प्रदेश और उसके माध्यम से भारत की राजनीति में उथल-पुथल मचा दी.

कांशीराम की राजनीति शुरू हुई ब्राह्मणवाद के विरोध से. लेकिन, पार्टी को सत्ता पर चढ़ाने के लिए उन्होंने किसी से समझौता करने से परहेज़ नहीं किया, न ही समझौता तोड़ने में संकोच किया. दलितों को ताक़त देने की बात कहते हुए मायावती ने मुख्यमंत्री बनने के बाद प्रदेश के महत्वपूर्ण पदों पर दलित अफ़सरों की नियुक्तियां की. वोट बैंक बढ़ाने के लिए उन्होंने अपनी पार्टी को अति पिछड़ों और मुसलमानों के गरीब तबक़े से जोड़ा.

लेकिन अब उनकी बनाई पार्टी का दलितों को भूलती दिखाई पड़ती है. मायावती कांशीराम की दी गईं सीख भूलती दिखाई पड़ रही है. मायावती की पार्टी अब दलित वोट बैंक के दायरे के पार सवर्ण मतदाताओं में भी पकड़ बना रही है. बड़ा सवाल अब ये भी निकल रहा है कि क्या वाकई मायावती दलितों का प्रतिनिधित्व कर पा रही हैं...या सिर्फ सत्ता सुख भोग रही हैं.

- ओंकार सिंह जनोटी

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