गरीब सवर्णों को उच्च शिक्षण संस्थाओं और सरकारी नौकरियों में दस फीसदी आरक्षण के जरिए केंद्र सरकार ने एक बड़ा मास्टरस्ट्रोक जरूर खेला है लेकिन इसके अमल में आने में कई पेंच और संवैधानिक अड़चनें हैं.
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गरीब सवर्णों को सरकार जो दस फीसदी आरक्षण देने की तैयारी कर रही है उसके लिए उसे मौजूदा पचास प्रतिशत की सीमा से बाहर रखा जाएगा और इसके लिए संविधान के अनुच्छेद अनुच्छेद 15 और 16 में संशोधन करना पड़ेगा.
जहां तक संसद का सवाल है तो बीजेपी को राज्यसभा में बहुमत न होने के बावजूद राजनीतिक तौर पर ज्यादा विरोध का सामना नहीं करना पड़ेगा. वरिष्ठ पत्रकार अरविंद सिंह कहते हैं, "कांग्रेस समेत ज्यादातर पार्टियां इस फैसले का सीधे-सीधे विरोध तो नहीं कर पाएंगी, लेकिन इस फैसले पर चुनावी फायदा लेने की कोशिश का आरोप तो लगा ही रही हैं और इसमें कोई संदेह भी नहीं है.”
आम चुनावों से ठीक पहले ऐसा कदम उठाने के लिए मोदी सरकार की राजनीतिक तौर पर आलोचना हो रही है. कांग्रेस ने परोक्ष रूप से सवर्ण आरक्षण का समर्थन किया है लेकिन ये सवाल भी पूछा है कि आखिर गरीबों को नौकरियां कब मिलेंगी. वहीं बहुजन समाज पार्टी ने साफ कर दिया है कि वह इस मामले में बीजेपी को संसद में समर्थन देगी.
क्या काम औरतों के बस का नहीं, देखिए
ऐसा कौनसा काम है जो औरतों के बस का नहीं?
आज हर तरह की नौकरी और कामकाज में महिलाएं और पुरुष कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे हैं. पुरुषों का काम समझे जाने वाले कई क्षेत्रों में महिलाओं ने पुरानी धारणा को तोड़ नई पीढ़ी के लिए मिसालें छोड़ी हैं.
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"माचोवाद है कायम"
दुनिया भर में कामकाज की जगहों पर बेहतर लैंगिक संतुलन बनाने यानि अधिक से अधिक महिलाओं को वर्कफोर्स में शामिल करने का आह्वान हो रहा है. फायरफाइटर का काम करने वाली निकारागुआ की योलेना टालावेरा बताती हैं, "जब मैंने अग्निशमन दल में काम शुरू किया था, तब पुरुषों को लगता था कि सख्त ट्रेनिंग के चलते मैं ज्यादा दिन नहीं टिक सकूंगी. हालांकि मैंने दिखा दिया कि मैं भी कठिन से कठिन चुनौती संभालने के लायक हूं."
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"अपनी काबिलियत में हो यकीन"
खावला शेख जॉर्डन के अम्मान में प्लंबर का काम करती हैं और दूसरी महिलाओं को प्लंबिंग का काम सिखाती भी हैं. शेख का अनुभव है, "हाउसवाइफ महिलाएं अपने घर में मरम्मत के लिए महिला प्लंबर को बुलाने में ज्यादा सुरक्षित महसूस करती हैं." इसके अलावा वे, "लैंगिक असामना को कम करने के लिए सभी ऐसे सेक्टरों में महिलाओं और पुरुषों दोनों को काम सीखने के बराबर मौके दिए जाने की वकालत करती हैं."
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"लड़कों को भी औरतें ही बड़ा करती हैं"
फ्रांस के ऑइस्टर फार्म में अपनी नाव पर खड़ी फोटो खिंचवाती वैलेरी पेरॉन कहती है कि लैंगिक बराबरी की सीख बचपन में जल्द से जल्द दे देनी चाहिए. वैलेरी कहती हैं, "यह तो हमारे ऊपर है कि जब लड़कों को बड़ा करें तो उनमें बचपन से ही औरतों से बराबरी का जज्बा डालें. बचपन की परवरिश को सुधारने की जरूरत है. लड़के चाहें तो गुड़िया से खेलें और लड़कियां चाहें तो खिलौना कारों से."
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"मैं पुरुषों से बेहतर हूं!"
फिलीपींस की ओकॉल एक बैकहो ऑपरेटर हैं. तीन बच्चों की इस मां को अपनी काबिलियत पर पूरा भरोसा है. वे कहती हैं, "बड़े ट्रक चलाने वाली और बैकहो चलाने वाली बहुत कम महिलाएं हैं. लेकिन अगर पुरुष कोई काम कर सकते हैं तो महिलाएं क्यों नहीं? मैं तो पुरुषों से इस मामले में बेहतर हूं कि वे तो केवल ट्रक चलाते हैं जबकि मैं दोनों चला सकती हूं."
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"होता है लैंगिक भेदभाव"
चीन के बीजिंग में डेंग चियान निर्माण स्थलों पर डेकोरेटर का काम करती हैं. उनका सीधा सादा उसूल है, "कई बार लैंगिक भेदभाव होता है. इस बारे में हम कुछ कर भी नहीं सकते. आखिरकार, हमें उस अप्रिय स्थिति को भी झेलना होता है और आगे बढ़ना होता है. चियान भी तीन बच्चो की मां हैं और अपने काम से घर चलाती हैं.
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"भेदभाव की शुरुआत दिमाग से"
इस्तांबुल, तुर्की की सेर्पिल सिग्डेम एक ट्रेन ड्राइवर हैं. वे बताती हैं, "23 साल पहले जब मैंने ड्राइवर की नौकरी के लिए आवेदन किया था, तब मुझे कहा गया कि यह पुरुषों का पेशा है. इसीलिए मुझे लिखित परीक्षा में पुरुषों से बहुत आगे निकलना था तभी नौकरी की संभावना बनती."
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"समाज बदला है"
जॉर्जिया की सेना में कैप्टन एकाटेरीने क्विलिविडे एयर फोर्स के हेलिकॉप्टर के सामने खड़ी होकर 2007 में सेना में भर्ती होने के समय को याद करती हैं. वे बताती हैं, "शुरू में कई परेशानियां थीं, कभी ताने तो कभी लोगों का सनकी रवैया झेला. हमेशा लगा कि वे मेरा यहां होना बिल्कुल पसंद नहीं करते. लेकिन पिछले 10 सालों में समाज भी काफी बदला है और महिला पायलट होना एक सामान्य बात हो गई है.
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"हर दिन होती है औरतों की परीक्षा"
स्पेन के मैड्रिड में पालोमा ग्रानेरो इनडोर स्काईडाइविंग के विंड टनेल की हवा में गोते लगाती हुई. ग्रानेरो खुद एक स्काईडाइविंग इंसट्रक्टर हैं. कहती हैं, "पुरुषों को कुछ साबित नहीं करता पड़ता, जैसे हमें करना पड़ता है. यहां भी इंसट्रक्टर का काम ज्यादातर पुरुषों को जाता है और ज्यादातर औरतों को प्रशासनिक काम ही करने को मिलता है." (नादीने बेर्गहाउसेन/आरपी)
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अन्य राजनीतिक दल भी सीधे तौर पर सरकार के इस कदम का विरोध तो नहीं कर पाएंगे लेकिन उनकी कोशिश होगी कि ये फिलहाल अमल में न आ पाए ताकि केंद्र सरकार इसका श्रेय न ल सके. इस विधेयक को संसद के दोनों सदनों से दो तिहाई बहुमत से पास कराना बीजेपी के लिए बड़ी चुनौती है. लेकिन यदि संसद में ये पारित भी हो गया तो इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती मिलना तय है और फिर सुप्रीम कोर्ट में यह संशोधन टिक पाएगा, अभी कहना मुश्किल है.
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता और संविधान विशेषज्ञ डॉक्टर सूरत सिंह कहते हैं, "यह व्यवस्था सुप्रीम कोर्ट ने ही दी थी कि आरक्षण की सीमा पचास फीसदी से ज्यादा नहीं हो सकती. दूसरे, संविधान ने आरक्षण का आधार सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन को तय किया है, न कि आर्थिक पिछड़ेपन को. जाहिर है, ये संविधान के मूल ढांचे को भी प्रभावित कर सकता है.”
आरक्षण देश में हमेशा से एक संवेदनशील राजनीतिक मुद्दा रहा है खासकर 1991 में मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद से. गरीब सवर्णों को आरक्षण देने की मांग भी अक्सर उठती रहती है और कई बार इसके प्रयास हुए भी हैं. पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने अपने कार्यकाल में मंडल आयोग की रिपोर्ट के प्रावधानों को लागू करते हुए अगड़ी जातियों के लिए 10 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की थी. लेकिन सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने इसे खारिज कर दिया था.
भारत के युवा अब गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, एप्पल जैसी दिग्गज कंपनियों में काम नहीं करना चाहते. वो भारत की नई नवेली कंपनियों को ज्यादा पंसद कर रहे हैं. प्रोफेशनल नेटवर्किंग वेबसाइट लिंक्डइन ने पसंदीदा कंपनियों की लिस्ट बनाई है.
शायद इसीलिए केंद्र सरकार संविधान में संशोधन करके आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था करने की तैयारी कर रही है लेकिन सुप्रीम कोर्ट में यह संशोधन टिका रह पाएगा, ये बड़ा सवाल है. हालांकि तमिलनाडु में 67 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था है लेकिन वह संविधान के उन प्रावधानों के हवाले से है जिन्हें न्यायालयों में चुनौती नहीं दी जा सकती है. जानकारों का यह भी कहना है कि किसी भी वर्ग के आरक्षण के लिए दो अनिवार्य शर्ते होती हैं. सबसे पहले तो उसके लिए संविधान में प्रावधान होना चाहिए और दूसरा यह कि उसके लिए एक आधार दस्तावेज तैयार होना चाहिए.
पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने के लिए पहले काका कालेलकर आयोग का गठन किया गया था और उसके बाद 1978 में बीपी मंडल आयोग का गठन किया गया था. हाल ही में महाराष्ट्र में भी मराठों के आरक्षण देने के राजनीतिक फैसले से पहले एक आयोग का गठन किया गया. लेकिन सवर्णों को आरक्षण देने की केंद्र सरकार जो कोशिश करने जा रही है, उसमें इस प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया है.
दूसरी ओर, सरकार के इस फैसले के पीछे राजनीतिक वजह को माना जा रहा है और इसकी टाइमिंग भी इस बात को साबित कर रही है. वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्र कहते हैं कि पहले तो इसे लागू कर पाना मुश्किल है, दूसरे यदि लागू हो भी गया तो बीजेपी इसका फायदा नहीं उठा पाएगी.
उनके मुताबिक, "दरअसल, ये पहल सरकार ने ऐसे समय की है जब ठीक चुनाव का समय है. संसद में यदि ये पास नहीं हुआ तो बीजेपी इसकी जिम्मेदारी दूसरे दलों पर नहीं थोप पाएगी, क्योंकि ये सवाल उससे पूछा जाएगा कि आपने ये काम इतनी देरी से क्यों किया. दूसरे यदि पास हो भी जाता है तो चूंकि इसमें सभी राजनीतिक दलों की सहमति होगी, इसलिए अकेले बीजेपी क्रेडिट नहीं ले पाएगी.”
समय के साथ ऐसे बदला काम का स्वरूप, देखिए
समय के साथ बदलता काम का स्वरूप
मध्य युग तक काम करने को अच्छा नहीं माना जाता था. उसके बाद चर्च में सुधारों के जनक मार्टिन लूथर आए और उन्होंने काम को ईश्वरीय कर्तव्य बना दिया. अब 500 साल बाद रोबोट हमसे काम छीनने की तैयारी कर रहे हैं.
आदर्श था निकम्मा होना
प्राचीन ग्रीस के दार्शनिकों के बीच काम को निंदनीय माना जाता था. अरस्तू ने काम को आजादी विरोधी बताया तो होमर ने प्राचीन ग्रीस के कुलीनों के आलसीपने को अभीष्ठ बताया. उस जमाने में शारीरिक श्रम सिर्फ महिलाओं, मजदूरों और गुलामों का काम था.
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जश्न करने वालों को काम की जरूरत नहीं
मध्ययुग में भी हालत बेहतर नहीं हुई. उस समय काम का मतलब खेती था और खेतों में काम करना खिझाने वाला कर्तव्य था. जिसे जमींदारों की सेवा करनी थी, उसके पास कोई चारा नहीं था. जिसके पास चारा था वह कमाई की चिंता किए बिना जश्न मनाता था. साल में 100 दिन छुट्टियां होती थीं.
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काम का मतलब ईश्वर का आदेश
16वीं सदी में जर्मनी में धर्मशास्त्री मार्टिन लुथर ने अपने अभियान के तहत आलस्य को पाप घोषित कर दिया. उन्होंने लिखा कि इंसान का जन्म काम करने के लिए हुआ है. काम करना ईश्वर की सेवा भी है और कर्तव्य भी. इंगलिश नैतिकतावादी परंपरा में काम को ईश्वर का चुनाव माना गया. इससे पूंजीवाद के उदय में तेजी आई
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मशीनों की सेवा में
18वीं सदी में यूरो में औद्योगिकीकरण की शुरुआत हुई. आबादी बढ़ने लगी, जमीन कम पड़ने लगी. लोग देहात छोड़कर फैक्ट्रियों और आयरन फाउंड्री में काम करने आने लगे. 1850 के करीब इंगलैंड के ज्यादातर लोग दिन में 14 घंटे और हफ्ते में छह दिन काम करते थे. पगार फिर भी इतनी कम कि जीने के लिए काफी नहीं थी.
घटती कीमतें, बढ़ती मजदूरी
20वीं सदी के शुरू में अमेरिकी उद्यमी हेनरी फोर्ड ने कार उद्योग में एसेंबली लाइन प्रोडक्शन शुरू किया. इस तरह पूरे उद्योग के लिए नया पैमाना तय हुआ. इस नए प्रोडक्शन लाइन के कारण फोर्ड मॉडल टी का उत्पादन 8 गुना हो गया. कारों की कीमतें तेजी से गिरीं और फोर्ड के लिए कर्मचारियों को बेहतर मेहनताना देना संभव हुआ.
काम का नशा और काहिली का हक
कारखानों के खुलने से एक नया सामाजिक वर्ग पैदा हुआ. प्रोलेटैरियेट. इस शब्द को गढ़ने वाले दार्शनिक कार्ल मार्क्स का कहना था कि काम इंसान की पहचान है. उनके दामाद समाजवादी पॉल लाफार्ग ने 1880 में कहा, "सभी देशों के मजदूर वर्ग में एक अजीब सा नशा है. काम के लिए प्यार और थककर चूर होने तक रहने वाला नशा."
वैश्वीकृत काम की दुनिया
20वीं सदी के दौरान दुनिया के समृद्ध देशों में रोजगार मिटने लगे. उद्यमों ने उत्पादन का कम उन देशों में भेजना शुरू किया जहां मजदूर सस्ते थे. बहुत से विकासशील देशों में आज हालात ऐसे हैं जैसे यूरोप में औद्योगिकीकरण की शुरुआत में थे, सख्त शारीरिक श्रम, बाल मजदूरी, कम वेतन और सामाजिक सुरक्षा का पूरी तरह अभाव.
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काम की बदलती सूरत
यूरोप में इस बीच नए रोजगार सर्विस सेक्टर में पैदा हो रहे हैं. तकनीकी और सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया में नई तरह के काम और रोजगार पैदा हो रहे हैं. बुजुर्गों की तादाद बढ़ने से बुजुर्गों की देशभाल करने वाले नर्सों की मांग बढ़ रही है. काम के घंटे कम हो रहे हैं. 1960 से 2010 के बीच जर्मनी में प्रति व्यक्ति काम 30 फीसदी कम हो गया है.
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फिर कभी काम न करना पड़े
ये औद्योगिक रोबोट हैं, ये हड़ताल नहीं करते, मेहनताना नहीं मांगते और एकदम सटीक तरीके से काम करते हैं. रोबोट काम की दुनिया में क्रांतिकारी परिवर्तन ला रहे हैं. अमेरिकी अर्थशास्त्री जेरेमी रिफकिन का कहना है कि इस समय "तीसरी औद्योगिक क्रांति" हो रही है जो वेतन और मजदूरी वाले ज्यादातर काम को खत्म कर देगी.
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जॉब किलर रोबोट?
ये सवाल पिछले 40 साल से पूछा जा रहा है जब से हाड़ मांस के बदले लोहे और स्टील के मददगार ने कारखानों में प्रवेश किया है.लेकिन पहली बार अब विकास उस चरण में पहुंचता लग रहा है. डिजीटलाइजेशन, इंटरनेट ऑफ द थिंग्स और इंडस्ट्री 4.0 बहुत सारे रोजगार को खत्म कर देंगे और वह भी सिर्फ कारखानों में ही नहीं.
तस्वीर: Daimler und Benz Stiftung/Oestergaard
काम की सुंदर नई दुनिया
मशीनें काम करेंगी और इंसान के पास ज्यादा अहम चीजों के लिए वक्त होगा. अरस्तू की भावना में लोगों को आजादी मिलेगी. पर्यवरण सुरक्षा, बूढ़े और बीमार लोगों की सुश्रुषा और जरूरतमंदों की मदद जैसे काम फिलहाल अवैतनिक लोग करते हैं. भविष्य में काम की नई दुनिया में कर्तव्य फिर से पेशा बन जाएगा.
तस्वीर: Colourbox
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योगेश मिश्र कहते हैं कि यह साफ है कि बीजेपी ने तीन राज्यों में हार के बाद सवर्ण मतदाताओं की अहमियत को स्वीकारा है और इस बात को अब मतदाता भी जान रहा है. खासकर, सवर्ण मतदाता. सवर्ण कहते हैं कि साल 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने ने लगभग एकजुट होकर बीजेपी के पक्ष में मतदान किया था लेकिन पिछले चार साल में प्रधानमंत्री और बीजेपी अध्यक्ष सिर्फ दलितों और पिछड़ों की ही बात करते रहे.
जानकारों के मुताबिक तीन राज्यों में जिस तरह से बीजेपी के खिलाफ सवर्णों ने अभियान चलाया और नोटा को प्राथमिकता देने की अपील की, उससे बीजेपी को झटका लगा है. योगेश मिश्र इसके पीछे यूपी में सपा-बसपा के संभावित गठबंधन को भी देखते हैं और सवर्ण आरक्षण को इसी की काट के रूप में पेश कर रहे हैं.
मेरठ विश्वविद्यालय में राजनीतिक विज्ञान के प्राध्यापक और दलित चिंतक एसपी सिंह कहते हैं, "गठबंधन की काट ये कैसे हो सकता है? गठबंधन तो वैसे भी पिछड़ों और दलितों का हो रहा है और अतिरिक्त भूमिका उसमें अल्पसंख्यक मतदाता निभाएगा. जहां तक सवर्णों को आरक्षण संबंधी ट्रंप कार्ड का सवाल है तो ये बीजेपी के उस दलित-पिछड़े वोट बैंक को भी दूर कर देगा जिसे पिछले पांच साल में उसने पाने की कोशिश की है. बीजेपी को वैसे भी दलित-पिछड़ा विरोधी और सवर्ण समर्थक माना जाता है.”
एसपी सिंह कहते हैं कि इस कदम से तो बीजेपी ने एक तरह से दोधारी तलवार पर पैर रख दिया है. सवर्णों का भी भरोसा खो दिया है और अब उस पर दलितों-पिछड़ों का भरोसा भी कम हो जाएगा.
हालांकि जानकारों का ये भी कहना है कि राम मंदिर पर बैकफुट पर चल रही बीजेपी को सवर्ण आरक्षण का मुद्दा एक बार फिर आक्रामक मोर्चे पर ला सकेगा. यही नहीं, सरकार के इस कदम से अनुसूचित जाति/जनजाति के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला बदलने से सवर्णों में उपजी नाराजगी भी कुछ हद तक दूर हो सकती है. लेकिन ये सब तभी संभव है जब आरक्षण न सिर्फ संसद में पारित हो जाए बल्कि उसके लागू होने की प्रक्रिया भी पूरी हो जाए.
इस संविधान संशोधन विधेयक का हश्र कुछ भी हो लेकिन इतना तो तय है कि सवर्ण आरक्षण भी आगामी लोकसभा चुनाव में एक अहम मुद्दा होगा. बीजेपी को फायदा मिलेगा या नुकसान, चुनाव में मतदाता इसे तय कर देंगे.