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समाज

कपड़ों से झांकती आत्मा

२२ नवम्बर २०१८

कितने लोग होंगे जो नए कपड़े खरीदते समय एक बार यह भी सोचते होंगे कि उन्हें बनाने वालों को उनका सही मेहनताना मिला होगा या नहीं. या फिर उन कारीगरों के कामकाज की स्थिति अच्छी रही होगी या नहीं.

Symbolbild Schnäppchenjäger Berlin 2012
तस्वीर: picture-alliance/dpa

यूरोप में कराए गए एक सर्वे के अनुसार करीब 40 फीसदी खरीदार कुछ भी नया खरीदने से पहले उसके उत्पादन प्रक्रिया में बरती गई नैतिकता के बारे सोचते हैं. ऐसे लोगों की संवेदनशीलता अब बड़ी बड़ी कपड़ा कंपनियों पर अपने तरीके सुधारने का दबाव बना रही है.

नैतिकता के मानकों का ध्यान रख कर कपड़े बनाने में कंपनियों का खर्च बढ़ जाता है. हर दिन बदलते ट्रेंड और फास्ट फैशन के चलते कंपनियां जल्दी से जल्दी नए कपड़ों को बाजार में उतारने की होड़ कर रही होती हैं.  

ब्रिटिश चैरिटी ऑक्सफैम की एथिकल ट्रेड मैनेजर रेचेल विलशॉ कहती हैं, "कपड़ा ब्रांड हमें बताते हैं कि आप उपभोक्ताओं का विश्वास नहीं कर सकते क्योंकि वे कहते कुछ हैं और व्यवहार में कुछ और ही हैं."

विलशॉ का मानना है कि खरीदार हमेशा कपड़ों के लिए कम से कम दाम ही देना चाहते हैं. वे कहती हैं, "अगर कंपनियां कोई ऐसा रास्ता निकाल सकें कि वे अच्छे सामान को अच्छी कीमते पर भी उपलब्ध करा सकें, तो कुछ हो सकता है." विलशॉ को लगता है कि आने वाले समय में इसका महत्व और बढ़ेगा.

इस सर्वे में भाग लेने वाले करीब 40 फीसदी खरीदारों ने कहा कि कुछ भी नया खरीदने से पहले वे समाज और पर्यावरण पर उससे पड़ने वाले असर के बारे में सोचते हैं. वहीं 70 फीसदी से भी अधिक लोगों ने बताया कि वे उत्पादकों से इस बारे में और जानकारी चाहते हैं कि वे अपने कर्मचारियों और धरती को बचाने के लिए क्या कदम उठा रहे हैं.

इस सर्वे को कमीशन करने वाले एडवोकेसी समूह फैशन रिवॉल्यूशन और इसे ऑनलाइन आयोजित करने वाले इपसॉस मोरी ने इसमें ब्रिटेन, जर्मनी, इटली, फ्रांस और स्पेन के करीब 5,000 लोगों से फैशन जगत में पारदर्शिता और नैतिकता के बारे में उनकी राय पूछी.

80 फीसद का मानना था कि ब्रांड्स को उन सब फैक्ट्रियों के नाम प्रकाशित करने चाहिए, जहां उनके कपड़े बनते हैं. वहीं 77 फीसदी का मानना था कि उन्हें माल सप्लाई करने वाले सप्लायर्स का नाम भी साझा किया जाए. कंपनियों पर पारदर्शिता के बढ़ते दबाव के बीच अब भी दुनिया भर में करीब 2.5 करोड़ लोग बंधुआ मजदूरी करने को मजबूर हैं.

आरपी/आईबी (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)

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