1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

सस्ते में चुनाव लड़ना कोई मिजोरम के नेताओं से सीखे

प्रभाकर मणि तिवारी
१३ दिसम्बर २०१८

बाकी राज्य जहां चुनाव आयोग से चुनाव खर्च की सीमा बढ़ाने को कहते हैं, वहीं मिजोरम इसे घटाने की अपील करता है. लेकिन क्यों?

Indien Wahlen im Bundesstaat Mizoram
तस्वीर: Getty Images/AFP/A. Dey

भारत में चुनावों में धन बल के बढ़ते इस्तेमाल और उम्मीदवारों के चुनावी खर्च पर अंकुश लगाने के लिए चुनाव आयोग की चुनौतियों को बीच मिजोरम से एक सकारात्मक खबर सामने आई है.

राज्य में उम्मीदवारों के चुनाव खर्च की सीमा 20 लाख रुपए ही है यानी बाकी राज्यों से आठ लाख कम. लेकिन विभिन्न दलों के नेताओं ने आयोग से इसकी सीमा घटा कर आठ लाख रुपए करने की मांग की है. हाल में हुए विधानसभा चुनावों में ज्यादातर उम्मीदवारों को 10 से 20 लाख रुपए खर्च करने में काफी जूझना पड़ा था.

चुनाव आयोग के सूत्रों का कहना है कि देश के बाकी राज्यों से जहां चुनाव खर्च की सीमा बढ़ाने के अनुरोध मिलते हैं, वहीं मिजोरम यह खर्च घटाने की अपील करने वाला अकेला राज्य है. पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने भी हाल में इसकी पुष्टि करते हुए कहा था, "मिजोरम में तमाम उम्मीदवारों का कहना है कि उन्हें चुनाव में इतनी ज्यादा रकम खर्च करने की जरूरत नहीं पड़ती. लिहाजा इस रकम को आठ लाख तक सीमित किया जाना चाहिए.”

चुनाव का बाजार 

मिजोरम विधानसभा चुनावों के दौरान आयोग के पर्यवेक्षक रहे नागालैंड काडर के आईएएस अधिकारी आर्मस्ट्रांग पामे ने हाल में अपने एक फेसबुक पोस्ट में कहा था, "मिजोरम में पर्यवेक्षक के तौर पर मेरा अनुभव बेहद नीरस रहा. वहां चुनाव शांतिपूर्ण थे और कहीं कोई गड़बड़ी नहीं हुई.”

दो दिसंबर को लिखी गई उनकी इस पोस्ट को दो हजार से ज्यादा लाइक्स मिल चुके हैं. पामे कहते हैं, "कई उम्मीदवार तो 10 लाख या उससे ज्यादा रकम खर्च करने को कोई तरीका तक नहीं तलाश सके.” उनका कहना है कि चुनाव खर्च की सीमा कम कर मिजोरम के लोग शायद यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि पैसों की कमी के चलते कोई योग्य और बेहतर उम्मीदवार चुनाव लड़ने से वंचित नहीं रह जाए.

चुनावी माहौल में देश के दूसरे हिस्सों से मिजोरम पहुंचने वाले नेताओं या आम लोगों को हैरत हो सकती है. यहां चुनाव मैदान में उतरने वाले तमाम दल, चाहे वे क्षेत्रीय हों या राष्ट्रीय, आदर्श चुनावी संहिता का अक्षरशः पालन करते हैं. लेकिन इसका श्रेय चुनाव आयोग को नहीं बल्कि चर्च की ओर से प्रायोजित मिजोरम पीपुल्स फोरम (एमपीएफ) को जाता है.

एमपीएफ यहां चुनाव आयोग से भी ज्यादा असरदार और ताकतवर है. यह कहना ज्यादा सही होगा कि आचार संहिता के मामले में उसकी ओर से तय दिशानिर्देश पत्थर की लकीर साबित होती है. इस बार भी तस्वीर अलग नहीं थी.

पूर्वोत्तर में कहां किसकी सरकार

बीते महीने की 28 तारीख को विधानसभा की 40 सीटों के लिए होने वाले चुनाव की खातिर राज्य में प्रचार अभियान के दौरान तमाम उम्मीदवारों के साथ एमपीएफ का कम से कम एक प्रतिनिधि मौजूद रहता था. वर्ष 2008 और 2013 के चुनावों में तो एमपीएफ ने हर इलाके में प्रचार के लिए एक साझा मंच बना दिया था. इलाके की हर पार्टी उसी मंच से नियत समय पर अपना प्रचार या रैली करती थी. तब उम्मीदवारों के घर-घर जाकर प्रचार करने पर पाबंदी थी. लेकिन इस बार एमपीएफ ने इसमें ढील देते हुए घर-घर जा कर प्रचार करने की अनुमति दे दी थी.

एमपीएफ के दिशानिर्देशों की वजह से ही राजधानी आइजल समेत राज्य के किसी हिस्से में ज्यादा पोस्टर, बैनर नजर नहीं आते. इसी तरह देश के दूसरे हिस्सों की तरह लाउडस्पीकरों के जरिए प्रचार का नजारा भी यहां दुर्लभ है. वैसे, हमेशा ऐसा नहीं था. मिजोरम को राज्य का दर्जा मिलने के बाद शुरुआती दौर में अमूमन तमाम उम्मीदवार अपने-अपने इलाकों में सामुदायिक भोज आयोजित करते थे. यह माना जाता था कि जिसने जिस उम्मीदवार का खाना खाया वह उसी को वोट देगा. उस दौरान वोटरों में पैसे बांटने की भी परंपरा थी. लेकिन राज्य के ताकतवर संगठन यंग मिजो एसोसिएशन ने 90 के दशक में इस पर रोक लगा दी थी.

संगठन ने हर बार की तरह अबकी भी राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के लिए कुछ दिशानिर्देश जारी किए थे और उनका असर साफ नजर आया. पैसों और बाहुबल के सहारे चुनाव लड़ना देश के बाकी राज्यों में जहां जीत की गारंटी मानी जाती है, वहीं यहां यह उम्मीदवारों की हार की वजह बन सकता है. एक राजनीतिक विश्लेषक वानलालुरेट कहते हैं, "यहां चुनावी मौहाल देश के दूसरे हिस्सों से अलग होता है. राजधानी आइजल में भी ज्यादा शोरगुल नहीं दिखाई देता. यह एमपीएफ के दिशानिर्देशों का ही असर है.”

आर्मस्ट्रांग पामे को इस बात पर हैरत हुई थी कि चर्च की ओर से बने संगठन मिजोरम पीपुल्स फोरम (एमपीएफ) की चुनावों पर कितनी पैनी निगाह थी. संगठन का प्रतिनिधि चुनाव प्रचार के दौरान तमाम उम्मीदवारों और उनके समर्थकों के साथ रहता था. उसका मकसद यह सुनिश्चित करना था कि वोटरों को लुभाने लिए अनुचित तरीकों या धन बल का इस्तेमाल नहीं हो सके.

पामे ने पश्चिम बंगाल में पर्यवेक्षक के तौर पर अपनी ड्यूटी से मिजोरम की तुलना करते हुए लिखा है कि इस पूर्वोत्तर राज्य में मतदान से पहले कोई पार्टी या सामुदायिक भोज आयोजित नहीं किया गया. राज्य के वोटर किसी राजनीतिक दल के पैसों से चाय तक नहीं पीना चाहते. पामे कहते हैं, "मिजोरम के लोग मतदान को काफी गंभीरता से लेते हैं. किसी स्टार प्रचारक की सभा में भी हजार-डेढ़ हजार से ज्यादा लोगों की भीड़ नहीं जुटती.”

मिजोरम विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति आर. लालथनलुआंगा कहते हैं, "यहां के लोगों को इस बात पर हैरत नहीं होती. वोटर शुरू से ही इसके आदी हैं. लेकिन बाहर से यहां आने वाले नेताओं, पर्यवेक्षकों और दूसरे लोगों को इस बात पर हैरत होती है कि यहां चुनाव प्रचार किस तरह बेहद शांतिपूर्ण माहौल में चलता है.” वह कहते हैं कि आदर्श चुनावी संहित के मामले में देश के दूसरे राज्य और राजनेता मिजोरम से सबक ले सकते हैं.

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें
डीडब्ल्यू की टॉप स्टोरी को स्किप करें

डीडब्ल्यू की टॉप स्टोरी

डीडब्ल्यू की और रिपोर्टें को स्किप करें