सस्ते में चुनाव लड़ना कोई मिजोरम के नेताओं से सीखे
प्रभाकर मणि तिवारी
१३ दिसम्बर २०१८
बाकी राज्य जहां चुनाव आयोग से चुनाव खर्च की सीमा बढ़ाने को कहते हैं, वहीं मिजोरम इसे घटाने की अपील करता है. लेकिन क्यों?
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भारत में चुनावों में धन बल के बढ़ते इस्तेमाल और उम्मीदवारों के चुनावी खर्च पर अंकुश लगाने के लिए चुनाव आयोग की चुनौतियों को बीच मिजोरम से एक सकारात्मक खबर सामने आई है.
राज्य में उम्मीदवारों के चुनाव खर्च की सीमा 20 लाख रुपए ही है यानी बाकी राज्यों से आठ लाख कम. लेकिन विभिन्न दलों के नेताओं ने आयोग से इसकी सीमा घटा कर आठ लाख रुपए करने की मांग की है. हाल में हुए विधानसभा चुनावों में ज्यादातर उम्मीदवारों को 10 से 20 लाख रुपए खर्च करने में काफी जूझना पड़ा था.
चुनाव आयोग के सूत्रों का कहना है कि देश के बाकी राज्यों से जहां चुनाव खर्च की सीमा बढ़ाने के अनुरोध मिलते हैं, वहीं मिजोरम यह खर्च घटाने की अपील करने वाला अकेला राज्य है. पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने भी हाल में इसकी पुष्टि करते हुए कहा था, "मिजोरम में तमाम उम्मीदवारों का कहना है कि उन्हें चुनाव में इतनी ज्यादा रकम खर्च करने की जरूरत नहीं पड़ती. लिहाजा इस रकम को आठ लाख तक सीमित किया जाना चाहिए.”
चुनाव का बाजार
चुनाव का बाजार
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में जितना साल 2014 के चुनावों में खर्च हो रहा है इतनी बड़ी राशि शायद ही पहले खर्च हुई होगी. पार्टी से लेकर उम्मीदवार पैसा पानी की तरह बहा रहे हैं. प्रचार के नायाब तरीके निकाले जा रहे हैं.
चुनावी 'संदेश'
चुनावी मौसम में दुकानदार राजनीतिक पार्टियों के प्रति लगाव रखने वाले ग्राहकों को लुभाने के लिए तरह तरह के उपाय निकाल रहे हैं. कोलकाता में बिकती चुनावी मिठाई. यह संदेश हैं जिस पर विभिन्न राजनीतिक दलों के चुनावी चिह्न बने हैं.
तस्वीर: DW/P.M. Tewari
कुछ मीठा हो जाए
चुनाव के मौके पर कोलकाता के एक हलवाई ने भारत की चार प्रमुख राजनीतिक पार्टियों के चुनाव चिह्नों वाली मिठाई बनाई है. मिठाई मित्रों और रिश्तेदारों के अलावा चुनावी रैलियों में भी बांटी जा रही हैं.
तस्वीर: DW/ P. M. Tewari
एक छत के नीचे कांग्रेस-बीजेपी
चुनावी सामग्री सप्लाई करने वाले दुकानदारों के पास इतने ऑर्डर है कि उन्हें सांस लेने की भी फुर्सत नहीं है. चुनावी टोपी, छतरी, टी शर्ट और बिल्ले की खूब मांग है. महंगाई के कारण इनके दाम भी तेजी से बढ़े हैं.
तस्वीर: DW/ P. M. Tewari
चीन से मदद
मांग बढ़ने के साथ ही स्थानीय थोक विक्रेताओं ने चीन में उत्पादकों को ठेका दे दिया है. चीनी माल सस्ता भी होता है और ज्यादा आकर्षक भी.
तस्वीर: DW/ P. M. Tewari
काले धन का इस्तेमाल
हाल ही में जारी एक शोध से पता चला है कि चुनाव में 30,000 करोड़ रुपये के अनुमानित खर्च का एक तिहाई कालाधन हो सकता है. इस साल के चुनाव में खर्च होने वाली अनुमानित 30 हजार करोड़ रुपये की राशि अब तक का रिकॉर्ड चुनावी खर्चा है.
तस्वीर: DW/B. Das
फेसबुक से ट्विटर तक
पिछले आम चुनावों के मुकाबले इस बार चुनाव में सोशल मीडिया का भी इस्तेमाल जमकर किया जा रहा है. राजनीतिक दल और नेता फेसबुक और ट्विटर अकाउंट की मदद से वोटरों में पैठ बनाने की कोशिश कर रहे हैं.
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मिजोरम विधानसभा चुनावों के दौरान आयोग के पर्यवेक्षक रहे नागालैंड काडर के आईएएस अधिकारी आर्मस्ट्रांग पामे ने हाल में अपने एक फेसबुक पोस्ट में कहा था, "मिजोरम में पर्यवेक्षक के तौर पर मेरा अनुभव बेहद नीरस रहा. वहां चुनाव शांतिपूर्ण थे और कहीं कोई गड़बड़ी नहीं हुई.”
दो दिसंबर को लिखी गई उनकी इस पोस्ट को दो हजार से ज्यादा लाइक्स मिल चुके हैं. पामे कहते हैं, "कई उम्मीदवार तो 10 लाख या उससे ज्यादा रकम खर्च करने को कोई तरीका तक नहीं तलाश सके.” उनका कहना है कि चुनाव खर्च की सीमा कम कर मिजोरम के लोग शायद यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि पैसों की कमी के चलते कोई योग्य और बेहतर उम्मीदवार चुनाव लड़ने से वंचित नहीं रह जाए.
चुनावी माहौल में देश के दूसरे हिस्सों से मिजोरम पहुंचने वाले नेताओं या आम लोगों को हैरत हो सकती है. यहां चुनाव मैदान में उतरने वाले तमाम दल, चाहे वे क्षेत्रीय हों या राष्ट्रीय, आदर्श चुनावी संहिता का अक्षरशः पालन करते हैं. लेकिन इसका श्रेय चुनाव आयोग को नहीं बल्कि चर्च की ओर से प्रायोजित मिजोरम पीपुल्स फोरम (एमपीएफ) को जाता है.
एमपीएफ यहां चुनाव आयोग से भी ज्यादा असरदार और ताकतवर है. यह कहना ज्यादा सही होगा कि आचार संहिता के मामले में उसकी ओर से तय दिशानिर्देश पत्थर की लकीर साबित होती है. इस बार भी तस्वीर अलग नहीं थी.
पूर्वोत्तर में कहां किसकी सरकार
पूर्वोत्तर में कहां किसकी सरकार है?
भारत के राष्ट्रीय मीडिया में पूर्वोत्तर के राज्यों का तभी जिक्र होता है जब वहां या तो चुनाव होते हैं या फिर कोई सियासी उठापटक. चलिए जानते है सात बहनें कहे जाने वाले पूर्वोत्तर के राज्यों में कहां किसकी सरकार है.
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असम
अप्रैल 2016 में हुए राज्य विधानसभा के चुनावों में बीजेपी ने शानदार प्रदर्शन किया और लगातार 15 साल से सीएम की कुर्सी पर विराजमान तरुण गोगोई को बाहर का रास्ता दिखाया. बीजेपी नेता और केंद्रीय मंत्री रह चुके सर्बानंद सोनोवाल को मुख्यमंत्री पद सौंपा गया.
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त्रिपुरा
बीजेपी ने त्रिपुरा में सीपीएम के किले को ध्वस्त कर फरवरी 2018 में हुए चुनावों में शानदार कामयाबी हासिल की. इस तरह राज्य में बीस साल तक चली मणिक सरकार की सत्ता खत्म हुई. बीजेपी ने सरकार की कमान जिम ट्रेनर रह चुके बिप्लव कुमार देब को सौंपी.
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मेघालय
2018 में हुए राज्य विधानसभा चुनावों में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनने के बावजूद सरकार बनाने से चूक गई. एनपीपी नेता कॉनराड संगमा ने बीजेपी और अन्य दलों के साथ मिल कर सरकार का गठन किया. कॉनराड संगमा पूर्व लोकसभा अध्यक्ष पीए संगमा के बेटे हैं.
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मणिपुर
राज्य में मार्च 2017 में हुए चुनावों में कांग्रेस 28 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी जबकि 21 सीटों के साथ बीजेपी दूसरे नंबर पर रही. लेकिन बीजेपी अन्य दलों के साथ मिलकर सरकार बनाने में कामयाब रही. कई कांग्रेसी विधायक भी बीजेपी में चले गए. कभी फुटबॉल खिलाड़ी रहे बीरेन सिंह राज्य के मुख्यमंत्री हैं.
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नागालैंड
नागालैंड में फरवरी 2018 में हुए विधानसभा चुनावों में एनडीए की कामयाबी के बाद नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) के नेता नेफियू रियो ने मुख्यमंत्री पद संभाला. इससे पहले भी वह 2008 से 2014 तक और 2003 से 2008 तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे हैं.
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सिक्किम
सिक्किम में पच्चीस साल तक लगातार पवन कुमार चामलिंग की सरकार रही. लेकिन 2019 में हुए विधानसभा चुनावों में उनकी सरकार में कभी मंत्री रहे पी एस गोले ने उन्हें सत्ता से बाहर कर दिया. चामलिंग की पार्टी एसडीएफ के 10 विधायक भाजपा और 2 गोले की पार्टी एसकेएम में चले गए. अब वो अपनी पार्टी के इकलौते विधायक हैं.
तस्वीर: AFP/Getty Images
अरुणाचल प्रदेश
अप्रैल 2014 में हुए चुनावों में कांग्रेस ने 60 में 42 सीटें जीतीं और नबाम तुकी के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बरकरार रही. लेकिन 2016 में राज्य में सियासी संकट में उन्हें कुर्सी गंवानी पड़ी. इसके बाद कांग्रेस को तोड़ पेमा खांडू मुख्यमंत्री बन गए और बाद में बीजेपी में शामिल हो गए.
तस्वीर: IANS/PIB
मिजोरम
2018 तक मिजोरम में कांग्रेस की सरकार हुआ करती थी. तब लल थनहवला मुख्यमंत्री थे. लेकिन दिसंबर में हुए चुनावों में मिजो नेशनल फ्रंट ने बाजी मार ली. अब जोरामथंगा वहां के मुख्यमंत्री हैं.
तस्वीर: IANS
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बीते महीने की 28 तारीख को विधानसभा की 40 सीटों के लिए होने वाले चुनाव की खातिर राज्य में प्रचार अभियान के दौरान तमाम उम्मीदवारों के साथ एमपीएफ का कम से कम एक प्रतिनिधि मौजूद रहता था. वर्ष 2008 और 2013 के चुनावों में तो एमपीएफ ने हर इलाके में प्रचार के लिए एक साझा मंच बना दिया था. इलाके की हर पार्टी उसी मंच से नियत समय पर अपना प्रचार या रैली करती थी. तब उम्मीदवारों के घर-घर जाकर प्रचार करने पर पाबंदी थी. लेकिन इस बार एमपीएफ ने इसमें ढील देते हुए घर-घर जा कर प्रचार करने की अनुमति दे दी थी.
एमपीएफ के दिशानिर्देशों की वजह से ही राजधानी आइजल समेत राज्य के किसी हिस्से में ज्यादा पोस्टर, बैनर नजर नहीं आते. इसी तरह देश के दूसरे हिस्सों की तरह लाउडस्पीकरों के जरिए प्रचार का नजारा भी यहां दुर्लभ है. वैसे, हमेशा ऐसा नहीं था. मिजोरम को राज्य का दर्जा मिलने के बाद शुरुआती दौर में अमूमन तमाम उम्मीदवार अपने-अपने इलाकों में सामुदायिक भोज आयोजित करते थे. यह माना जाता था कि जिसने जिस उम्मीदवार का खाना खाया वह उसी को वोट देगा. उस दौरान वोटरों में पैसे बांटने की भी परंपरा थी. लेकिन राज्य के ताकतवर संगठन यंग मिजो एसोसिएशन ने 90 के दशक में इस पर रोक लगा दी थी.
संगठन ने हर बार की तरह अबकी भी राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के लिए कुछ दिशानिर्देश जारी किए थे और उनका असर साफ नजर आया. पैसों और बाहुबल के सहारे चुनाव लड़ना देश के बाकी राज्यों में जहां जीत की गारंटी मानी जाती है, वहीं यहां यह उम्मीदवारों की हार की वजह बन सकता है. एक राजनीतिक विश्लेषक वानलालुरेट कहते हैं, "यहां चुनावी मौहाल देश के दूसरे हिस्सों से अलग होता है. राजधानी आइजल में भी ज्यादा शोरगुल नहीं दिखाई देता. यह एमपीएफ के दिशानिर्देशों का ही असर है.”
आर्मस्ट्रांग पामे को इस बात पर हैरत हुई थी कि चर्च की ओर से बने संगठन मिजोरम पीपुल्स फोरम (एमपीएफ) की चुनावों पर कितनी पैनी निगाह थी. संगठन का प्रतिनिधि चुनाव प्रचार के दौरान तमाम उम्मीदवारों और उनके समर्थकों के साथ रहता था. उसका मकसद यह सुनिश्चित करना था कि वोटरों को लुभाने लिए अनुचित तरीकों या धन बल का इस्तेमाल नहीं हो सके.
पामे ने पश्चिम बंगाल में पर्यवेक्षक के तौर पर अपनी ड्यूटी से मिजोरम की तुलना करते हुए लिखा है कि इस पूर्वोत्तर राज्य में मतदान से पहले कोई पार्टी या सामुदायिक भोज आयोजित नहीं किया गया. राज्य के वोटर किसी राजनीतिक दल के पैसों से चाय तक नहीं पीना चाहते. पामे कहते हैं, "मिजोरम के लोग मतदान को काफी गंभीरता से लेते हैं. किसी स्टार प्रचारक की सभा में भी हजार-डेढ़ हजार से ज्यादा लोगों की भीड़ नहीं जुटती.”
मिजोरम विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति आर. लालथनलुआंगा कहते हैं, "यहां के लोगों को इस बात पर हैरत नहीं होती. वोटर शुरू से ही इसके आदी हैं. लेकिन बाहर से यहां आने वाले नेताओं, पर्यवेक्षकों और दूसरे लोगों को इस बात पर हैरत होती है कि यहां चुनाव प्रचार किस तरह बेहद शांतिपूर्ण माहौल में चलता है.” वह कहते हैं कि आदर्श चुनावी संहित के मामले में देश के दूसरे राज्य और राजनेता मिजोरम से सबक ले सकते हैं.
कितने राज्यों में है बीजेपी और एनडीए की सरकार
केंद्र में 2014 में मोदी सरकार बनने के बाद देश में भारतीय जनता पार्टी का दायरा लगातार बढ़ा है. डालते हैं एक नजर अभी कहां कहां बीजेपी और उसके सहयोगी सत्ता में हैं.
तस्वीर: picture alliance/dpa/S. Kumar
उत्तर प्रदेश
उत्तर प्रदेश में फरवरी-मार्च 2017 में हुए विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने अपने सहयोगी दलों के साथ मिलकर ऐतिहासिक प्रदर्शन किया और 403 सदस्यों वाली विधानसभा में 325 सीटें जीतीं. इसके बाद फायरब्रांड हिंदू नेता योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री की गद्दी मिली.
तस्वीर: Imago/Zumapress
त्रिपुरा
2018 में त्रिपुरा में लेफ्ट का 25 साल पुराना किला ढहाते हुए बीजेपी गठबंधन को 43 सीटें मिली. वहीं कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्कसिस्ट) ने 16 सीटें जीतीं. 20 साल तक मुख्यमंत्री रहने के बाद मणिक सरकार की सत्ता से विदाई हुई और बिप्लव कुमार देब ने राज्य की कमान संभाली.
तस्वीर: Reuters/J. Dey
मध्य प्रदेश
शिवराज सिंह चौहान को प्रशासन का लंबा अनुभव है. उन्हीं के हाथ में अभी मध्य प्रदेश की कमान है. इससे पहले वह 2005 से 2018 तक राज्य के मख्यमंत्री रहे. लेकिन 2018 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को हार का सामना करना पड़ा. कांग्रेस सत्ता में आई. लेकिन दो साल के भीतर राजनीतिक दावपेंचों के दम पर शिवराज सिंह चौहान ने सत्ता में वापसी की.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
उत्तराखंड
उत्तर प्रदेश के पड़ोसी राज्य उत्तराखंड में भी बीजेपी का झंडा लहर रहा है. 2017 के विधानसभा चुनावों में पार्टी ने शानदार प्रदर्शन करते हुए राज्य की सत्ता में पांच साल बाद वापसी की. त्रिवेंद्र रावत को बतौर मुख्यमंत्री राज्य की कमान मिली. लेकिन आपसी खींचतान के बीच उन्हें 09 मार्च 2021 को इस्तीफा देना पड़ा.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/R. K. Singh
बिहार
बिहार में नीतीश कुमार एनडीए सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं. हालिया चुनाव में उन्होंने बीजेपी के साथ मिल कर चुनाव लड़ा. इससे पिछले चुनाव में वह आरजेडी के साथ थे. 2020 के चुनाव में आरजेडी 75 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनी. लेकिन 74 सीटों के साथ दूसरे स्थान पर रही बीजेपी ने नीतीश कुमार की जेडीयू के साथ मिलकर सरकार बनाई, जिसे 43 सीटें मिलीं.
तस्वीर: AP
गोवा
गोवा में प्रमोद सावंत बीजेपी सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं. उन्होंने मनोहर पर्रिकर (फोटो में) के निधन के बाद 2019 में यह पद संभाला. 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद पर्रिकर ने केंद्र में रक्षा मंत्री का पद छोड़ मुख्यमंत्री पद संभाला था.
पूर्वोत्तर के राज्य मणिपुर में 2017 में पहली बार बीजेपी की सरकार बनी है जिसका नेतृत्व पूर्व फुटबॉल खिलाड़ी एन बीरेन सिंह कर रहे हैं. वह राज्य के 12वें मुख्यमंत्री हैं. इस राज्य में भी कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद सरकार नहीं बना पाई.
तस्वीर: Getty Images/AFP/P. Singh
हिमाचल प्रदेश
नवंबर 2017 में हुए विधानसभा चुनावों में जीत दर्ज कर भारतीय जनता पार्टी सत्ता में वापसी की. हालांकि पार्टी की ओर से मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी घोषित किए गए प्रेम कुमार धूमल चुनाव हार गए. इसके बाद जयराम ठाकुर राज्य सरकार का नेतृत्व संभाला.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
कर्नाटक
2018 में हुए विधानसभा चुनावों में कर्नाटक में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनी. 2018 में वो बहुमत साबित नहीं कर पाए. 2019 में कांग्रेस-जेडीएस के 15 विधायकों के इस्तीफे होने के कारण बीेजेपी बहुमत के आंकड़े तक पहुंच गई. येदियुरप्पा कर्नाटक के मुख्यमंत्री हैं.
तस्वीर: Getty Images/AFP/M. Kiran
हरियाणा
बीजेपी के मनोहर लाल खट्टर हरियाणा में मुख्यमंत्री हैं. उन्होंने 2014 के चुनावों में पार्टी को मिले स्पष्ट बहुमत के बाद सरकार बनाई थी. 2019 में बीजेपी को हरियाणा में बहुमत नहीं मिला लेकिन जेजेपी के साथ गठबंधन कर उन्होंने सरकार बनाई. संघ से जुड़े रहे खट्टर प्रधानमंत्री मोदी के करीबी समझे जाते हैं.
तस्वीर: Getty Images/M. Sharma
गुजरात
गुजरात में 1998 से लगातार भारतीय जनता पार्टी की सरकार है. प्रधानमंत्री पद संभालने से पहले नरेंद्र मोदी 12 साल तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे. फिलहाल राज्य सरकार की कमान बीजेपी के विजय रुपाणी के हाथों में है.
तस्वीर: Reuters
असम
असम में बीजेपी के सर्बानंद सोनोवाल मुख्यमंत्री हैं. 2016 में हुए राज्य विधानसभा चुनावों में भाजपा ने 86 सीटें जीतकर राज्य में एक दशक से चले आ रहे कांग्रेस के शासन का अंत किया. अब राज्य में फिर विधानसभा चुनाव की तैयारी हो रही है.
तस्वीर: Imago/Hindustan Times
अरुणाचल प्रदेश
अरुणाचल प्रदेश में पेमा खांडू मुख्यमंत्री हैं जो दिसंबर 2016 में भाजपा में शामिल हुए. सियासी उठापटक के बीच पहले पेमा खांडू कांग्रेस छोड़ पीपुल्स पार्टी ऑफ अरुणाचल प्रदेश में शामिल हुए और फिर बीजेपी में चले गए.
तस्वीर: Getty Images/AFP/T. Mustafa
नागालैंड
नागालैंड में फरवरी 2018 में हुए विधानसभा चुनावों में एनडीए की कामयाबी के बाद नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) के नेता नेफियू रियो ने मुख्यमंत्री पद संभाला. इससे पहले भी वह 2008 से 2014 तक और 2003 से 2008 तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे हैं.
तस्वीर: IANS
मेघालय
2018 में हुए राज्य विधानसभा चुनावों में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनने के बावजूद सरकार बनाने से चूक गई. एनपीपी नेता कॉनराड संगमा ने बीजेपी और अन्य दलों के साथ मिल कर सरकार का गठन किया. कॉनराड संगमा पूर्व लोकसभा अध्यक्ष पीए संगमा के बेटे हैं.
तस्वीर: IANS
सिक्किम
सिक्किम की विधानसभा में भारतीय जनता पार्टी का एक भी विधायक नहीं है. लेकिन राज्य में सत्ताधारी सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का हिस्सा है. इस तरह सिक्किम भी उन राज्यों की सूची में आ जाता है जहां बीजेपी और उसके सहयोगियों की सरकारें हैं.
तस्वीर: DW/Zeljka Telisman
मिजोरम
मिजोरम में मिजो नेशनल फ्रंट की सरकार है. वहां जोरामथंगा मुख्यमंत्री हैं. बीजेपी की वहां एक सीट है लेकिन वो जोरामथंगा की सरकार का समर्थन करती है.
तस्वीर: IANS
2019 की टक्कर
इस तरह भारत के कुल 28 राज्यों में से 16 राज्यों में भारतीय जनता पार्टी या उसके सहयोगियों की सरकारें हैं. हाल के सालों में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और महाराष्ट्र जैसे राज्य उसके हाथ से फिसले हैं. फिर भी राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता के आगे कोई नहीं टिकता.