सहारा बनती एक बेसहारा युवती
५ जून २०१३कोलकाता की इस युवती के साथ पिछले साल चलती कार में सामूहिक बलात्कार हुआ था. कोलकाता के पॉश कहे जाने वाले पार्क स्ट्रीट इलाके के एक पंचतारा होटल से निकलने के बाद कुछ युवकों ने उसके साथ बलात्कार किया था. इसके बाद सहानुभूति की कौन कहे, उल्टे उसके चरित्र पर ही उंगलियां उठने लगीं थीं. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी तक ने इसे मनगढ़ंत घटना करार दिया था. कोई 14 महीने बेहद तकलीफ में गुजारने के बावजूद दो बेटियों की मां इस तलाकशुदा महिला ने हार नहीं मानी. आखिरकार, उसे पिछले महीने यौन और घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं की सहायता करने वाली एक संस्था सरवाइवर्स फार विक्टिम्स आफ सोशल इनजस्टिस में नौकरी मिली है जहां वह अपनी तरह यानी बलात्कार की शिकार महिलाओं की सहायता करती है.
बलात्कार पीड़ित महिला को किन मानसिक और सामिजक यंत्रणा से गुजरना पड़ता है और जीवन कितना कठिन हो जाता है, इन सवालों पर डायचे वेले के साथ बातचीत में उन्होंने अपने अतीत के पन्ने पलटे. पेश हैं उस बातचीत के मुख्य अंशः
पिछले साल हुए हादसे के बाद जीवन में कैसा बदलाव आया?
पिछले 13-14 महीने बेहद तकलीफदेह थे. वह शायद मेरी जिंदगी का सबसे बुरा दौर था. उस हादसे के बाद लोगों ने मेरे पैसे हड़प लिए. नतीजतन मेरा कॉल सेंटर बंद हो गया. मकान का किराया और बेटियों की फीस समय पर नहीं भर सकी. मुझे छोटे से घर में शिफ्ट होना पड़ा. कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं. कई बार आत्महत्या का ख्याल आया. लेकिन अपने बच्चों के लिए जीना पड़ा. मेरी तो जीने की इच्छा ही खत्म हो गई थी. मैं हालात से जूझती रही.
उस हादसे से उबरने में किससे सहायता मिली?
घरवालों को छोड़ कर किसी से नहीं. पास-पड़ोस के लोग भी मेरे चरित्र पर उंगलियां उठाने लगे थे. आखिर अकेली मां होना और देर रात की पार्टी में जाना कोई गुनाह तो नहीं है? लोग ऐसा व्यवहार करते थे मानो मैं कोई अछूत हूं. आखिर बलात्कार की घटना में महिला को दोषी क्यों माना जाना चाहिए? समाज का मानसिक रवैया इस मामले में अलग है. ऊपर से तो सहानुभूति जताते हैं, लेकिन उनकी आंखें कुछ और कहती हैं.
बलात्कार की शिकार युवती के प्रति समाज का यह रवैया कहां तक सही है?
यह बिल्कुल गलत है. ऐसे हादसे के बाद पीड़ित महिला को समाज के नैतिक समर्थन की जरूरत होती है. लेकिन ऐसा करने की बजाय लोग मौके का फायदा उठाने की ताक में रहते हैं और महिला, उसके रहन-सहन और पहनावे को ही दोषी ठहराते हैं. इस मानसिकता में बदलाव जरूरी है. इक्कीसवीं सदी की तमाम आधुनिकताओं के बावजूद ऐसे मामलों में लोगों की मानसिकता जरा भी नहीं बदली है. कल तक जो महिला ठीक थी वह ऐसे हादसे का शिकार होते ही अचानक अछूत बन जाती है.
आपके मामले में मुख्य अभियुक्त अब तक नहीं पकड़ा गया है?
उस हादसे के बाद तमाम बड़े मंत्रियों और नेताओं ने मुझे ही दोषी ठहराया दिया था और पूरी घटना को ही निराधार बताया था. एकाध पुलिस अधिकारी मेरी सहायता कर रहे थे. लेकिन उनको उसकी सजा भी भुगतनी पड़ी. अब मैं उस पर ध्यान देने की बजाय अपने जीवन पर ध्यान देना चाहती हूं. पिछले एक साल के दौरान मैंने नौकरी के लिए कई जगह हाथ-पांव मारे लेकिन सब किसी न किसी बहाने टरका देते थे.अब इस नौकरी ने मुझे नया जीवन दिया है. कोई 15 महीनों में पहली बार मैं अपनी बेटियों को उनका मनपसंद चाइनीज खाना खिला सकी हूं.
इस नई भूमिका में आप बलात्कार की शिकार महिलाओं की कैसे सहायता करती हैं ?
मैंने खुद इस पीड़ा को भोगा है. इसलिए मैं ऐसी महिलाओं की व्यथा समझ सकती हूं. आपस में इस समस्या पर बात कर हम यह मिथक तोड़ने का प्रयास कर रहे हैं कि बलात्कार का शिकार होना कोई बहुत बड़ा गुनाह है. जीवन इसके बाद भी चलता रहता है. बलात्कार के बाद समाज की ओर से मिलने वाला अछूत का तमगा हम जैसी महिलाओं की समस्या कई गुनी बढ़ा देता है.
आप महिलाओं की सुरक्षा पर एक पुस्तक भी लिख रही हैं ?
हां, इस काम में कुछ और सहयोगी भी हैं.इसमें खासकर रात के समय सफर करने वाली महिलाओं के लिए सुरक्षा के उपाय बताएं जाएंगे. इसके अलावा इस बात का भी विस्तार से जिक्र होगा कि पुलिस और न्याय प्रक्रिया से कैसे निपटा जाए. मुझे इस बात का संतोष है कि मैं अपनी तरह की महिलाओं की सहायता कर रही हूं और मुझे इसका बेहतर तरीका पता है. मैं यह नहीं चाहती कि कोई महिला उस दौर से गुजरे जिससे मुझे गुजरना पड़ा है.
इंटरव्यूः प्रभाकर, कोलकाता
संपादनः एन रंजन