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सांसदों के लिए मिसाल कन्हैया का भाषण

४ मार्च २०१६

कन्हैया कुमार के भाषण की बढ़ चढ़ कर तारीफ हो रही है. ईशा भाटिया का सवाल है कि जो कन्हैया ने किया, क्या वह दरअसल विपक्ष का काम नहीं था.

Indien Neu Dehli Kanhaiya Kumar hält Rede
तस्वीर: picture-alliance/Zuma Press/Xinhua

कन्हैया कुमार और कुछ करने में सफल रहे हों या नहीं लेकिन भाषण कला का बेहतरीन उदाहरण देने में पूरी तरह कामयाब रहे. एक घंटे के लंबे भाषण में हर मिनट कन्हैया ने सुनने वालों को बांधे रखा. भाषण की शुरुआत में ही वह रौंगटे खड़े करने वाला माहौल बना चुके थे. सरकारी नीतियों के विरोध को कन्हैया ने जिस तरह आवाज दी वह काम दरअसल विपक्ष का है लेकिन पिछले दो सालों में विपक्ष को कभी भी इस भूमिका में नहीं देखा गया है.

ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के पास अच्छे वक्ता नहीं हैं लेकिन कांग्रेस का हाल उस क्रिकेट टीम जैसा है जो अपने सबसे कमजोर बल्लेबाजों को सबसे पहले फील्ड में भेजती है. अब धीरे धीरे लगता है कि राहुल गांधी ने बल्ला पकड़ना सीख लिया है. लेकिन जब तक वे बैटिंग करना शुरू करेंगे, जनता तो स्टेडियम खाली कर चुकी होगी. शुरुआत करते करते उन्होंने इतनी देर कर दी कि अब वे संजीदगी से भी कुछ कहें, तब भी लोगों को मजाक ही लगता है.

ईशा भाटियातस्वीर: DW

खैर, राहुल गांधी से ज्यादा कन्हैया का भाषण स्मृति ईरानी के लिए जरूरी है. गुस्से में आग बबूली ईरानी ने संसद में जिस अंदाज में भाषण दिया था वह भाषण कम डांट फटकार और गुंडागर्दी ज्यादा लग रहा था. कन्हैया ने दिखाया कि कैसे आप मुस्कुराते हुए, बिना अपना आपा खोए, बिना किसी व्यक्ति विशेष का नाम लिए, मुद्दों और विचारधाराओं पर बात कर सकते हैं.

अपना मत रखने के लिए ना ही आपको किसी की ओर उंगली उठाने की जरूरत पड़ती है, ना ही आंखों में रोष लाने की. क्या संसद में विवाद का अवसर इसी मकसद से नहीं दिया जाता कि दोनों पक्ष लोकतांत्रिक तरीके से अपना अपना मत रखें और उस पर जनहित में विमर्श करें? लेकिन हमारे सांसद ना तो भाषण देने में निपुण हैं और ना ही उन्हें सुनने में सक्षम. संसद में तर्कसाध्य बहस ना हो सके, इस कोशिश में वे कोई कसर नहीं छोड़ते. फिर भले ही उसके लिए स्पीकर की मेज के सामने आ कर चिल्लाना ही क्यों ना पड़े, जोर जोर से अपनी मेज पीटनी पड़े या जरूरत रहते कुर्सियां उठा कर फेंकनी पड़े. संसद का हाल अक्सर उस क्लासरूम जैसा दिखता है जिसमें टीचर है नहीं और बच्चों की पढ़ाई में कोई रुचि नहीं.

एक सभ्य नागरिक समाज वाद विवाद से ही आगे बढ़ता है. जेएनयू और कन्हैया कुमार ने हमारे सांसदों, मंत्रियों और युवाओं के लिए एक मिसाल पेश की है. रात के अंधेरे में कैंपस का माहौल विद्रोह से भरा लेकिन संजीदा था. स्टूडेंट एकजुट थे, साथ मिल कर आजादी के नारे लगा रहे थे. इस नजारे ने कुछ कुछ 1968 के फ्रांस की याद भी दिलाई. लेकिन बहुत बड़ा फर्क भी था क्योंकि ये संगठित छात्र पूरे देश के नहीं, बल्कि केवल एक छोटी सी यूनिवर्सिटी के थे. हां, कैमरे के फ्रेम में 7,000 या 70,000 में फर्क करना आसान नहीं होता.

बहरहाल कैंपस में परिवर्तन के नारे गूंज रहे हैं पर कैंपस के बाहर की दुनिया का सच अलग ही है. कन्हैया ने सीधी सरल भाषा का इस्तेमाल करते हुए आम नागरिकों को अपनी बात समझाने की कोशिश की है. युवा वर्ग में बदलाव और बेहतर भविष्य की ललक है. उसे आवाज देने की जरूरत है और अगर बदलाव लाना है तो इस कोशिश को जारी रखना होगा, देश के बाकी युवाओं को भी साथ लेना होगा, सरकार के खिलाफ और देश के खिलाफ बोलने के फर्क को और भी आसान शब्दों में समझाना होगा.

सरकार और राजनीतिक दलों को भी समझना होगा कि लोकतंत्र विचारों की प्रतिस्पर्धा है, राष्ट्र और उसके नागरिकों की बेहतरी के लिए अच्छे विचारों की प्रतिस्पर्धा. उसे रोकने की कोशिश लोकतंत्र से द्रोह होगा.

ब्लॉग: ईशा भाटिया

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