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समाज

साइकिल-सहेली ने सुलझाई पढ़ाई की पहेली

फैसल फरीद
२५ जनवरी २०१९

अगर कोई 16 वर्षीया नबीला से पूछे कि उसकी सबसे अधिक प्रिय चीज क्या है तो वो तुरंत बताएगी - उसकी साइकिल. इसी साइकिल ने उसकी शिक्षा को रुकने नहीं दिया.

Eine Fahrradbank zur Weiterbildung ländlicher Mädchen in Indien
तस्वीर: DW/F. Fareed

नबीला रोज साइकिल से स्कूल जाती है और आराम से अपनी पढ़ाई पूरी कर पा रही है. यह साइकिल उसको बहुत प्रिय है लेकिन ये साइकिल उसकी नहीं है. ये उसको अपने गांव के साइकिल बैंक से उधार मिली है, इस शर्त के साथ कि पढ़ाई पूरी होने पर वो इसे चालू हालत में साइकिल बैंक में जमा कर देगी.

आखिर साइकिल की जरुरत क्यूं?

ऐसा इस वजह से हुआ क्यूंकि इंटरमीडिएट की छात्रा नबीला का गांव चंदवारा लखनऊ से लगभग 35 किलोमीटर दूर है. ये गांव पड़ोसी जनपद बाराबंकी के विकास खंड मसौली के अंतर्गत आता है. वहां आठवीं तक तो स्कूल पास में हैं. उसके बाद लड़कियों को अगर पढ़ना है तो फिर बाराबंकी जनपद मुख्यालय पर स्थित राजकीय बालिका इंटर कॉलेज जाना पड़ता है. इसकी दूरी लगभग 7-8 किलोमीटर पड़ती है.

जाने के साधन टेम्पो और कुछ खटारा जीपें होती हैं जिसमें सवारियां भरी जाती हैं. ये गाड़ियां जब तक पूरी भर ना जाएं, वहां से नहीं चलती हैं. स्कूल की छुट्टी शाम 4 बजे होती है और वापस लौटने में अक्सर देर हो जाती थी. इसके अलावा खूब भरी होने के कारण दुर्घटना होने की आशंका रहती है. रोज के रास्ते में लड़कियों को छेड़छाड़ का भी डर रहता है. हर रोज लड़कियां अपने घर में बता भी नहीं पातीं और अगर बता दिया तो हल यह निकल सकता है कि स्कूल जाना ही छोड़ दो.

ऐसे में नबीला के पिता सिराज कहते हैं, "पहले स्कूल जाने के नाम पर वो रोज कोई न कोई बहाना बनाती थी. ऐसे कारण बताती थी कि हम क्या कहें. लेकिन जब से उसको साइकिल मिली है एक भी दिन का उसने नागा (अनुपस्थित) नहीं किया है. अब वो खुशी खुशी स्कूल जाती है.”

नबीला अपने पिता से तो यही बहाना बना लेती थी कि पढ़ाई में दिल नहीं लग रहा है या समझ नहीं आता है और इस वजह से स्कूल नहीं जाएगी. लेकिन अब वही नबीला पढ़ना चाहती है और इसके लिए अपनी बड़ी बहन से प्रेरणा लेती है. उसकी बड़ी बहन इस समय बेसिक टीचर कोर्स (बीटीसी) कर रही है. उसको छोड़ने के लिए सिराज खुद जाते हैं और गांव के छोर पर बस में बिठाते हैं.

सिराज एक टीवी रिपेयरिंग की दुकान पर काम करते हैं इसीलिए वो अपनी दूसरी बेटी के लिए समय नहीं निकाल सकते थे. नतीजतन नबीला की पढ़ाई पर असर पड़ने लगा था. लगातार अनुपस्थित रहने से पढ़ाई छूटने के कगार पर आ गयी थी. नबीला के शब्दों में इस साइकिल ने उसे आजादी दिला दी है.

सिराज अब अपने तीन बेटों की भी पढ़ाई का बंदोबस्त कर लेते हैं क्यूंकि नबीला के आने जाने और रास्ते की परेशानियों से वो मुक्त हो चुके हैं. सिराज कहते हैं, "हमारे प्रधान जी ने बहुत अच्छा काम किया है. इससे गांव की सभी लड़कियों को फायदा पहुंचा है.”

आज नबीला और उसकी तमाम सहेलियां आराम से गांव से साइकिल लेकर निकलती हैं और खेतों, पगडंडियों के रास्ते मुख्य सड़क तक आकर आसानी से स्कूल चली जाती हैं. अब तो सबको अच्छी तरीके से साइकिल चलाना भी आ गया है. गांव की अन्य लड़कियां शशि, लक्ष्मी, आफरीन और बेबी सैनी ने भी अपने अपने लिए  साइकिल बैंक से साइकिल ली हुई है और सब साथ जाती हैं. सभी को मालूम है कि ये साइकिल उनको पढ़ाई के बाद वापस करनी है. नबीला कहती हैं, "हम खुद वापस करेंगे और हो सका तो इस साइकिल बैंक में एक साइकिल और देंगे.”

क्या हैं साइकिल बैंक

चंदवारा गांव की प्रधान प्रकाशिनी जायसवाल स्वयं एक ग्रेजुएट हैं. साल 2015 में प्रधान चुने जाने के बाद अक्सर उनके पास ऐसे किस्से आते थे जिसमें गांव की लड़कियां स्कूल जाना छोड़ देती थीं. वजह यह थी कि स्कूल बाराबंकी शहर में लगभग 7 किलोमीटर दूर था और आने जाने के साधन सिर्फ टेम्पो या जीप थे. प्रकाशिनी कहती हैं, "टेम्पो और जीप में ठूंस कर सवारी बिठाते हैं. रास्ते में छेड़छाड़ और दुर्घटना होती रहती थी. रोज रोज की चिकचिक से तंग आ कर लड़कियां स्कूल जाना बंद कर देती थी. ऐसे में यही विचार आया कि इनको स्कूल तक आने जाने का अपना साधन कर दिया जाए.”

तब सरकार की तरफ से ऐसा कोई फंड नहीं था जिससे मदद हो सके. तो प्रकाशिनी और प्राइवेट जॉब करने वाले उनके पति ऋतुराज जायसवाल ने अपने संपर्को का इस्तेमाल किया. जब लोगों से इस बारे में बताया तो धीरे धीरे इतना पैसा आ गया कि उससे 20 साइकिलें खरीद ली गयीं. इन साइकिलों को साइकिल बैंक में रखा गया. यहां से गांव की इच्छुक लड़कियां साइकिल अपने नाम से ले लेती हैं.

फिलहाल सारी साइकिल लड़कियों के पास हैं. इसके लिए ग्राम प्रधान ने लड़कियों और उनके परिजनों से एक एफिडेविट लिया है, जिसमें लिखा है कि पढ़ाई पूरी होने के बाद वो साइकिल चालू हालत में वापस करेंगी. प्रकाशिनी कहती हैं, "ऐसा इस वजह से किया गया है कि वही साइकिल फिर दूसरी बच्ची के काम आ सके. धीरे धीरे साइकिलों की संख्या बढ़ाने का भी विचार है.”

ऐसा नहीं है कि गांव की सभी बच्चियों के माता पिता साइकिल खरीद नहीं सकते थे. लेकिन कमी एक पहल करने की थी. अकेली लड़की साइकिल से भी नहीं जाएगी इसीलिए ये सामुदायिक पहल कर गयी. गांववासी ऋतुराज जायसवाल बताते हैं, "माता-पिता अपनी बच्चियों को गांव से अकेले शहर भेजने में असुरक्षा महसूस करते हैं. हम ये नहीं कहेंगे कि ये बच्चियां सिर्फ इन्हीं साइकिलों की वजह से पढ़ रही हैं क्यूंकि पढ़ाई तो बच्चा खुद करता है, लेकिन इतना जरूर है कि साइकिल मिल जाने से उनको सुविधा हुई है और सिर्फ इस वजह से अब पढ़ाई नहीं छूटेगी.”

इस पहल को यूनिसेफ उत्तर प्रदेश की सोशल पालिसी स्पेशलिस्ट पीयूष अंटोनी भी मानती हैं. वे कहती हैं, "साइकिल जेंडर समानता की ओर पहला कदम है. इससे लड़कियों को अपनी शिक्षा और अन्य कारण के लिए आने जाने की सुविधा उपलब्ध हो जाती है. एक तरह से जब लड़की शिक्षा की तरफ जाती है तो हम तमाम कुरीतियां जैसे चाइल्ड मैरिज को भी रोकते हैं. वैसे सभी ग्राम पंचायतों को इस ओर ध्यान देना चाहिए.”

क्या कहते हैं आंकड़े

महिला और बाल विकास मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार उत्तर प्रदेश में 11 से 14 वर्ष के बीच देश में सबसे ज्यादा लगभग पांच लाख लड़कियां स्कूल बीच में ही छोड़ देती हैं. इसमें प्रमुख कारण छेड़छाड़ का डर, आने जाने के साधन ना होना और पारिवारिक कारण रहते हैं.

एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट 2017 के मुताबिक, 14 साल के होने तक लड़के (95.3) और लड़कियों (94.3) के एनरोलमेंट प्रतिशत में ज्यादा अंतर नहीं होता. लेकिन 18 वर्ष की आयु तक पहुंचते पहुंचते ये अंतर लड़कों (71.6 ) और लड़कियों (67.4%) के बीच काफी बढ़ जाता है. इससे साबित होता हैं कि जैसे जैसे लड़कियां बड़ी होती हैं वो पढ़ाई छोड़ने लगती हैं.

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