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सात चरणों में चुनाव जरूरत या सियासत?

प्रभाकर मणि तिवारी
११ मार्च २०१९

क्या चुनाव आयोग ने जानबूझ कर पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश में सात चरणों में चुनाव कराने का फैसला किया है? बीजेपी विरोधी ज्यादातर दल यह आरोप लगा रहे हैं.

Westbengalen Wahlen
तस्वीर: DW/P. Mani Tewari

इसकी वजह यह है कि उत्तर प्रदेश की 80 सीटों के लिए भी मतदान सात चरणों में होगा जबकि बंगाल और बिहार की क्रमशः 42 और 40 सीटों के लिए भी इतने ही चरण में. जबकि 39 सीटों वाले तमिलनाडुप में एक चरण और 48 सीटों वाले महाराष्ट्र में चार चरणों में चुनाव होने हैं. इससे यह सवाल उठ रहा है कि क्या सत्ताधारी पार्टी को फायदा पहुंचाने के लिए ही बंगाल में सात चरणों में चुनाव कराए जा रहे हैं? आयोग के इस फैसले के बाद बंगाल में सत्तारुढ़ तृणमूल कांग्रेस और बीजेपी समेत तमाम विपक्षी दलों में ठन गई है. इसके अलावा रमजान का महीना होने की वजह से तृणमूल कांग्रेस समेत कई राजनीतिक दलों और अल्पसंख्यक संगठनों ने भी आयोग के फैसले पर सवाल उठाया है.

बीजेपी की दलील है कि सात चरणों में चुनाव कराने के आयोग के फैसले से साफ है कि राज्य में कानून और व्यवस्था की स्थित पूरी तरह ठप्प हो गई है. पार्टी ने अपनी दलील के समर्थन में बीते साल हुए पंचायत चुनावो के दौरान हुए भारी हिंसा की भी मिसाल दी है. यह बात किसी से छिपी नहीं है कि बीजेपी अबकी बंगाल पर खास ध्यान दे रही है और अमित शाह ने कम से कम 23 सीटें जीतने का लक्ष्य रखा है. पहले यहां अधिकतम पांच चरणों में चुनाव हुआ था लेकिन तब यानी 2009 व 2014 में राज्य में एक ओर माओवाद की समस्या थी तो दूसरी ओर, दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र में अलगाववादी आंदोलन सुलग रहा था, लेकिन इस बार ऐसा कुछ नहीं है.

तस्वीर: DW/P. Mani Tewari

बीते साल मई में हुए पंचायत चुनावों में भारी पैमाने पर हिंसा जरूर हुई थी. दिलचस्प बात यह है कि आयोग ने पहले दो-तीन चरणों में राज्य की जिन क्रमशः दो, तीन और पांच सीटों पर चुनाव कराने का एलान किया है वहां पंचायत चुनावों के दौरान खास हिंसा नहीं हुई थी. यह भी महज संयोग नहीं है कि पहले तीन चरणों के दौरान उत्तर बंगाल और सीमावर्ती इलाकों की उन सीटों पर मतदान होगा जहां बीजेपी की स्थिति बेहतर है और वह वहां अपनी पूरी ताकत झोंक रही है. चुनाव आयोग की  टीम ने बीते महीने जब बंगाल का दौरा किया था तो बीजेपी समेत तमाम विपक्षी दलों ने उसे पंचायत चुनावों के दौरान हुई हिंसा का पूरा ब्यौरा सौंपा था.

बीजेपी के राष्ट्रीय सचिव राहुल सिन्हा कहते हैं, "सात चरणों में चुनाव कराने की वजह यह है कि आयोग मुक्त व निष्पक्ष चुनावों के लिए केंद्रीय बलों की तैनाती कर सके.” बीजेपी चुनाव प्रबंधन समिति के प्रमुख मुकुल राय कहते हैं, "सात चरणों में चुनाव कराने के फैसले से साफ है कि बंगाल में लोकतंत्र व हिंसा की स्थिति कितनी गंभीर है. हमने चुनाव आयोग को दी रिपोर्ट में बताया था कि पंचायत चुनावों के दौरान 34 फीसदी सीटों पर उम्मीदवार निर्निरोध जीते थे. विपक्ष को नामांकन पत्र तक दायर नहीं करने दिया गया और सौ से ज्यादा लोग हिंसा की बलि चढ़ गए.”

कांग्रेस के सांसद व पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी कहते हैं, "हमने आयोग से मुक्त व निष्पक्ष चुनावों के लिए पर्याप्त तादाद में केंद्रीय बलों की तैनाती का अनुरोध किया है.” वह कहते हैं कि हिंसा तो लेफ्टफ्रंट के शासन में भी होती थी. लेकिन ममता बनर्जी के शासन में इसकी तमाम हदें पार हो गई हैं. लेफ्ट फ्रंट अध्यक्ष विमान बसु कहते हैं, "यह अहम नहीं है कि मतदान कितने चरणों में होगा. लोगों को निडर होकर अपने मताधिकार के इस्तेमाल का मौका मिलना चाहिए.” दूसरी ओर, तृणमूल कांग्रेस ने सात चरणों में चुनाव को बीजेपी की साजिश करार दिया है. पार्टी के वरिष्ठ नेता फिरहाद हकीम कहते हैं, "बीजेपी अपनी इस साजिश में कामयाब नहीं होगी. चुनाव चाहे सात चरणों में हों या चौदह में, हमारी जीत तय है. लोग हमारे साथ हैं.”

तृणमूल कांग्रेस का कहना है कि मतदान लंबा खिंचने की वजह से आम लोगों पर अनावश्यक बोझ बढ़ेगा. हकीम कहते हैं, "रमजान के महीने में चुनाव की वजह से खासकर अल्पसंख्यकों को भारी दिक्कत होगी.” कई अल्पसंख्यक संगठनों ने भी चुनाव की तारीखों पर एतराज जताया है. एक संगठन के प्रमुख मौसाना खालिद रशीद कहते हैं, "पांच को चांद दिखने पर छह मई से रमजान शुरू होगा. उसी दिन राज्य में पांचवें चरण का मतदान है. ऐसे में भूखे-प्यासे लोग वोट देने के लिए कड़ी धूप में कतारों में कैसे खड़े होंगे?”

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि अल्पसंख्यक वोट बैंक को ध्यान में रखते हुए ही तृणमूल कांग्रेस ने सात चरणों में चुनाव पर आपत्ति जताई है. राज्य में लगभग 30 फीसदी वोटर इसी तबके के हैं और उनका समर्थन ममता बनर्जी को हासिल है. यूं भी बीजेपी समेत तमाम विपक्ष दल ममता पर अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण के आरोप लगाते रहे हैं. राजनीतिक विश्लेषक विश्वनाथ पंडित कहते हैं, "अल्पसंख्यकों के वोट आधा दर्जन से ज्यादा सीटों पर निर्णायक हैं. उनमें से ज्यादातर पर आखिरी तीन दौर में ही मतदान होना है. यही तृणमूल कांग्रेस की चिंता की प्रमुख वजह है.”

आगे चाहे जो हो, चुनाव आयोग के फैसले के बाद ही बंगाल में सत्तारुढ़ पार्टी और विपक्ष में ठनती नजर आ रही है. चुनाव अभियान के दौरान भी इस मुद्दे के छाए रहने के आसार हैं.

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