साथ रहने के लिए शादी की जरूरत नहीं
१४ अप्रैल २०१५![Ein Paar in Dhaka](https://static.dw.com/image/18005799_800.webp)
सुप्रीम कोर्ट ने अपने ताजा फैसले में लिव इन रिलेशन में रह रहे जोड़ों को कानून की नजर में शादीशुदा दंपत्ति की मान्यता दे दी है. अदालत ने महानगरीय जीवनशैली का असर छोटे शहर और यहां तक कि गांव कस्बों तक पहुंचने के व्यवहारिक पहलू को देखते हुए यह फैसला किया है.
हालांकि यह पहला मौका नहीं है जबकि अदालत ने लिव इन रिलेशन को मान्यता देते हुए इससे जुड़े पहलुओं को व्यापकता प्रदान की हो. इससे पहले उच्च अदालत ने लिव इन रिलेशन में रह रही महिला को साथ पुरुष की संपत्ति में हक और भरण पोषण का अधिकार दे कर इस मुद्दे पर नई बहस को जन्म दिया था. इस बहस को अंजाम तक पहुंचाने के लिए सर्वोच्च अदालत ने अब ऐसे जोड़ों को शादीशुदा दंपत्ति की मान्यता देकर इन संबंधों को स्पेशल मेरिज एक्ट के क्षेत्राधिकार में ला खड़ा किया है. कानूनी जानकारों की राय में इसका अगला पड़ाव पर्सनल लॉ में भी ऐसे संबधों की दस्तक देना होगा.
अदालत का रुख भविष्य की इस आहट से वाकिफ है. ताजा फैसले के पहलुओं का अगर विश्लेषण किया जाए तो निसंदेह इसके सकारात्मक और नकारात्मक असर की हकीकत से इंकार नहीं किया जा सकता है. बीती सदी के आखिर में चली देशव्यापी वैश्वीकरण की बयार का असर ही था कि महानगरों में अपना भविष्य संवारने पहुंचे युवाओं में लिव इन रिलेशन का चलन बढ़ा था. लेकिन इसके साथ ही अदालतों में ऐसे मामलों की संख्या तेजी से बढ़ी जिनमें महिलाओं ने लिव इन में रहते हुए साथी पर बलात्कार के मामले दर्ज कराए. शुरु में तो न्यायपालिका के समक्ष ऐसे मामलों पर ब्रिटिशकालीन अपराध कानून के अंतर्गत ही विचार करने का विकल्प मोजूद था. ऐसे में एकपक्षीय फैसलों से पुरुषों के साथ नाइंसाफी भी बढ़ने लगी. सबसे पहले दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायाधीश कैलाश गंभीर ने साल 2010 में लिव इन में रहते हुए महिला को पुरुष साथी द्वारा शादी करने से इंकार करने के बाद बलात्कार का मामला दर्ज कराने की इजाजत देने से इंकार कर दिया.
इस बीच महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा के बढ़ते मामलों को देखते हुए संसद द्वारा अपराध कानून को सख्त करने के बाद लिव इन के नाम पर बलात्कार के फर्जी मामलों की संख्या में फिर इजाफा होने की हकीकत को देखते हुए अदालतों ने अपने रुख में बदलाव किया. हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले दोनों फैसलों में पुलिस और निचली अदालतों को इस तरह के मामलों में तथ्य एवं परिस्थितियों का बारीक विश्लेषण करने के बाद ही मामले दर्ज करने और जांच करने को कहा था. अदालत ने ताजा फैसले में स्पष्ट ताकीद की है कि लिव इन के मामलों पर अलग से कानून नहीं होने के कारण न्यायपालिका की जिम्मेदारी बढ़ जाती है.
फैसला कोई भी हो, अदालत करे या सरकार, इनके अच्छे और बुरे दोनों प्रभाव देखने को मिलते हैं. इस फैसले को भी इसी नजरिए से देखा जाना चाहिए. संपत्ति से लेकर वैवाहिक अधिकारों के परिप्रेक्ष्य में महिला सशक्तिकरण को इस फैसले से नया आयाम मिलेगा. साथ ही अदालत ने लिव इन में रहने की बात साबित करने की जिम्मेदारी प्रतिवादी पर डालकर फैसले के दुरुपयोग की आशंका को नगण्य करने का भी प्रयास किया है. फैसले का असर इसके लागू हाने के बाद आने वाला समय ही बताएगा.
ब्लॉग: निर्मल यादव