सामाजिक ताने-बाने में छिपे हैं विरोध के बीज
१५ जनवरी २०१९नागरिकता अधिनियम के खिलाफ आदिवासी संगठन असम बंद तक बुला चुके हैं. यह बात दीगर है कि फिलहाल यह मामला नागरिकता अधिनियम के विरोध के नीचे दब-सा गया है. लेकिन आने वाले दिनों में यह मुद्दा तूल पकड़ सकता है. लेकिन दरअसल इस विरोध के बीज राज्य के जटिल सामाजिक ताने-बाने में छिपे हैं.
सैकड़ों जनजातियां
असम की छह जनजातियों, कोच राजबंशी, ताई अहोम, चूतिया,मोरान, मटक और चाय जनजाति को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की मांग यूं तो काफी पुरानी है, लेकिन 2014 के लोकसभा चुनावों से पहले बंगाईगांव में बीजेपी के प्रचार अभियान के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इसका भरोसा देने के बाद इस मांग ने जोर पकड़ा. उसके बाद इस मुद्दे पर कई दफा बैठकों के बावजूद इस दिशा में प्रगति नहीं हो सकी.
अब नागरिकता (संशोधन) विधेयक के मुद्दे पर राज्यव्यापी बवाल के बाद केंद्र सरकार ने लोगों का ध्यान मोड़ने के लिए मंत्रिमंडल की बैठक में इन जनजातियों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने संबंधी प्रस्ताव को मंजूदी दे दी. फिलहाल इसे संसद की मंजूरी मिलनी है. इसके बाद दूसरे आदिवासी संगठन इसके विरोध में लामबंद होने लगे हैं. उनकी दलील है कि इन छह जनजातियों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिलने के बाद आदिवासियों के हितों को नुकसान पहुंचेगा.
असम में सैकड़ों जातीय समूह हैं. इनमें से ज्यादातर समूह खुद के पिछड़ा होने का दावा करते हुए अनुसूचित जनजाति के दर्जे की मांग करते रहे हैं. फिलहाल केंद्र ने जिन छह जनजातियों को यह दर्जा देने का फैसला किया वह असम सरकार की ओर से अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की सूची में शामिल हैं. यह मामला बेहद जटिल है. मिसाल के तौर पर चाय जनजाति में ओरांग व घटवार समेत कम से कम 96 जातीय समूह शामिल हैं. केंद्र के इस फैसले का राजनीतिक पहलू भी है. राजनीतिक पर्यवेक्षक सोमेश्वर पाठक कहते हैं, "इन छह समूहों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिलने के बाद राज्य में आदिवासियों की आबादी मौजूदा 13 फीसदी से बढ़ कर 50 फीसदी से ज्यादा हो जाएगी. इसका असर विधानसभा में आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों पर भी होगा. वैसी स्थिति में आरक्षित सीटें बढ़ानी होंगी.”
विरोधियों की दलील
केंद्र के फैसले का विरोध करने वालों की दलील है कि इससे राज्य का सामाजिक ताना-बाना नष्ट हो जाएगा. अनुसूचित जनजाति समूहों के सबसे बड़े संगठन कोऑर्डिनेशन कमिटी ऑफ द ट्राइबल ऑर्गनाइजेशंस ऑफ असम के मुख्य संयोजक आदित्य खाकलारी कहते हैं, "छह जनजातियों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की पहल कर केंद्र व राज्य सरकारें राज्य के मूल आदिवासियों को खत्म करने की साजिश रच रही हैं. सियासी फायदे के लिए उठाए गए इस कदम का आखिर तक विरोध किया जाएगा.”
वह कहते हैं कि इन छह जातीय समूहों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने का कोई ठोस आधार नहीं है. ऐसा कोई अध्ययन नहीं किया गया है जिससे साबित हो कि यह लोग राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व आर्थिक रूप से पिछड़े हों. इनमें से ज्याटादर लोग आर्थिक रूप से समृद्ध हैं. खाकलारी कहते हैं, "इस दिशा में पहल करने से पहले केंद्र व राज्य सरकारों ने आदिवासी संगठनों को भरोसे में नहीं लिया. राज्य के आदिवासी इस सियासी फैसले का विरोध जारी रखेंगे.”
दूसरी ओर, बोड़ोलैंड टेरीटोरियल कैंसिल (बीटीसी) के प्रमुख हग्रामा मोहिलारी कहते हैं, "इस फैसले से उन लोगों के हितों को कोई नुकसान नहीं होगा जिनको पहले से अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिला हुआ है. केंद्र ने मौजूदा अनुसूचित जनजाति समूहों के हितों की रक्षा के लिए असम सरकार को एक मंत्रिमंडलीय उप-समिति बनाने का निर्देश दिया है.”
उलझती परिस्थितियां
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का दावा है कि सरकार ने इस फैसले के जरिए नागरिकता विधेयक का विरोध कर रहे स्थानीय लोगों के जख्मों पर मरहम लगाने का प्रयास किया है. लेकिन इससे राज्य की मौजूदा परिस्थिति के और बिगड़ने का ही अंदेशा है. जिन छह समूहों को अनूसूचित जनजाति का दर्जा देने का फैसला किया गया है वह भी नागरिकता विधेयक के समर्थन को तैयार नहीं हैं. ऑल कोच राजबंशी स्टूडेंट्स यूनियन के अध्यक्ष हितेश बर्मन कहते हैं, "इस फैसले को राजनीतिक लालीपॉप के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए. हम किसी भी कीमत पर नागरिकता (संशोधन) विधेयक का समर्थन नहीं करेंगे.” मोरान और चाय जनजाति संगठनों ने भी यही बात कही है. उनका कहना है कि बीजेपी नागरिकता विधेयक वापस ले ले तो उसका पूरा समर्थन किया जाएगा.
समाजशास्त्री जितेन डेका कहते हैं, "असम की जटिल सामाजिक संरचना को समझे बिना ऐसा कोई फैसला करना उचित नहीं है. बीजेपी के इस फैसले के राजनीतिक निहितार्थ हैं. लेकिन इससे समस्या और उलझेगी. अब कई दूसरे जातीय समूह भी अनुसूचित जनजाति के दर्जे की मांग में सड़कों पर उतर सकते हैं.” डेका की बात में दम है. कलिता जातीय समूह के समर्थकों ने भी हाल में अनूसूचित जनजाति के दर्जे की मांग में रैली निकाली थी. मौजूदा हालात को ध्यान में रखते हुए लगता है कि एक समस्या को सुलझाने के चक्कर में केंद्र और राज्य सरकारों ने एक नई समस्या पैदा कर ली है.