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सिंगूर और नंदीग्राम तय करेंगे सरकार का गठन

३ मई २०११

पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों के मंगलवार को होने वाले चौथे चरण के मतदान में 63 सीटों पर एक करोड़ 26 लाख से ज्यादा मतदाता 366 उम्मीदवारों की किस्मत का फैसला करेंगे. पुख्ता सुरक्षा इंतजाम.

सिंगूर तय करेगा भविष्यतस्वीर: DW

राज्य के मुख्य चुनाव अधिकारी सुनील कुमार गुप्ता ने बताया कि राज्य के चार जिलों, हुगली, हावड़ा, पूर्व मेदिनीपुर और बर्दवान में फैले इन विधानसभा क्षेत्रों में मतदान के दौरान शांति बनाए रखने के पुख्ता इंतजाम किए गए हैं. स्वतंत्र, निष्पक्ष और शांतिपूर्ण चुनावों के लिए पर्याप्त तादाद में केंद्रीय और राज्य के सुरक्षा बलों को तैनात किया गया है. चौथे चरण के विधानसभा क्षेत्रों में वह सिंगूर और नंदीग्राम शामिल हैं, जहां रेल मंत्री ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने जमीन अधिग्रहण के खिलाफ आंदोलन चलाया था.

निर्णायक चरण

इस चरण में जिन उम्मीदवारों की चुनावी किस्मत का फैसला होगा उनमें उद्योग मंत्री निरुपम सेन, कृषि मंत्री नरेन डे, उच्च शिक्षा मंत्री सुदर्शन राय चौधरी, खाद्य प्रसंस्करण मंत्री महंत चटर्जी, सूचना व संस्कृति राज्य मंत्री सौमेन्द्रनाथ बेरा, तकनीकी शिक्षा मंत्री चक्रधर मैकप और दमकल सेवा मंत्री प्रतिम चटर्जी शामिल हैं.

क्या गढ़ बचेगा....तस्वीर: AP

इस दौर में एक ओर जहां राज्य में सरकार बनाने वाली राजनैतिक पार्टी के बारे में फैसला होगा, वहीं यह भी पता चलेगा कि क्या वामपंथी अपने इस गढ़ को सुरक्षित रखने में कामयाब होंगे या फिर तृणमूल कांग्रेस-कांग्रेस गठजोड़ इसमें सेंध लगाने में कामयाब रहेगा.

बहुकोणीय बर्दवान

दक्षिण बर्दवान सीट पर मुकाबला बहुकोणीय है. सीपीएम विधायक व उद्योगमंत्री निरुपम सेन इस सीट पर एक बार फिर अपनी किस्मत आजमा रहे हैं. इस सीट के लिए भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और अन्य राजनैतिक दलों ने भी अपने उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं. लेकिन मुख्य मुकाबला माकपा और तृणमूल कांग्रेस के रवि रंजन चट्टोपाध्याय के बीच रहने की संभावना है.

लेफ्ट फ्रंट का का गढ़ माने जाने वाले बर्दवान जिले में पंचायत, नगरपालिका और पिछले लोकसभा चुनाव से पार्टी की पकड़ लगातार कमजोर हो रही है. मेमारी, गुस्कारा, कालना और दाईहात जैसी नगरपालिकाएं सीपीएम के हाथ से निकल चुकी हैं. बर्दवान जिले की इस विधानसभा सीट के लिए क्षेत्र का विकास, मंगलकोट कांड और किसानों की आत्महत्या प्रमुख मुद्दे हैं.

सिंगूर से मशहूर

चार-पांच साल पहले तक सिंगूर और नंदीग्राम के बारे में देश तो क्या बंगाल के ज्यादा लोगों को भी नहीं पता था. लेकिन खेती की जमीन पर उद्योग लगाने की बुद्धदेव भट्टाचार्य सरकार की मुहिम ने इन दोनों अनाम कस्बों को रातोंरात देश ही नहीं, पूरी दुनिया में सुर्खियों में ला दिया.

पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता से करीब 45 किलोमीटर दूर हुगली जिले में नेशनल हाइवे के दोनों किनारों पर बसे सिंगूर का वह नाम अब ऐसा बदनुमा दाग बन गया है जिसकी मार वहां के लोग अब तक झेल रहे हैं. टाटा समूह ने वहां अपनी बहुचर्चित लखटकिया कार परियोजना लगाने का फैसला किया था. उसके लिए लगभग एक हजार एकड़ जमीन के अधिग्रहण का काम हो गया और परियजोना भी बन कर तैयार हो गई थी. लेकिन चार सौ एकड़ जमीन लौटाने की मांग में तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी ने जो आंदोलन शुरू किया उसकी वजह से टाटा को यहां से बोरिया-बिस्तर समेट कर गुजरात भागना पड़ा.

सपने टूटे

"एक छोटी कार के आने की सूचना ने हमारी ज़िंदगी में पंख लगा दिए थे. हम सबकी आंखों ने न जाने कितने ही सुनहरे सपने देखे थे. लेकिन बीते एक साल से तो हम अपने पैरों पर खड़े होने के काबिल भी नहीं रह गए हैं. बस, यूं समझ लीजिए कि हम टूटे सपनों के साथ अपनी बेपहिया जिंदगी को घसीट रहे है." सिंगूर के विकास पाखिरा यह कहते हुए कहीं अतीत में खो जाते हैं. टाटा मोटर्स की नैनो कार परियोजना के लिए जमीन के अधिग्रहण और संयंत्र का काम शुरू होते ही इलाके के लोगों की जिंदगी में मानो पंख लग गए थे. लेकिन नैनो संयंत्र परिसर अब इलाके की गाय-भैंसों का चारागह बन चुका है. खाली जमीन पर घास के जंगल पनप गए हैं. परियोजना के सहारे इलाके में होने वाले विकास के काम भी रातोंरात ठप हो गए हैं.

चूक कहां

इलाके के लोग अब भी यह नहीं समझ सके हैं कि आखिर चूक कहां हुई? विकास कहते हैं कि आंदोलन तो होते ही रहते हैं. लेकिन इस पर समझौता भी तो हो सकता था. उन लोगों को इस बात का अफसोस है कि राज्य सरकार ने टाटा को रोकने का ठोस प्रयास नहीं किया.

रेल मंत्री ममता बनर्जी ने पिछले बजट में सिंगूर में रेल कोच फैक्टरी लगाने का एलान तो कर दिया है. लेकिन वह कब तक लगेगी, इसका कोई भरोसा नहीं है. दूध से जले सिंगुर के लोग अब छाछ भी फूंक-फूंक कर पीना चाहते हैं. टाटा के कामकाज समेटने के बाद परियोजना से जुड़े कुछ स्थानीय युवकों ने नौकरी के लिए दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में हाथ-पांव मारे. लेकिन मंदी के इस दौर में नौकरी भला कहां मिलती. कुछ दिनों बाद वे सब सिंगूर लौट आए. अब सिंगूर की उस खाली पड़ी जमीन और संयंत्र के ढांचे को निहारते ही उनके दिन बीतते हैं. मन में इस उम्मीद के साथ कि कभी न तो कभी तो फिर भारी-भरकम मशीनों के शोर से परियोजनास्थल पर बिखरी खामोशी टूटेगी. सुनील कहते हैं कि हमारी तो जिंदगी ही खामोश हो गई है.

पश्चिम बंगाल में नहीं बनी नैनोतस्वीर: AP

करोड़ों की संपत्ति गई

पूर्व मेदिनीपुर जिले के नंदीग्राम में तो अभी केमिकल सेज के लिए जमीन के अधिग्रहण की सूचना ही दी गई थी. लेकिन लोगों के कड़े विरोध की वजह से वहां जो आंदोलन भड़का उसने कई जानें ले लीं. करोड़ों की संपत्ति इस आंदोलन की भेंट चढ़ गई और अब भी वहां हालात सामान्य नहीं हो सके हैं.

कभी सूचना तकनीक के मामले में जो लहर बैंगलोर में चली थी, औद्योगिकरण के मामले में वही लहर वाममोर्चा के शासन वाले पश्चिम बंगाल में चली. मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने साल 2006 में दोबारा सत्ता में लौटने के बाद राज्य में औद्योगिकरण की प्रक्रिया तेज कर दी थी. विभिन्न उद्योगों के साथ राज्य में विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) यानी सेज की स्थापना का काम भी तेजी से शुरू हुआ. पहले यहां एक ही सेज था. बाद में कई और नए प्रस्तावों को हरी झंडी दिखा दी गई.

न मुआवजा न पुनर्वास

लेकिन इन सब परियोजनाओं के लिए खेती के जमीन के अधिग्रहण से लोगों में भारी नाराजगी उभरी. लेकिन, मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य कहते हैं कि नैनो परियोजना से सिर्फ सिंगूर या हुगली ही नहीं, बल्कि पूरे राज्य का चेहरा बदल जाता. इस कारखाने पर आधारित सहायक उद्योगों की स्थापना से 10 हजार से भी ज्यादा लोगों को रोजगार मिलता. उनकी दलील है कि इस परियोजना के लिए जिस जमीन का अधिग्रहण किया गया है उसमें से 90 फीसदी एक फसल वाली है. लेकिन दूसरी ओर, ममता बनर्जी समेत विभिन्न संगठनों का दावा था कि यह जमीन काफी उपजाऊ है और वहां कई फसलें होती हैं.

सिंगूर से धधकी आग की लपटें अभी शांत भी नहीं हुई थीं कि पूर्व मेदिनीपुर जिले में बसा नंदीग्राम जमीन के मुद्दे पर ही धधकने लगा. वहां इंडोनेशिया के सलेम समूह की ओर से विशेष आर्थिक क्षेत्र यानी सेज की स्थापना के लिए लगभग 19 हजार एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया जाना था. अधिग्रहण की अधिसूचना जारी होने की अफवाह फैलने के बाद गांव वाले उत्तेजित हो गए और वहां तैनात पुलिस वालों पर धावा बोल दिया. इसके बाद तृणमूल कांग्रेस की अगुवाई वाली कृषि जमीन बचाओ समिति की अगुवाई में वहां जो आंदोलन शुरू हुआ उसने दर्जनों लोगों की बलि ले ली. तृणमूल कांग्रेस और माकपा के बीच राजनीतिक हिंसा की आग भी नंदीग्राम से ही तेज हुई. दरअसल, नंदीग्राम के लोगों की नाराजगी जायज ही थी. बीस साल पहले हल्दिया में शुरू हुई विभिन्न विकास परियोजनाओं के लिए जिन लोगों की जमीन ली गई थी उनमें से ज्यादातर को अब तक न तो पूरा मुआवजा मिला है और न ही सरकार ने उनके पुनर्वास की दिशा में कोई पहल की है. गांव के बिराज कृष्ण जाना कहते हैं कि 20 साल पहले उनका तीन बीघे का एक प्लाट सरकार ने ले लिया था, मुआवजा व पुनर्वास के लंबे-चौड़े सब्जबाग दिखा कर. लेकिन फूटी कौड़ी तक नहीं मिली. उसी गांव के समीरन गिरी सवाल करते हैं कि अगर सरकार ने जमीन ले ली तो हम खाएंगे क्या? यह जमीन ही परिवार के पांच लोगों का पेट चलाती है.

माओवादी ताकतवर हुए

नंदीग्राम के अधिग्रहण विरोधी आंदोलन ने माओवादियों को राज्य में अपनी जड़ें मजबूत करने में सहायता दी. उस आंदोलन में भागीदारी के जरिए माओवादियों ने स्थानीय लोगों का भरोसा जीत लिया और उनके घरों ही नहीं बल्कि दिलों में भी अपने लिए जगह बना ली.

ममता की दलील है कि कोई भी पार्टी औद्योगिकरण के खिलाफ नहीं है. लेकिन इसके साथ सामाजिक सरोकारों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए. निहायत जरूरी होने पर अधिग्रहण किया जा सकता है. लेकिन इसके लिए खेती की जमीन के अधिग्रहण से बचा जाना चाहिए. किसी भी अधिग्रहण से पहले एक ठोस व पारदर्शी पुनर्वास पैकेज तैयार करना होगा और जमीन के इस्तेमाल की एक नीति बनानी होगी.

सिंगूर और नंदीग्राम ने राज्य में औद्योगिकरण मुहिम की हवा निकाल दी. बीते चार-पांच वर्षों में राज्य में होने वाला हर चुनाव खेती बनाम उद्योग के नारों के सहारे ही लड़ा गया है. बीते लोकसभा चुनावों से यह साबित हो चुका है कि बिना सोचे-समझे जमीन के अधिग्रहण ने वाममोर्चा और राज्य सरकार के पैरों तले की जमीन खिसका दी है. इस विधानसभा चुनाव में भी यही मुद्दा सिर चढ़ कर बोल रहा है. सत्ता के दोनों प्रमुख दावेदारों यानी लेफ्ट फ्रंट और तृणमूल कांग्रेस-कांग्रेस गठजोड़ ने खुद को सिंगूर व नंदीग्राम का सबसे बड़ा हितैषी साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है.

रिपोर्टः प्रभाकर, कोलकाता

संपादनः आभा एम

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