भारत में बीते दो दशकों के दौरान खेतों का आकार तो सिकुड़ा है, लेकिन महिला खेत मालिकों की तादाद में वृद्धि हुई है.
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कृषि जनगणना के ताजा आंकड़ों से महिला किसानों के बढ़ने का पता चलता है. वैसे, केंद्र सरकार ने बीते साल पहली बार 15 अक्तूबर को महिला किसान दिवस मनाने का फैसला किया था. लेकिन कृषि के क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति अब भी बेहतर नहीं है.
बीते साल महिला किसानों संगठनों ने अपनी मांगों के समर्थन में दिल्ली में आवाज उठाई थी. लेकिन उनकी आवाज फिलहाल नक्कारखाने में तूती बन कर ही रह गई.
ताजा सर्वेक्षण
10वीं कृषि जनगणना के मुताबिक देश में प्रति किसान खेतों का औसत आकार 2010-11 के 1.15 हेक्टेयर से घटकर 1.08 हेक्टेयर रह गया है. खेती के बदलते परिदृश्य का पता लगाकर इस क्षेत्र के लिए नीतियों का प्रारूप तैयार करने के लिए हर पांच साल पर यह जनगणना की जाती है. कृषि भूमि का औसत आकार 2010-11 और 2015-16 के बीच 6 प्रतिशत से ज्यादा घटा है.
ये हैं भारतीय किसानों की मूल समस्याएं
भारत की पहचान एक कृषि प्रधान देश के रूप में रही है लेकिन देश के बहुत से किसान बेहाल हैं. इसी के चलते पिछले कुछ समय में देश में कई बार किसान आंदोलनों ने जोर पकड़ा है. एक नजर किसानों की मूल समस्याओं पर.
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भूमि पर अधिकार
देश में कृषि भूमि के मालिकाना हक को लेकर विवाद सबसे बड़ा है. असमान भूमि वितरण के खिलाफ किसान कई बार आवाज उठाते रहे हैं. जमीनों का एक बड़ा हिस्सा बड़े किसानों, महाजनों और साहूकारों के पास है जिस पर छोटे किसान काम करते हैं. ऐसे में अगर फसल अच्छी नहीं होती तो छोटे किसान कर्ज में डूब जाते हैं.
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फसल पर सही मूल्य
किसानों की एक बड़ी समस्या यह भी है कि उन्हें फसल पर सही मूल्य नहीं मिलता. वहीं किसानों को अपना माल बेचने के तमाम कागजी कार्यवाही भी पूरी करनी पड़ती है. मसलन कोई किसान सरकारी केंद्र पर किसी उत्पाद को बेचना चाहे तो उसे गांव के अधिकारी से एक कागज चाहिए होगा.ऐसे में कई बार कम पढ़े-लिखे किसान औने-पौने दामों पर अपना माल बेचने के लिए मजबूर हो जाते हैं.
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अच्छे बीज
अच्छी फसल के लिए अच्छे बीजों का होना बेहद जरूरी है. लेकिन सही वितरण तंत्र न होने के चलते छोटे किसानों की पहुंच में ये महंगे और अच्छे बीज नहीं होते हैं. इसके चलते इन्हें कोई लाभ नहीं मिलता और फसल की गुणवत्ता प्रभावित होती है.
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सिंचाई व्यवस्था
भारत में मॉनसून की सटीक भविष्यवाणी नहीं की जा सकती. इसके बावजूद देश के तमाम हिस्सों में सिंचाई व्यवस्था की उन्नत तकनीकों का प्रसार नहीं हो सका है. उदाहरण के लिए पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के क्षेत्र में सिंचाई के अच्छे इंतजाम है लेकिन देश का एक बड़ा हिस्सा ऐसा भी है जहां कृषि, मॉनसून पर निर्भर है. इसके इतर भूमिगत जल के गिरते स्तर ने भी लोगों की समस्याओं में इजाफा किया है.
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मिट्टी का क्षरण
तमाम मानवीय कारणों से इतर कुछ प्राकृतिक कारण भी किसानों और कृषि क्षेत्र की परेशानी को बढ़ा देते हैं. दरअसल उपजाऊ जमीन के बड़े इलाकों पर हवा और पानी के चलते मिट्टी का क्षरण होता है. इसके चलते मिट्टी अपनी मूल क्षमता को खो देती है और इसका असर फसल पर पड़ता है.
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मशीनीकरण का अभाव
कृषि क्षेत्र में अब मशीनों का प्रयोग होने लगा है लेकिन अब भी कुछ इलाके ऐसे हैं जहां एक बड़ा काम अब भी किसान स्वयं करते हैं. वे कृषि में पारंपरिक तरीकों का इस्तेमाल करते हैं. खासकर ऐसे मामले छोटे और सीमांत किसानों के साथ अधिक देखने को मिलते हैं. इसका असर भी कृषि उत्पादों की गुणवत्ता और लागत पर साफ नजर आता है.
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भंडारण सुविधाओं का अभाव
भारत के ग्रामीण इलाकों में अच्छे भंडारण की सुविधाओं की कमी है. ऐसे में किसानों पर जल्द से जल्द फसल का सौदा करने का दबाव होता है और कई बार किसान औने-पौने दामों में फसल का सौदा कर लेते हैं. भंडारण सुविधाओं को लेकर न्यायालय ने भी कई बार केंद्र और राज्य सरकारों को फटकार भी लगाई है लेकिन जमीनी हालात अब तक बहुत नहीं बदले हैं.
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परिवहन भी एक बाधा
भारतीय कृषि की तरक्की में एक बड़ी बाधा अच्छी परिवहन व्यवस्था की कमी भी है. आज भी देश के कई गांव और केंद्र ऐसे हैं जो बाजारों और शहरों से नहीं जुड़े हैं. वहीं कुछ सड़कों पर मौसम का भी खासा प्रभाव पड़ता है. ऐसे में, किसान स्थानीय बाजारों में ही कम मूल्य पर सामान बेच देते हैं. कृषि क्षेत्र को इस समस्या से उबारने के लिए बड़ी धनराशि के साथ-साथ मजबूत राजनीतिक प्रतिबद्धता भी चाहिए.
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पूंजी की कमी
सभी क्षेत्रों की तरह कृषि को भी पनपने के लिए पूंजी की आवश्यकता है. तकनीकी विस्तार ने पूंजी की इस आवश्यकता को और बढ़ा दिया है. लेकिन इस क्षेत्र में पूंजी की कमी बनी हुई है. छोटे किसान महाजनों, व्यापारियों से ऊंची दरों पर कर्ज लेते हैं. लेकिन पिछले कुछ सालों में किसानों ने बैंकों से भी कर्ज लेना शुरू किया है. लेेकिन हालात बहुत नहीं बदले हैं.
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इस रिपोर्ट में कहा गया है कि पुरुष दूसरे रोजगारों की तलाश में गांवों से शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं जिसके चलते ग्रामीण इलाकों में खेती की जमीन का विभाजन बढ़ने के साथ महिला किसानों की तादाद भी बढ़ी है. विभाजन बढ़ने की वजह से बीते 45 वर्षों के दौरान खेतों का औसत आकार घट कर आधा रह गया है. नतीजतन अब खेती फायदे का सौदा नहीं रह गई है.
इस जनगणना से महिला किसानों की तादाद बढ़ने का भी पता चलता है. इसमें कहा गया है कि वर्ष 2010-11 में महिला किसानों की तादाद कुल तादाद का 12.79 फीसदी यानी 1.76 करोड़ थी जो वर्ष 2015-16 में बढ़ कर 13.87 फीसदी यानी 2.02 करोड़ तक पहुंच गई. वर्ष 2005-06 में यह आंकड़ा 11 फीसदी यानी 1.51 करोड़ था.
इस दौरान खेती की जाने वाली जमीन में उनकी हिस्सेदारी 10.36 प्रतिशत से 11.57 प्रतिशत हो गई है. इससे पता चलता है कि कृषि भूमि के प्रबंधन और परिचालन में महिलाओं की भागीदारी लगातार बढ़ रही है.
भूमि विभाजन की वजह से छोटे जोत वाले किसानों की तादाद बीते पांच वर्षों के दौरान बढ़ी है, जबकि मझोले और बड़े आकार के जोत वाले किसानों की तादाद कम हुई है.
महिला किसान
पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता से सटे दक्षिण 24-परगना जिले में अपने दो बीघा खेत में विभिन्न तरह की साग-सब्जियां उगाने वाली देवारती मंडल कोलकाता के फ्लोटिंग मार्केट में लगी अपनी दुकान में इनको बेचती हैं. वह कहती हैं, "खेती अब फायदे का सौदा नहीं रह गया है. इसलिए मेरे पति कमाने के लिए दिल्ली चले गए हैं.”
बंटवारे में देवारती को दो बीघे खेत मिले हैं. वह बताती है कि उसके गांव की ज्यादातर खेतों की मालिक महिलाएं हैं और पूरे साल जी-तोड़ मेहनत कर साग-सब्जियों के अलावा चावल और आलू की खेती करती हैं. इस बाजार में दुकान लगाने वाली एक अन्य महिला पियाली दास बताती हैं, "घर के ज्यादातर पुरुष कमाने के लिए दूसरे शहरों में चले गए हैं. अब खेती का काम हमारे जिम्मे ही है. लेकिन हमें कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है.”
यह दोनों बताती हैं कि समस्या होने पर सरकारी अधिकारी महिलाओं की बात को तवज्जो नहीं देते. उनका कहना है कि अब जब तमाम क्षेत्रों में महिलाएं पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर काम कर रही हैं तो उनको समान अधिकार भी दिए जाने चाहिए. विशेषज्ञों का मानना है कि अगर महिला और पुरुषों में भेदभाव कम कर उन्हें बराबरी का दर्जा दिया जा सके तो स्थिति सुधर सकती है.
जाने-माने कृषि वैज्ञानिक डॉ. एमएस स्वामिनाथन कहते हैं, "देश में खेती से जुड़े आधे से ज्यादा कार्यों में महिलाएं शामिल हैं. इसके बावजूद भारत में महिला किसानों के लिए कोई बड़ी सरकारी नीति नहीं बनाई गई है.”
महिला किसान दिवस
बीते साल खेती से जुड़ी हजारों महिलाओं ने अपनी मांगों के समर्थन में दिल्ली में दस्तक दी थी. उनकी मांग थी कि जो महिलाएं खेती करती हैं, सरकार उन्हें किसान का दर्जा दे. महिला अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठन 'महिला किसान अधिकार मंच' का कहना है कि मौजूदा दौर में देश की कृषि व्यवस्था में महिलाओं की बढ़ती भूमिका आंकड़ों में भी उभर कर सामने आनी चाहिए.
महिलाओं का नाम जमीन और खेती से जुड़े रिकॉर्डों पर नजर आने की स्थिति में ही उनको कानूनी रूप से किसान होने के सारे लाभ मिल सकेंगे. महिला अधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि महिलाओं को जमीन के अधिकार से वंचित रखा गया है, जबकि वे वहां पुरूषों से ज्यादा काम करती हैं.
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विशेषज्ञों का मानना है कि महिलाओं को बराबर का दर्जा दिए जाने की स्थिति में कृषि कार्यों में महिलाओं की बढ़ती तादाद से उत्पादन में बढ़ोत्तरी हो सकती है और भूख और कुपोषण को भी रोका जा सकता है. इसके अलावा ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार का परिदृश्य भी बदल सकता है.
बीते साल केंद्रीय कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय ने महिलाओं को कृषि क्षेत्र के प्रति जागरूक करने और उनको इस क्षेत्र में सम्मानजनक स्थान दिलाने के मकसद से हर साल 15 अक्टूबर को राष्ट्रीय महिला किसान दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया था. इसका मकसद कृषि में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी को बढ़ाना था.
ठोस उपाय जरूरी
विशेषज्ञों का कहना है कि महिला किसानों की हालत में सुधार की दिशा में ठोस कदम उठाना जरूरी है. आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 में भी कहा गया था कि रोजगार की तलाश में पुरुषों के शहरों की तरफ पलायन की वजह से खेती के काम में महिलाओं की भूमिका बढ़ रही है. बावजूद इसके, जमीन के मालिकाना हक के मामले में महिलाएं अब भी लैंगिक असमानता की शिकार हैं.
इसके साथ ही सिंचाई सुविधाओं की कमी और तकनीक तक पहुंच की राह में आने वाली दिक्कतें महिला किसानों के लिए एक मुख्य चुनौती है. सर्वेक्षण रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत की स्थिति को देखते हुए ग्रामीण महिलाओं को कृषि संबंधी प्रशिक्षण देना जरूरी है.
कृषि विशेषज्ञ डॉ. सुशांत मजुमदार कहते हैं, "महज महिला किसान दिवस मनाने भर से महिला किसानों का कुछ भला नहीं होगा. इसके लिए सरकार को इन महिलाओं की स्थिति और जरूरतों को ध्यान में रखते हुए ठोस नीतियां बनानी होंगी.”
लीची वाले बिहार में अब स्ट्रॉबेरी की मिठास
लीची और आम के लिए विख्यात बिहार अब स्ट्रॉबेरी भी उगा रहा है. ठंडे इलाकों में उगने वाले इस फल के बिहार जैसे वातावरण में उगने की कल्पना नहीं की थी लेकिन वैज्ञानिकों की कोशिश और किसानों के हौसले ने इसे मुमकिन कर दिखाया है.
तस्वीर: Bihar Agriculture University
बिहार में स्ट्रॉबेरी
भारत में हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र और कुछ दूसरे ठंडे इलाकों में स्ट्रॉबेरी की खेती हो रही थी. बिहार के किसानों और कृषि विश्वविद्यालय सबौर के वैज्ञानिकों ने इसे अपने इलाके उगा लिया है. यहां नवंबर से फरवरी तक का मौसम ठंडा रहता है और इसी मौसम में स्ट्रॉबेरी उगाई जा रही है.
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अक्टूबर में शुरुआत
अक्टूबर में इसके लिए पौधे लगाने के साथ काम शुरू होता है. दिसंबर तक पौधे तैयार होते हैं और फिर उनमें फूल आने शुरू हो जाते हैं. इसके बाद के दो तीन महीनों में इनसे फल निकलते हैं. गर्मी आने के साथ ही पौधे सूख जाते हैं इसलिए हर साल नए पौधे लगाने पड़ते हैं.
तस्वीर: Bihar Agriculture University
हर साल नए पौधे
यूरोपीय देशों और दूसरे ठंडे इलाकों या फिर ग्रीनहाउस में हो रही खेती का यही लाभ है कि यहां हर साल नए पौधे लगाने की जरूरत नहीं होती. एक बार पौधा लगाइए तो कई कई साल तक स्ट्रॉबेरी पैदा होती रहती है. जर्मनी में स्ट्रॉबेरी की कुछ किस्मों से तो छह साल तक फल निकलने का दावा किया जाता है.
तस्वीर: Bihar Agriculture University
स्वीट चार्ली, कामरोजा, विंटरडॉन, नबीला
बिहार कृषि विश्वविद्यालय में स्ट्रॉबेरी की विशेषज्ञ डॉ रूबी रानी ने बताया कि कई सालों तक 10-12 किस्मों पर प्रयोग किए और फिर देखा कि कुछ किस्में हैं जो यहां उगाई जा सकती हैं. बिहार में उपजाई जा रही स्ट्रॉबेरी की प्रमुख किस्मों में स्वीट चार्ली, कामरोजा विंटरडॉन, नबीला, फेस्टिवल शामिल हैं.
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गर्मी और बारिश का संकट
तमाम कोशिशों के बावजूद पौधों को अप्रैल के बाद जीवित रखने में काफी मुश्किल हो रही है. गर्मी और भारी बारिश के कारण पौधे नष्ट हो जाते हैं, इस वजह से किसानों को हर साल ठंडे इलाकों से पौधे मंगाने पड़ते हैं और फिर उन्हीं को दोबारा खेत में लगाया जाता है.
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पोषक तत्वों से भरपूर
दिल के आकार वाली खूबसूरत स्ट्रॉबेरी दिल के साथ ही ब्लड प्रेशर को नियंत्रित करने और कैंसर को दूर रखने में कारगर है. इसके अलावा कई पोषक तत्वों की मौजूदगी इसे बेहद फायदेमंद बनाती है. यही वजह है कि दुनिया भर में इसकी बड़ी मांग है.
तस्वीर: Bihar Agriculture University
मुश्किलों से पार पाई
मुश्किलें कई थीं लेकिन वैज्ञानिकों की जुटाई जानकारी और किसानों की मेहनत के बलबूते यह संभव हुआ. फिलहाल भागलपुर, औरंगाबाद, और आसपास के कई इलाकों में करीब 25-30 एकड़ में स्ट्रॉबेरी कारोबारी तरीके से उगाई जा रही है. इसके अलावा छोटे स्तर पर भी कई इलाके में इसे उगाया जा रहा है.
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आस पास के इलाकों में भारी मांग
बिहार में उपजी स्ट्रॉबेरी की आसपास के इलाकों में काफी मांग है. पटना, कोलकाता और बनारस के बाजारों में ही सारी पैदावर खप जाती है. यहां स्टोरेज की सुविधा भी नहीं है इसलिए ज्यादातर स्ट्रॉबेरी तुरंत ही बेच दी जाती है. वैज्ञानिक इन्हें प्रोसेसिंग के जरिए लंबे समय तक रखने की तकनीक पर भी काम कर रहे हैं.
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नगदी फसल
यहां किसानों को एक किलो स्ट्रॉबेरी के लिए 200 से 250 प्रति किलो की कीमत मिल रही है. नगदी फसल की भारी मांग को देख कर आसपास के इलाकों के किसान काफी उत्साहित हैं. स्ट्रॉबेरी की खेती में सफलता देख उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों से भी यहां लोग जानकारी के लिए आ रहे हैं.
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लीची नहीं स्ट्रॉबेरी
बिहार बासमती धान और अच्छे गेहूं के साथ ही आम और लीची जैसे फलों के लिए विख्यात है हालांकि बदलते वक्त की मार इन पर भी पड़ी है और किसानों को तमाम दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. स्ट्रॉबेरी ने लोगों को एक नयी फसल उगाने का रास्ता दिखा दिया है.