सियासी दलों की फंडिंग का फंडा
३ फ़रवरी २०१५याद कीजिये अप्रैल 2011 में जंतर मंतर का वह मंजर जहां से अन्ना हजारे की अगुवाई में तब के सामाजिक कार्यकर्ता अरविंद केजरीवाल ने भ्रष्टावार के खिलाफ ऐतिहासिक आंदोलन की हुंकार भरी थी. आंदोलन के मूल में मांग थी चुनाव सुधार प्रक्रिया को लागू करने की जिसके तहत सियासी दलों को समूची व्यवस्था में भ्रष्टाचार के लिए दोषी माना जा रहा था. चुनाव सुधार प्रक्रिया के केंद्र में राइट टू रिजेक्ट एवं राइट टू रिकॉल के अलावा राजनीतिक दलों को आरटीआई के दायरे में लाने की दो प्रमुख मांगे थीं. आंदोलन के फलस्वरुप राइट टू रिजेक्ट देकर पहली मांग आंशिक तौर पर मान ली गई जबकि सियासी दलों की फंडिग के दुश्चक्र को जनता की नजरों में लाने की दूसरी मांग को नहीं मानने पर सभी दल एकजुट हो गए.
सियासी दलों की यह हठ ही केजरीवाल की अगुवाई में आम आदमी पार्टी के जन्म का कारण बनी. आप ने सबसे पहले अपनी फंडिग की पाई पाई का हिसाब किताब सार्वजनिक कर नई राजनीति की शुरुआत करने के ऐलान को आगाज से अंजाम तक पहुंचाने का दावा ठोंक दिया. दो साल तक टीम केजरीवाल के इस दावे पर कोई आंच नहीं आ पाई. यहां तक कि पहले यूपीए और अब मोदी सरकार ने भी अपने स्तरों पर जांच करा कर आप की फंडिंग को सुप्रीम कोर्ट तक में क्लीनचिट दे दी.
अब चुनाव की दहलीज पर खड़ी दिल्ली में सत्ता के आखिरी पायदान पर पहुंचने से ठीक पहले आप को फंडिंग में फर्जीवाड़े के आरोप में घेर दिया गया है. बेशक आरोप गंभीर हैं लेकिन जिस तरह से आप ने इन आरोपों की जांच एसआईटी से कराने की मांग खुद मोदी सरकार से की है उससे विरोधी खेमों में असहज स्थिति पैदा हो गई है. हालांकि चुनाव के दौरान इस तरह के आरोप लगने की आशंका पहले ही थी लेकिन साफ दामन को गंदा करने के लिए कीचड़ का एक ही धब्बा काफी होता है.
इसलिए आप को यह दाग धोने की अग्निपरीक्षा से गुजरना ही होगा. फिलहाल गर्मागर्म सियासी माहौल में आप ने अपने ही खिलाफ विरोधी दल की सरकार से जांच कराने की मांग कर राजनीतिक बढ़त तो ले ही ली है. जहां तक राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे की साफगोई का सवाल है तो इसमें कालेधन की लिप्तता से किसी को कोई शक नहीं होना चाहिए. आप को छोड़कर भाजपा और कांग्रेस सहित अन्य सभी दल एकस्वर से अपनी पार्टियों के दानपात्र का ढक्कन खोलकर इसकी आमद को सार्वजनिक करने को तैयार नहीं हैं.
फंडिंग के पीछे का फंडा बिल्कुल साफ है कि सभी दलों की खानाखुराक कालेधन से ही चल रही है. मौजूदा नियमों तहत हर पार्टी को अपनी आय का लोखाजोखा आयकर विभाग को देना होता है. अब तक सभी दल अपने वित्तपोषण को मिलजुल कर पूरी ईमानदारी से सार्वजनिक होने से बचाने में कामयाब हैं. जबकि चुनाव सुधार की मांग कर रहे अग्रणी संगठन एडीआर के निदेशक जगदीप कोचर का मानना है कि सियासी दलों की फंडिंग में शुचिता सुनिश्चित करने के लिए इन्हें आरटीआई के दायरे में लाना ही एकमात्र उपाय है. इसकी ताकीद सूचना आयोग भी कर चुका है मगर सियासतदां इसके लिए कतई राजी नहीं हैं.
आप और गैरआप दलों के दोनों पक्ष सामने हैं. दोनों पक्षों से उभर रही तस्वीर भी बिल्कुल साफ है. एक छाती ठोक कर अपनी फंडिंग को हर दिन सार्वजनिक कर रहा है और गलत तरीके से पैसा जुटाने के आरोपों की जांच की मांग भी खुद कर रहा है जबकि दूसरी तरफ अन्य दल इसे सिर्फ सियासी नफानुकसान के चश्मे से देखने को मजबूर हैं. इन सबके बीच आप को अपने दामन पर लगे दाग से निजात मिलने का इंतजार होगा और मूकदर्शक बनने को विवश जनता इस बात का इंतजार करेगी कि मोदी सरकार एसआईटी का कब गठन करे.
ब्लॉग: निर्मल यादव