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सिर्फ मुसलमान ही नागरिकता कानून का विरोध नहीं कर रहे हैं

२५ दिसम्बर २०१९

दो हफ्तों से नागरिकता कानून के खिलाफ हो रहे विरोध प्रदर्शनों में सिर्फ मुसलमान ही सड़कों पर नहीं उतरे हैं, बल्कि प्रदर्शनकारियों में सभी धर्म, जाति, आयु और वर्ग के लोग शामिल हैं.

Indien, Neu-Delhi: Protestierende Jamia Milia Islamia Studenten
तस्वीर: DW/A. Ansari

भारत के अलग अलग हिस्सों में नागरिकता कानून के खिलाफ विरोध प्रदर्शन लगातार जारी हैं. हजारों प्रदर्शनकारी कानून के खिलाफ अपने गुस्से को जाहिर करने के लिए सड़कों पर निकल रहे हैं. उनका कहना है कि ये कानून अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय के खिलाफ भेदभाव करता है. लेकिन सिर्फ मुसलमान ही नहीं हैं जो विरोध कर रहे हैं, बल्कि बहुसंख्यक हिन्दू, दलित और पारसी समुदाय के लोग भी प्रदर्शनों में शामिल हो रहे हैं. प्रदर्शन लगभग दो हफ्तों से चल रहे हैं और इनमें अभी तक कम से कम 25 लोगों की जान जा चुकी है. 

केरसी 32 वर्ष के हैं और पारसी हैं. वह एक आईटी कंपनी में काम करते हैं. उन्होंने जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्रों द्वारा आयोजित प्रदर्शन में भाग लेने का निर्णय लिया. केरसी का कहना है कि वह चिंतित हैं क्योंकि देश की धर्मनिरपेक्ष बुनियाद को ऐसा धक्का लगा है, जैसा पहले कभी नहीं लगा था.

वह कहते हैं, "हमारे संविधान की नींव धर्मनिरपेक्षता पर टिकी है. देश के चरित्र के केंद्र में बहुसंस्कृतिवाद और बहुलता का एक तत्व है जो इस देश को बाकी देशों से अलग बनता है. इस नए कानून से उसे इतना खतरा पैदा हो गया है जितना पहले किसी भी चीज से नहीं हुआ. ये कदम एक ज्यादती है. ये एक मूलभूत बदलाव है जिसे वे थोपने की कोशिश कर रहे हैं और मैं इसे सहमत नहीं हूं और मानता हूं कि हमें इसे रोकने की कोशिश करनी चाहिए."

तस्वीर: DW/S. Ghosh

एक हिन्दू सवर्ण जाति से संबंध रखने वाली मानसी 29 वर्ष की हैं. वह अमेरिका में रहती हैं और आजकल छुट्टियों में दिल्ली आई हुई हैं. उनके साथ प्रदर्शन में उनके 64 वर्षीय पिता भी आए हैं. वे हाथ में समाज सुधारक और भारत के संविधान के निर्माता भीमराव आंबेडकर का एक कट-आउट लिए हुए हैं. 

मानसी कहती हैं, "पहले भी ऐसे कानून बने हैं जो बहुत ही विवादास्पद रहे हैं, लेकिन अब तो वो नागरिकता के अधिकार को ही बदलने की कोशिश कर रहे हैं जो हमारे लोकतंत्र की नींव में है. मुझे लगता है कि यह किसी भी एक समुदाय को प्रभावित करने वाले किसी कानून से कहीं ज्यादा व्यापक है. आप देश की ही पहचान बदल रहे हैं. देश के भविष्य का निर्णय करने के लिए किसे वोट देने का अधिकार मिलेगा, इसे भी बदल रहे हैं. ये बहुसंख्यकों की नैतिक जिम्मेदारी है कि वे अल्पसंख्यकों के अधिकारों के लिए खड़े हों."

नंदिनी एक हिन्दू हैं और दिल्ली विश्विद्यालय में प्रोफेसर हैं. वह कहती हैं कि वह जामिया विश्वविद्यालय के छात्रों के खिलाफ पुलिस की कथित बर्बरता से स्तब्ध थीं और यह दिखाना चाहती थीं कि वह उनके लिए खड़ी हो रही हैं. उन्होंने बताया, "मुझे लगता है अब बहुत हो चुका है. यह जरूरी है कि हमें अपना मतभेद व्यक्त करने की गुंजाइश मिले. इसका यह मतलब नहीं है कि हम सरकार के खिलाफ हैं. हम तो सरकार से मांग कर रहे हैं कि वह ऐसी नीतियां लाए जो सबके लिए बराबर हों और विभाजनकारी और पक्षपाती ना हों".

तस्वीर: DW/A. Ansari

20 साल के प्रणव यादव एक छात्र हैं और पिछड़ा वर्ग से हैं. वह इस प्रदर्शन में भाग लेने के लिए अपने माता पिता से झूठ बोल कर आए हैं क्योंकि "ऐसे समय में जब मेरे देश पर फासीवादी ताकतों का हमला हो रहा हो, मैं बस हाथ पर हाथ रख घर पर नहीं बैठे रह सकता." उनका कहना है, "यह भारत में मुसलमानों पर हमला करने की एक तरह की सुनियोजित योजना है. जब भी बीजेपी सत्ता में होती है उसका एक मूल एजेंडा होता है मुसलमानों को निशाना बनाना. मुसलमानों के बाद, वो और किसी समुदाय को निशाना बना सकते हैं."

प्रोमिला चतुर्वेदी 79 वर्ष की हैं और एक सवर्ण हिन्दू हैं. उनका कहना है कि "अब उनके अंदर ज्यादा शक्ति नहीं है", इसके बावजूद उन्हें लगता है कि अन्याय के खिलाफ आवाज उठाना महत्वपूर्ण है. वो कहती हैं, "मैं अपने संविधान को बचाना चाहती हूं. मैं मुस्लिम समुदाय से एकजुटता दिखाना चाहती हूं. हम लोग उनसे कहना चाहते हैं कि हम आप के साथ हैं, अपने खून की आखिरी बूंद तक". चतुर्वेदी यह भी कहती हैं, "इसकी हमारे स्वंत्रता के संघर्ष से भी तुलना की जा सकती है लेकिन यह उससे ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि अंग्रेज तो बाहरी लोग थे लेकिन ये हमारे अपने लोग हैं. अगर ये ऐसा बर्ताव करेंगे तो हम बर्दाश्त नहीं करेंगे."

सीके/एके (एएफपी)

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