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सिर पर मैला ढोने को मजबूर मुडली की महिलाएं

१५ मई २०१२

दो दशक पहले भारत में मैला ढोने की प्रथा पर रोक लगा दी गई है. लेकिन अभी भी देश के कई हिस्सों में यह परंपरा जारी है. महात्मा गांधी के नाम पर राजीनिति करने वाले इस मुद्दे पर आंख बंद करके बैठे हैं.

मुडली की मैला ढोने वाली महिलाएंतस्वीर: Lakshmi Narayan

जिस परिवार की महिलाएं इस काम में लगी हैं वह कहती हैं कि उनके पास इसके अलावा घर चलाने का कोई रास्ता नहीं है. उत्तरी भारत के मुडली गांव में डॉयचे वेले की संवाददाता लक्ष्मी नारायण पहुंची.

भारत के कई गावों की तरह उत्तर भारत के गांव मुडली में भी सिवेज नहीं, यानी घर से गंदा पानी निकलने की कोई प्रणाली यहां नहीं है. तो ऐसे शौचालय भी नहीं जहां मल निकास की व्यवस्था हो. 1993 में प्रतिबंधित यह काम आज भी पूरे देश में कई हजार महिलाएं करती हैं.

वर्ण व्यवस्था के मारे देश में जो काम कोई नहीं करना चाहता वह काम करने वाले इन लोगों का आभार, धन्यवाद तो दूर उन्हें और उनके काम को नीची नजर से देखा जाता है.

अभी भी वहीं

शादी होने के बाद यानी करीब 20 साल से सुनीता मल साफ करने और ढोने का काम कर रही हैं. वह देख रही हैं कि आसपास की दुनिया बेहतर हो रही है लेकिन उसकी दुनिया बीस साल से वहीं ठहरी हुई है. "दुनिया में इतने बदलाव हुए हैं लेकिन हमारे लिए सब वैसा का वैसा ही है. हम अभी भी उसी नर्क में हैं."

तस्वीर: Lakshmi Narayan

एक अरब से ज्यादा की जनसंख्या वाले भारत में आधे लोगों के पास टॉयलेट की सुविधा नहीं है. हाल ही में रिपोर्ट भी आई कि भारत में टॉयलेट से ज्यादा मोबाइल हैं. देश भर में करीब सात लाख टॉयलेट्स ऐसे हैं जहां मल निकास की व्यवस्था नहीं, इन्हें ड्राई लैट्रिन्स कहा जाता है और यहां से मल साफ करने के लिए लोगों की जरूरत है.

अपने सिर पर मैला उठाए गुड्डी दूसरी ऐसी महिला है जो अपना घर इस काम से चलाती हैं. मुंह पर कपड़ा बांधे वह गोबर डालती हैं और मैला उठाती हैं ताकि बदबू उन्हें परेशान न करे. इसके लिए उन्हें हर घर से महीने के पचास रुपये मिलते हैं या खाना मिलता है. "मैं यह मैला उठाती हूं और इसे फेंक देती हूं. वह हमें हर छह महीने में 10 किलो गेहूं देते हैं या फिर पैसे देते हैं."

विकल्पहीन

मुडली में यही काम करने वाली एक अन्य महिला शांता हैं. "हम जब भी यह काम करते हैं, घर में बैठे बच्चों को याद करते हैं. यह काम कर के ही हम अपने बच्चों को हर रोज खाना दे सकते हैं."

मुडली में यह काम करने वाली सभी महिलाएं कहती हैं कि वह इसे छोड़ने को तैयार हैं लेकिन उन्हें दूसरा कोई काम नहीं मिलता. सुनीता कहती हैं, "अगर हमें कोई और नौकरी मिल जाए, या कोई काम हम शुरू कर सकें तो हम यह परंपरा तोड़ सकते हैं."

सरकार मल ढोने की प्रथा रोकने के लिए पांच हजार रुपये का लोन देती है ताकि वे कोई और काम कर सकें. लेकिन यह पैसा पाना बहुत मुश्किल है. बेजवैडे विल्सन एक एक्टिविस्ट हैं जो भारत भर में मल ढोने की परंपरा खत्म करने के लिए काम कर रहे हैं. वह इन महिलाओं को दूसरा काम ढूंढने में मदद करते हैं. "यह महिलाओं की विफलता नहीं है, सरकार की है. आप किसी एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति का मल उठाने के लिए कैसे कह सकते हैं और हम उसे स्वीकार कैसे कर सकते हैं?"

सिर पर मैला ढो कर ले जाती गुड्डीतस्वीर: Lakshmi Narayan

नया कानून

समाज कल्याण मंत्री मुकुल वासनिक ने पत्रकारों के सामने माना कि भले ही इस पर 1993 में रोक लगा दी गई लेकिन यह प्रथा खत्म नहीं हुई है. ड्राई लैट्रिंस का बनाना भी रोका नहीं जा सका है. इसलिए कानून पूरी तरह लागू नहीं हो सका है. वासनिक ने वादा किया है कि पहली अगस्त से शुरू होने वाले नए संसद सत्र में नया कानून लाया जाएगा जिसमें मल ढोने के अलावा, चोक नालियां साफ करने जैसे कामों पर भी रोक लगाई जाएगी. एक पूरी पीढ़ी जो अच्छी शिक्षा, सामाजिक पहचान के लिए जूझ रही है उसे इस भयानक काम से मुक्ति मिलने का कागजी इंतजाम तो कम से कम हो ही जाएगा.

रिपोर्टः लक्ष्मी नारायण, मुडली (आभा मोंढे)

संपादनः ईशा भाटिया

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