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समाज

सिस्टम ने नहीं सुनी, तो लोगों ने खुद बनाया पुल

११ जून २०१८

भारत की आजादी के पहले से ही उपरौंध गांव के लोग पुल की मांग कर रहे थे. लेकिन जब 70 साल बाद भी किसी ने उनकी नहीं सुनी तो उन्होंने खुद यह काम अपने हाथ में ले लिया.

Indien Dorfbewohner bauen eine Brücke
तस्वीर: DW/S. Mishra

भारत गांवों में भले ही बसता हो लेकिन गांवों की समस्याएं अक्सर न तो बाहर निकलकर आ पाती हैं और आ भी जाएं तो उनका तुरंत निदान हो जाए, ये जरूरी नहीं है. इसका जीता जागता उदाहरण इलाहाबाद जिले का उपरौंध गांव है जहां देश की आजादी के पहले से ही एक अदद पुल की मांग हो रही थी लेकिन जब आजादी के सत्तर वर्षों भी बाद भी सरकार ने पुल बनवाने की जरूरत नहीं समझी तो गांव वालों ने यह करना का जिम्मा खुद उठाया.

इलाहाबाद के ग्रामीण क्षेत्र उपरौध की डेढ़ लाख की आबादी वाले इलाके को अपने ब्लॉक मांडा और तहसील मुख्यालय कोरांव तक पहुंचने के लिए लगभग तीस किलोमीटर का सफर तय करना पड़ता है. बीच में बेलन नदी पड़ती है जिसे पार करने से ये दूरी महज दस किलोमीटर ही रह जाएगी. इसीलिए इस नदी पर एक छोटा सा पुल बनाने के लिए ग्रामीण लंबे समय से मांग कर रहे थे.

उपरौंध गांव के रहने वाले विकास बताते हैं, "जब पुल बनाने की मांग पर कोई कार्रवाई नहीं हुई तो एक दिन गांव वालों ने तय किया कि हम लोग अपने ही सहयोग से इसे बनाएंगे. उसी दिन श्रमदान और पैसे देने के लिए गांव और आस-पास के ही कई लोग तैयार हो गए. इसकी पहल कुछ युवाओं ने की थी. जब लोगों का समर्थन देखा तो सभी उत्साहित हुए और पुल का निर्माण शुरू हो गया.”

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दरअसल, इस पुल के बन जाने से करीब आधा दर्जन गांवों के लिए तहसील मुख्यालय और कुछ अन्य दफ्तरों की दूरी तो कम होगी ही, तमाम स्कूलों और कॉलेजों की दूरी भी कम हो जाएगी जिससे छात्रों-छात्राओं को काफी सहूलियत होगी.

बेलन नदी पर फिलहाल पुल का निर्माण शुरू हो चुका है और काफी कुछ बन भी गया है. गांव के कई लोग श्रमदान कर रहे हैं, कई लोग आर्थिक सहयोग दे रहे हैं और इलाके के ही कुछ राज मिस्त्री इसे बनाने का काम कर रहे हैं. गांव के लोग खुद ही सीमेंट, बालू जैसी जरूरी चीजों का इंतजाम कर रहे हैं.

युवकों के साथ-साथ इलाके की महिलाएं भी श्रमदान में लगी हैं. दर्जनों लोग यहां हर रोज घंटों काम कर रहे हैं और उन्हें उम्मीद है कि अगले एक-दो महीने में पुल बनकर तैयार हो जाएगा और उस पर आना-जाना शुरू हो गया है. लोगों का कहना है कि उनकी इस पहल को देखकर भी यहां कोई जन प्रतिनिधि नहीं आया और न ही किसी ने कोई मदद दी.

पुल को बनाने में लगे एक व्यक्ति राम कुमार कहते हैं, "करीब साढ़े नौ सौ फीट लंबे और 12 फीट चौड़े इस रपटे यानी पुल के निर्माण में करीब 30 लाख रुपये तक खर्च होने का अनुमान है. इसमें जो लोग श्रमदान कर रहे हैं उसका मूल्य नहीं जुड़ा है. काफी पैसे का इंतजाम हो चुका है, बाकी अभी हो रहा है. यहां के लोगों के अलावा भी कुछ लोगों ने आर्थिक सहयोग दिया है.”

तस्वीर: DW/S. Mishra

उपरौंध के रहने वाले एक बुजुर्ग दीनानाथ इस बात से बेहद खुश नजर आते हैं कि लोग ये पहल खुद कर रहे हैं, "हम लोगों को अपने ब्लॉक मुख्यालय मांडा तक पहुंचने में 35 किलोमीटर और तहसील मुख्यालय कोरांव पहुंचने में करीब 25 किलोमीटर का सफर तय करना होता है. बेलन नदी पर रपटा या पुल बनवाने की मांग आजादी के पहले से की जा रही है लेकिन किसी ने नहीं सुना. हमारे ही इलाके के रहने वाले वीपी सिंह मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक बने, लेकिन बेलन नदी पर एक छोटा सा रपटा आज तक नहीं बन सका. कोई बात नहीं, बच्चों ने खुद बनाने की कसम खाई है तो बना ही लेंगे और सबको दिखा देंगे कि जो कुछ सोच लो, उसे करने से कोई रोक नहीं सकता.”

हालांकि ग्रामीणों की इस इच्छा शक्ति और जिजीविषा को देखते हुए अब प्रशासन भी आगे आया है. इलाहाबाद के जिलाधिकारी सुहास एलवाई बताते हैं कि शासन को पत्र लिखकर इस बारे में बता दिया गया है. उनका कहना है कि स्थायी पुल भले ही न बन सके लेकिन कम से कम रपटा यानी लकड़ी और बांस-बल्ली से तैयार कच्चा पुल जरूर बन जाएगा.

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मांडा विकास खण्ड के कई गांव ऐसे हैं जहां जहां गर्मियों में पेय जल की समस्या रहती है. बेलन नदी मिर्जापुर से निकलकर इलाहाबाद जिले में नारीबारी के पास टोंस नदी में मिलती है.

उत्तर प्रदेश के कुछ अन्य इलाकों में भी लोगों ने शासन-प्रशासन की अनदेखी पर ग्रामीण विकास के ऐसे तमाम काम किए हैं. पिछले दिनों कन्नौज जिले के उमर्दा ब्लॉक के करीब आधा दर्जन गांव के हजारों लोगों ने भी मिलकर एक पुल का निर्माण कर लिया.

इन लोगों को गांव से मुख्यालय तक की दूरी तय करने के लिए करीब बीस किलोमीटर लंबा चक्कर लगाना पड़ता था. अरसे तक ग्रामीणों ने जन प्रतिनिधियों और प्रशासनिक अफसरों तक दौड़ लगाई लेकिन किसी ने नहीं सुनी तो खुद हल निकाल लिया.

करीब 50 फीट लंबा पुल बल्लियों और पटरे के सहारे तैयार कर दिया गया. हालांकि बारिश में अभी भी लोग पटरों पर बने पुल से गुजरने में थोड़ी दिक्कत महसूस करते हैं लेकिन बाकी समय उन्हें एक सुगम रास्ता मिल गया है. गांव वाले अब इस पुल को कंक्रीट का बनाने की कोशिश कर रहे हैं.

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