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सुंदरबन के आख़िरी रक्षक

सौजन्यः संदीपसिंह सिसोदिया, वेबदुनिया२० जुलाई २००९

सुंदरबन अपनी प्राकृतिक ख़ूबसूरती और बेमिसाल बाघों के लिए जाना जाता है. लेकिन हाल के दिनों में बाघों की संख्या घटती जा रही है. इसे बचाने के प्रयास हो रहे हैं क्योंकि सुंदरबन के अस्तित्व के लिए भी बाघ ज़रूरी हैं.

अकेले रहने के आदी बाघतस्वीर: UNI

बंगाल की खाड़ी के मुहाने पर 7,900 वर्ग मील क्षेत्रफल में फैला सुंदरबन मैनग्रोव पारिस्थिति तंत्र दुनिया का सबसे बड़ा मैनग्रोव मैंग्रोव क्षेत्र है. भारत और बांग्लादेश का एकमात्र मैनग्रोव जंगल. यहां आज भी बाघ अपनी दहाड़ से अपने अस्तित्व का परिचय देते स्वछंद विचरण करते हैं. दुरूह दलदली क्षेत्र में फैले और 'बाघादेव' के ज़रिए संरक्षित सुंदरबन के बारे में भारत और बांग्लादेश में बहुत चर्चा नहीं है पर इतना तो पता चल ही चुका है कि सुंदरबन के इस रक्षक को अब कम होते क्षेत्र, घटते शिकार और शिकारियों के कारण भारी नुक़सान हो रहा है. इसी तरह प्राकृतिक आपदाओं और मनुष्य की गतिविधियों से बाघों की शरणस्थली मैनग्रोव जंगल भी अब तेजी से खत्म होते जा रहे हैं.

प्राकृतिक आपदाओं से बचाव:

समुद्र तट को ताक़तवर लहरों, तूफानों, यहां तक कि सूनामी तक से बचाने वाली इस
स्वच्छंद घूमना चाहते हैं बाघतस्वीर: picture alliance/dpa
मैनग्रोव रक्षापंक्ति का निर्माण होता है ताज़े पानी और खारे पानी के मिलन से बनने वाले तलछ्ट पर. इसकी दलदली मिट्टी बहुत उपजाऊ होती है और मैनग्रोव के लिए आदर्श मानी जाती है. स्थानीय लोगों के मुताबिक इस क्षेत्र में बहुतायत से मिलने वाले सुंदरी (मैनग्रोव की एक प्रजाति) के पेड़ों के नाम पर इसे सुंदरबन कहा जाता है. इसका एक बड़ा क्षेत्र बांग्लादेश में है.

पिछले 2000 सालों के विकासक्रम से गुज़र चुके सुंदरबन मैनग्रोव क्षेत्र में पशु पक्षियों की अनेक प्रजातियों को आसरा है. इसे 1973 में टाइगर रिज़र्व के रूप में घोषित कर दिया गया और 1984 में इसे सुंदरबन राष्ट्रीय उद्यान बनाया गया. 1997 में इसे यूनेस्को ने विश्व धरोहर का दर्जा दिया.

घटती तादाद पर चिंता :

सुंदरबन के बाघों की घटती तादाद पर 'टाइगर कंसर्वेशन लैंडस्केप ऑफ ग्लोबल प्रायोरिटी' के एक विस्तृत अध्ययन पर आधारित रिपोर्ट बनाई जा रही है. इस अध्ययन का मक़सद है मैनग्रोव जंगलों में बाघों की विकास प्रक्रिया को समझना, उनकी संख्या की सही जानकारी और बाघों और मनुष्यों के बीच लगातार बढ़ती मुठभेड़ों के कारणों को पता करना. इसका एक और मक़सद यह भी पता लगाना है कि सुंदरबन के अस्तित्व के लिए बाघों का होना कितना जरूरी है.
हाल के वर्षों में सुंदरबन में आम लोगों पर बाघों के हमले की घटनाओं में अचानक इज़ाफ़ा हुआ है. अमूमन हर साल 15-20 से अधिक ऐसी घटनाएं दर्ज की जाती हैं जिनमें से कुछ में ही भाग्यशाली लोग बच पाते हैं. दूरस्थ इलाकों की घटनाएं तो अकसर पता ही नहीं चल पातीं या लोग इन्हें दर्ज नहीं करवाते. दरअसल सुंदरबन का बहुत सा क्षेत्र लोगों के लिए प्रतिबंधित है, पर मछुआरे और लकड़ी तथा शहद बटोरने वाले
मनुष्य से बैर नहींतस्वीर: UNI
अकसर चोरी छिपे इन जंगलों में घुस जाते हैं.

यह क्षेत्र जो कि रिजर्व का बफर जोन है, दरअसल टाइगर टेरिटरी होता है. आम तौर पर हर बाघ अपने इलाके को अपने मल मूत्र से चिह्नित करते हैं. पर सुंदरबन में हर रोज़ आने वाले ज्वार और इस क्षेत्र में अकसर होने वाली भारी बरसात इन निशानों को धो देती है, जिस वजह से यहां बाघ अपना क्षेत्र चिह्नित नहीं कर पाते और अकसर भटकते हुए मानव बस्ती या जंगल के किनारे रहने वालों के पास पहुंच जाते हैं.

आतंक के प्रतीक:

बताया जाता है कि सुंदरबन के लगभग पांच प्रतिशत बाघ आदमखोर हैं. यह अनुमान उम्मीद से ज्यादा भी हो सकता है क्योंकि पिछले दो सालों में प्रतिबंधित क्षेत्र में अवैध तरीके से लोगों की घुसपैठ बढ़ी है. इसका एक कारण यह भी है कि अंडमान निकोबार में आई सूनामी के बाद काफी बड़े स्तर पर निर्माण जारी था, जिसमें बड़ी संख्या में सुंदरबन के लोगो को वहां रोज़गार मिला पर काम पूरा होने के बाद लोग अपने क्षेत्रों में लौट आए हैं और रोज़ी रोटी की तलाश में प्रतिस्पर्धा के चलते बहुत से लोग प्रतिबंधित क्षेत्रों में जाने से भी गुरेज़ नहीं करते. गैरसरकारी आंकड़ों पर नजर डालें तो पता चलता है कि पिछले साल कुल 50 से अधिक लोग बाघ के हमलों में मारे गए और ज्यादातर हमले उत्तर पश्चिम में हुए जो कि 1225 वर्ग किलोमीटर में फैले बफ़र ज़ोन में आता है.

इसकी और भी कई वजह हैं जैसे अधिकतर हमले अप्रैल मई में हुए जब मैनग्रोव के खिलने का समय होता है और लोग शहद एकत्र करने जंगल में जाते हैं. पर इसी मौसम में बाघिन अपने बच्चों को जन्म देती है और अत्यधिक खतरनाक होती है. इसी वजह से कई बार बाघों से मारे गए व्यक्ति की बिना खाई लाश मिलती है, वे सिर्फ मारने के लिए हमला करते हैं खाने के लिए नहीं. वन्यजीव विशेषज्ञ बताते हैं कि अधिकतर मामलों में मनुष्य को मारने वाली बाघिन अपने शावक को भी आदमखोर बना सकती है.

प्राकृतिक कारण:

अकेले रहने के आदी बाघ अपने क्षेत्र में घुसने वाले किसी भी प्राणी को बर्दाश्त नहीं करते और एक बार
बाघिन के साथ तीन बच्चेतस्वीर: AP
मनुष्य को मारने के बाद उन्हें वह अपने प्राकृतिक शिकारों जंगली सूअर और हिरण के बनिस्बत काफ़ी आसान शिकार लगता है. इसी वजह से उम्रदराज़ बाघ खास तौर पर आदमख़ोर होते पाए गए हैं. समुद्री जलस्तर के बढ़ने से मैनग्रोव में मिलने वाले अपने प्राकृतिक आहार में आई कमी से भी बाघों के भोजन स्त्रोत पर काफी असर पड़ा है. अपने घटते भोजन से बाघ भी अब मानव बस्तियों औ गाय भैंस जैसे आसान शिकार की ओर ज्यादा आकर्षित होने लगे हैं.
बेबस जनता: बरसों से उपेक्षित, घोर गरीबी व अशिक्षा के कारण भारत के इस मुहाने के लोग अल्पतम साधनों से बसर करते हैं. इनकी जीविका का मुख्य साधन गाय भैंस और भेड़ बकरियां हैं जिन्हें चरने के लिए जंगल के किनारे छोड़ दिया जाता है जो बाघ के लिए आसान शिकार हैं. अपने क्षेत्र को चिह्नित करने में असमर्थ बाघ कई बार भटकते हुए जंगल के किनारे पहुंच जाते हैं और अगर एक बार उन्होंने इन घरेलू जानवरों का शिकार कर लिया तो फिर मनुष्य पर उनके हमले की संभावना बढ़ जाती है.

विलक्षण व्यवहार:

आम तौर पर जंगली जानवर इनसानों से डरते हैं और उनका सामना करने से बचते हैं, पर यहां के बाघों के बारे में कहा जाता है कि वे बहुत ही अधिक खूंखार हैं. प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार कई बार बाघ बीच नदी में मछली पकड़ते मछुआरों को उनकी नौकाओं तक से खींच ले गए हैं. उनका इस क़दर ताक़तवर होना इसलिए भी लाज़मी है कि इन्हें शिकार अकसर दलदली क्षेत्र में करना पड़ता है जिसमें बहुत ताकत की आवश्यकता होती है. सुंदरबन में ताज़े पानी के स्रोत बहुत ही कम हैं और बाघों को अकसर खारा पानी पीना पड़ता है जो शायद उनके इस खूंखार व्यवहार का कारण है. पर उनके इस व्यवहार के चलते ही लोग इन जंगलों में जाते डरते हैं और इस विलक्षण प्राणी को बाघादेव मान पूजते हैं. इस वजह से अब तक सुंदरबन मानव गतिविधियों से काफी हद तक अछूता रहा है.

आमने सामने:

पर अब हालात बिगड़ रहे हैं. पश्चिम बंगाल सरकार हर साल 40,000 से ज़्यादा लोगों को जंगल से शहद और वनोपज एकत्र करने, मछली पकड़ने का परमिट देती है. पर पैसा कमाने के लालच में हजारों लोग अवैध रूप से इन जंगलों और तटों पर वनोपज इकट्ठा करने व मछली पकड़ने जाते हैं.
इसी तरह कई गांव जैसे शमशेरनगर, कालीताला, कुलताली और झारखाली ठीक जंगल के किनारे पर बस गए हैं. कुछ गांवों की दूरी तो घने जंगल से बस इतनी ही है जितनी बाघ एक छ्लांग में पार कर ले. यह नजदीकियां अब बाघ और मनुष्य दोनों के लिए मुसीबतें ला रही हैं और बढ़ते टकराव के नतीजे में अब लोग ‘बाघादेव’ के खिलाफ लामबंद होने लगे हैं जिसके कारण अब बाघों की भी जान जाने लगी है.
इनसान और जानवर की इस लड़ाई में नुक़सान जो भी हो, एक बात तो साफ है कि जंगल और बाघ का रिश्ता ठीक वैसा ही है जैसे जंगल और वर्षा का. दोनों में से एक का भी अनुपात बिगड़े तो पूरे पारिस्थिति तंत्र पर असर पड़ना तय है.

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