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सुपरनोवा के रहस्य से उठेगा पर्दा

१६ दिसम्बर २०११

अनंत अंतरिक्ष में एक सुपरनोवा के विस्फोट के कुछ ही घंटों के अंदर यह वैज्ञानिकों की पकड़ में आ गया. इसके बाद ब्रह्मांड को सबसे ज्यादा चकाचौंध कर डालने वाले चमकीले राज के बारे में बहुत कुछ बताया जा सकता है.

तस्वीर: AP/NASA

इसी साल 24 अगस्त को अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने सहस्त्रों अरब मील दूर हुए एक विस्फोट का प्रकाश लगभग 11 घंटे बाद पकड़ लिया. इस विस्फोट के कारण एसएन 2011 एफई सुपरनोवा का निर्माण हुआ, जो पिछले 25 सालों में पृथ्वी के सबसे निकट उत्पन्न हुआ सुपरनोवा था. वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यह जगह हमारी धरती से मात्र दो करोड़ प्रकाश वर्ष दूर है. प्रकाश वर्ष को प्रकाश की गति में मापा जाता है. यानी 365 दिन में प्रकाश जितनी दूरी तय करेगी, उसे एक प्रकाश वर्ष कहा जाता है. एक प्रकाश वर्ष में अनुमानित 10,000,000,000,000 (एक हजार अरब) किलोमीटर होते हैं.

अमेरिका के लॉरेंस बेर्केली नेशनल लेबोरेट्री के पीटर नूगेंट ने बताया, "सुपरनोवा के विस्फोट के मात्र 11 घंटे बाद हमें यह दिख गया. इस वजह से हमें 20 मिनट के अंदर ही इसके होने के वास्तविक समय का पता लग गया. इसके बाद हमें जो जानकारियां मिली हैं, कोई उसके बारे में सपने में भी नहीं सोच सकता था."

बदलती धारणा

1ए टाइप के सुपरनोवा से उत्पन्न ऊर्जा को ही किसी भी सुपरनोवा की दूरी मापने के लिए मानक के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है. सुपरनोवा के खोज से जुड़ी जानकारी जुटाने पर इस साल का नोबेल पुरस्कार भी दिया गया है. वैज्ञानिकों का दावा है कि अंतरिक्ष का विस्तार हो रहा है, जबकि पहले धारणा यह थी कि अंतरिक्ष बढ़ नहीं रहा है बल्कि सिकुड़ रहा है.

खगोल वैज्ञानिकों का दावा है कि तीन कारणों से 1ए टाइप का सुपरनोवा बन सकता है. लेकिन ये अद्भुत खगोलीय घटनाएं कोई 100-200 साल में सिर्फ एक बार होती हैं. इन तीनों ही मामलों में व्हाइट ड्वार्फ नाम का टूटता हुआ एक बुजुर्ग तारा अपने पड़ोसी तारों की ऊर्जा और द्रव्य खींचता है. इसी प्रक्रिया के दौरान एक भयंकर विस्फोट होता है और यह तारा टुकड़े टुकड़े में बंट जाता है. इस विस्फोट से जो रोशनी पैदा होती है, वह सूरज के प्रकाश से एक अरब गुना ज्यादा चमकीली होती है.

तस्वीर: Fotolia/mozzyb

क्या है सुपरनोवा

किसी बुजुर्ग तारे के टूटने से वहां जो ऊर्जा पैदा होती है, उसे ही सुपरनोवा कहते हैं. कई बार एक तारे से जितनी ऊर्जा निकलती है, वह हमारे सौरमंडल के सबसे मजबूत सदस्य सूरज के पूरे जीवन से निकलने वाली ऊर्जा से भी ज्यादा होती है.

सुपरनोवा की ऊर्जा इतनी बलवान होती है कि वह हमारी धरती की आकाशगंगा को कई हफ्तों तक फीका कर सकती है. व्हाइट ड्वार्फ को धरती के आकार का हीरा बताया जाता है. इसके बस एक चम्मच द्रव्य का वजन 10 टन तक हो सकता है. ज्यादातर व्हाइट ड्वार्फ गर्म होते होते पलक झपकते लोप हो जाते हैं. लेकिन कुछ गिने चुने व्हाइट ड्वार्फ दूसरे तारों से मिल कर सुपरनोवा का निर्माण करते हैं.

राज और भी हैं

अब सवाल यह उठता है कि वे कौन से तारे होते हैं, जो व्हाइट ड्वार्फ की मदद करते हैं. इन्हें दूसरा व्हाइट ड्वार्फ या रेड जाएंट तारा कहते हैं. हमारी सौर मंडल का प्रमुख तारा सूर्य भी एक रेड जाएंट है. ली वाइडांग की टीम ने हबल स्पेस टेलिस्कोप से कुछ तस्वीरें जमा की हैं, जिसमें विस्फोट से पहले रेड जाएंट पकड़ में आ गया है. उस वक्त उसकी ऊर्जा हमारे सूर्य से 10,000 गुना ज्यादा थी.

नुगेंट की टीम ने इस खोज को थोड़ा आगे बढ़ाने की कोशिश की है. कैलिफोर्निया के प्रयोगशाला से उन्होंने जो जानकारी जमा की, उसके मुताबिक सुपरनोवा के विस्फोट के बाद इसका कुछ मलबा उस पड़ोसी तारे पर गिरता है, जिससे आतिशबाजी जैसा नजारा दिखता है.

हालांकि वैज्ञानिकों को अभी इस बारे में पक्का पता नहीं लग पाया है कि इन पड़ोसी तारों का आकार क्या होता है. यहीं आकर खगोल विज्ञानियों को हाथ रोक लेना पड़ता है. अंतरिक्ष और ब्रह्मांड जितने राज खोलता है, उतने नए राज सामने भी ले आता है. अब टिकटिकी डाल कर तारे देखने वाले अंतरिक्ष विज्ञानियों को कम से कम 30 साल का इंतजार करना पड़ेगा. तब अगले सुपरनोवा विस्फोट की उम्मीद है. और अगर किस्मत अच्छी हुई, तो वह सुपरनोवा धरती के बहुत पास अपनी आकाशगंगा में भी बन सकता है.

रिपोर्टः एएफपी/ए जमाल

संपादनः एन रंजन

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