सुप्रीम कोर्ट ने आधार कार्ड योजना को तो संवैधानिक घोषित कर दिया है लेकिन उसके प्रावधानों पर रोक लगा दी है और आम नागरिक को कुछ राहत देते हुए उसके दुरुपयोग को रोकने के उद्देश्य से महत्वपूर्ण निर्देश भी दिए हैं.
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आधार कार्ड को ले कर पांच-सदस्यीय संविधान पीठ के भीतर इस पर पूरी तरह से एक राय नहीं बन पायी और जस्टिस धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ने चार न्यायाधीशों की राय से पूर्ण असहमति जताते हुए आधार संबंधी कानून को पूरी तरह से असंवैधानिक माना. यदि भविष्य में कभी किसी वृहत्तर संविधान पीठ ने इस प्रश्न पर पुनर्विचार किया, तब उनकी राय और उसे पुष्ट करने के लिए दिए गए कानूनी तर्क एक बार फिर महत्वपूर्ण हो उठेंगे. लेकिन अभी तो बहुमत की राय को ही देश का कानून माना जाएगा.
प्रधान न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्र, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस एके सीकरी और जस्टिस अशोक भूषण ने आधार कानून को संविधानसम्मत मानते हुए भी उसके अनेक प्रावधानों को रद्द कर दिया है, जबकि जस्टिस चंद्रचूड़ ने इसे संसद में "धन विधेयक" की तरह पारित किए जाने को संविधान के नाम पर किया गया फ्रॉड बताया है, जो अपने आप में बहुत गंभीर और कड़ी टिप्पणी है.
बहरहाल अब सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गयी व्यवस्था के तहत पैन कार्ड और आधार कार्ड को आपस में जोड़ना और आयकर रिटर्न भरने के लिए आधार का होना अनिवार्य है. सरकार द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी और अन्य लाभों के लिए भी आधार अनिवार्य कर दिया गया है लेकिन निजी कंपनियां इसके लिए नागरिकों को बाध्य नहीं कर सकेंगी.
सर्वोच्च अदालत ने सरकार को आगाह किया है कि वह इन सब्सिडियों और लाभों का दायरा अधिक न बढ़ाए. अब मोबाइल फोन के लिए नया सिम कार्ड लेने, बैंक में नया खाता खोलने, स्कूल में प्रवेश लेने और जेईई, सीबीएसई तथा यूजीसी की परीक्षाओं में बैठने के लिए आधार कार्ड की कोई जरूरत नहीं रह गयी है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह विकल्प नहीं दिया है कि जिन लोगों ने आधार कार्ड की जानकारी मुहैया करा दी है, वे इसे वापस ले सकें यानी 'ऑप्ट-आउट' का विकल्प नहीं है.
कानूनी जानकार यह सवाल भी उठा रहे हैं कि ऑनलाइन आयकर रिटर्न भरने के लिए यदि आधार कार्ड अनिवार्य है, तो फिर बैंकों के लिए भी वह एक तरह से अनिवार्य ही हो जाएगा. यानी आज के फैसले के बाद भी यह झोल बना रहेगा और आगे भी इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट के सामने याचिकाएं लाए जाने की संभावना बनी रहेगी.
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को यह निर्देश भी दिया है कि वह डाटा संरक्षण के लिए जल्दी ही एक मुकम्मल और मजबूत कानून बनाए और सुनिश्चित करे कि अवैध रूप से आने वालों को आधार कार्ड न दिया जाए. सुप्रीम कोर्ट ने वह प्रावधान भी रद्द कर दिया है जिसके तहत राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर नागरिकों के बारे में सभी डाटा साझा किया जा सकता था. यानी सुप्रीम कोर्ट ने बीच का रास्ता अपनाया है और आधार कार्ड की अवधारणा को बचाते हुए उसके दुरुपयोग पर अंकुश लगाने की कोशिश की है. लेकिन आज के फैसले के बाद भी यह सवाल बना रहेगा कि क्या डाटा चोरी के इस युग में नागरिकों की निजता का संरक्षण हो सकेगा. क्या उनका बायोमीट्रिक डाटा सरकार की निगरानी में सुरक्षित है? आशा है कि आने वाले दिनों में इन सवालों का जवाब भी तलाशा जाएगा.
किस देश में कितनी सुरक्षित है नागरिकों की सूचना
भारत में अभी यह बहस छिड़ी है कि नागरिकों के पास निजता का मूल अधिकार है या नहीं. लेकिन विश्व के कुछ देशों में सरकार के अधिकारों और नागरिकों की प्राइवेसी को लेकर नियम साफ हैं.
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अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट ने दिखायी राह
विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र में निजता का अधिकार गंभीर मसला है. हालांकि यह संविधान में उल्लिखित नहीं लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कई संशोधनों की व्याख्या इस तरह की, जिससे प्राइवेसी के अधिकार का पता चलता है. संविधान का चौथा संशोधन बिना किसी "संभावित कारण" के किसी की तलाशी पर रोक लगाता है. कुछ अन्य संशोधनों में नागरिकों को बिना सरकारी दखलअंदाजी के अपने शरीर और निजी जीवन से जुड़े फैसले लेने का अधिकार है.
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खास है प्राइवेसी एक्ट, 1974
अमेरिका के इस एक्ट के अंतर्गत सरकारी दस्तावेजों में दर्ज किसी की निजी जानकारियों को बिना उसकी अनुमति के देश की कोई केंद्रीय एजेंसी हासिल नहीं कर सकती. अगर किसी एजेंसी को जानकारी चाहिए तो पहले उसे बताना होता है कि उसे किस काम के लिए उस सूचना की जरूरत है. सोशल सिक्योरिटी नंबर को लेकर यह विवाद है कि इससे सरकारी एजेंसी यह जान जाती है कि कोई व्यक्ति टैक्स भरता है या नहीं या कैसे सरकारी अनुदान लेता है.
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जापान का 'माइ नंबर'
2015 में जापान में नागरिकों की पहचान से जुड़ा एक नया सिस्टम शुरु हुआ. इसमें टैक्स से जुड़ी जानकारी, सामाजिक सुरक्षा के अंतर्गत मिलने वाले फायदों और आपदा राहत के अंतर्गत मिलने वाली मदद को एक साथ लाया गया. आलोचकों की भारी निंदा के बावजूद सरकार ने इसे शुरु कर दिया. सभी जापानी नागरिकों और वहां के विदेशी निवासियों को 12 अंकों की संख्या 'माइ नंबर' मिली. सरकार अब इसमें बैंक खातों को भी जोड़ना चाहती है.
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डाटा लीक के लिए सरकार जिम्मेदार
जापान में भी निजता के अधिकार को साफ साफ परिभाषित नहीं किया गया है. लेकिन जापानी संविधान में नागरिकों को "जीवन, आजादी और खुशी तलाशने" का अधिकार है. 2003 में निजी सूचना की सुरक्षा का कानून बना, जिसमें लोगों की जानकारी को सुरक्षित रखना अनिवार्य है. जब भी किसी व्यक्ति के डाटा का इस्तेमाल होगा, तो उसे इसके मकसद के बारे में जानकारी दी जाएगी. निजी डाटा को लीक से बचाने के लिए सरकार कानूनी रूप से बाध्य है.
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डाटा सुरक्षा में भी यूरोपीय समरसता
पूरे यूरोप में डाटा प्रोटेक्शन डायरेक्टिव लागू होते हैं. इसके अंतर्गत लोगों की सूचना के रखरखाव और इस्तेमाल पर कई तरह की रोक है. ईयू के सदस्य देशों को "ऐसे तकनीकी और संगठनात्मक उपाय लागू करने होते हैं जिससे किसी के डाटा का गलती या गैरकानूनी इस्तेमाल ना हो, ना ही उसे कोई अनाधिकृत व्यक्ति पा सके, बदल सके या किसी तरह का नुकसान पहुंचा सके.” इस नियम का उल्लंघन होने पर न्यायिक उपायों का व्यवस्था है.
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स्वीडन की स्कैंडेनेवियन सोच
स्वीडन विश्व का पहला देश था जहां नागरिकों को पहचान संख्या दी गयी. हर सरकारी कामकाज में इसका इस्तेमाल अनिवार्य हुया. लेकिन अगर किसी की सूचना उसकी जानकारी के बिना इस्तेमाल की जाये और उस पर नजर रखी जाये, तो इसके खिलाफ सुरक्षा मिलेगी. स्वीडन जैसे स्कैंडेनेवियाई देशों में सरकार से नागरिकों को इतने भत्ते मिलते हैं, जिनके लिए लोगों का पहचान नंबर देना जरूरी होता है. प्राइवेसी की चिंता यहां बहुत कम है.
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भारत के सामने नया सवाल
दुनिया के तमाम देशों में सरकारें अपने नागरिकों की ज्यादा से ज्यादा जानकारियां जुटाने में लगी हैं. ज्यादातर इसे प्रभावी कामकाज से जोड़ा जा रहा है. अब तक किसी दूसरे व्यक्ति या निजी समूहों से अपनी जानकारी बचाने की चिंताएं, अब सरकार से अपनी जानकारियां बचाने पर आ पहुंची हैं. सवाल सरकार की कार्यकुशलता बढ़ाने के लिए डाटा के इस्तेमाल और सवा अरब लोगों के डाटा की सुरक्षा का है.