वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण को अदालत की अवमानना का दोषी करार देने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने सजा नहीं सुनाई. इतना ही नहीं, अदालत ने भूषण को अपने बयान पर पुनर्विचार करने के लिए और समय दे दिया.
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सुनवाई से पहले प्रशांत भूषण ने अदालत से अनुरोध किया था कि आज उन्हें सजा ना सुनाई जाए क्योंकि वो उन्हें दोषी सिद्ध करने वाले अदालत के फैसले पर पुनर्विचार याचिका दायर करना चाहते हैं. सुनवाई टली तो नहीं, लेकिन उन्हें सजा नहीं सुनाई गई. ऐसा कम ही होता है कि किसी को अपराधी ठहराने के बाद सजा सुनाने की तय तिथि पर सुप्रीम कोर्ट सजा ना सुनाकर उसे अपने किए पर पुनर्विचार के लिए और वक्त दे दे.
सुनवाई के पहले अदालत में दायर किए गए अपने वक्तव्य में भूषण ने महात्मा गांधी को दोहराते हुए कहा, "मैं क्षमा नहीं मांगता. मैं उदारता का अनुरोध नहीं करता. मैं यहां प्रसन्नतापूर्वक प्रस्तुत हूं हर उस सजा को स्वीकार करने के लिए जो मुझे कानूनी रूप से दी जा सकती है. जिसे यह अदालत अपराध मानती है, उसे मैं एक नागरिक का सर्वोच्च कर्त्तव्य मानता हूं."
भूषण ने यह भी कहा कि उन्हें खेद सजा मिलने की संभावना पर नहीं है बल्कि इस बात पर है कि उन्हें गलत समझा गया. उन्होंने यह भी कहा कि उन्होंने पिछले तीन दशक से अदालत के एक रक्षक के रूप में काम किया है और जिन बयानों के लिए उन्हें सजा दी जाने वाली है उन्हें व्यक्त करना उनके जैसे व्यक्ति के लिए और ज्यादा जरूरी था.
अटॉर्नी जनरल का समर्थन
दिलचस्प यह रहा है कि आज की सुनवाई में अटॉर्नी जनरल ने भी भूषण के बचाव में दलीलें रखीं और अदालत से उन्हें सजा ना देने की अपील की. वेणुगोपाल वैसे तो इस सुनवाई में बार के सबसे वरिष्ठ सदस्य के नाते सम्मिलित थे, लेकिन अटॉर्नी जनरल केंद्र सरकार का सबसे वरिष्ठ न्यायिक अधिकारी होने के नाते सरकार का नुमाइंदा भी होता है. भूषण को केंद्र सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी बीजेपी के एक मुखर आलोचक के रूप में जाना जाता है. इसके बावजूद सरकार की तरफ से आज वेणुगोपाल ने भूषण का समर्थन किया.
उन्होंने भूषण के अदालत में भ्रष्टाचार के आरोपों का भी समर्थन किया और कहा कि कम से कम नौ पूर्व जज खुद कह चुके हैं कि उच्चतर न्यायपालिका में भ्रष्टाचार है. उन्होंने यह भी कहा कि उनके पास सुप्रीम कोर्ट के पांच सेवानिवृत्त जजों की एक लिस्ट है जिन्होंने कहा था कि अदालत में लोकतंत्र विफल हो गया है. वो और भी दलीलें देना चाह रहे थे लेकिन अदालत ने उन्हें रोकते हुए कहा कि पीठ को उनकी राय सिर्फ इस बात पर चाहिए कि भूषण को अपने बयानों पर पुनर्विचार करने के लिए और समय देना चाहिए या नहीं.
वेणुगोपाल ने पीठ से कहा कि समय देना अच्छा ही रहेगा, हालांकि वो भूषण को 30 सालों से जानते हैं और उन्हें इसकी संभावना कम ही नजर आती है कि वो अपना बयान बदलेंगे. भूषण ने भी यही कहा, लेकिन 3-4 दिनों का समय लेने के अदालत के सुझाव को मान लिया.
लक्ष्मण रेखा
प्रशांत भूषण की तरफ से उनके वकील दुष्यंत दवे और राजीव धवन ने अदालत से कहा कि अवमानना पर फैसला देने से पहले बयान देने वाले के व्यक्तित्व पर भी विचार करना चाहिए. कानून और न्याय के क्षेत्र में भूषण के योगदान के बारे में याद दिलाते हुए दोनों वकीलों ने कोयला खनन घोटाला, सीवीसी को हटाने, 2जी घोटाला, नर्मदा पर बांध, पुलिस सुधार, इच्छा मृत्यु, रेहड़ी-पटरी वालों के अधिकार, सिंगुर भूमि अधिग्रहण, सूचना का अधिकार जैसे मामले गिनाए और कहा कि जनहित के ये सारे के सारे केस भूषण ने निःशुल्क लड़े.
जस्टिस अरुण मिश्रा ने कहा कि पीठ भी भूषण की कोशिशों की सराहना करती है, लेकिन लक्ष्मण-रेखा किसी को पार नहीं करनी चाहिए. उन्होंने यह भी बताया कि उन्होंने बतौर जज अपने कार्यकाल में आज तक किसी को अवमानना का दोषी नहीं ठहराया. अंत में भूषण को और समय देने के साथ सुनवाई समाप्त हो गई.
माना जा रहा है कि पीठ का भूषण को सजा ना सुनाना, उन्हें पुनर्विचार करने के लिए उनके ठुकराने के बावजूद उन्हें और समय देना, उनके काम की सराहना करना और विशेष रूप से जस्टिस मिश्रा का यह कहना कि उन्होंने आज तक किसी को अवमानना का दोषी नहीं ठहराया, इस बात का संकेत हैं कि अदालत खुद अब इस मामले को रफा दफा करना चाह रही है.
क्या अदालत पर दबाव है?
दरअसल जब से भूषण को अदालत ने अवमानना का दोषी ठहराया है, तब से इस फैसले को लेकर देश में काफी विरोध सामने आया है. कई आम नागरिकों, पत्रकारों, टीकाकारों, एक्टिविस्टों, अधिवक्ताओं और यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जजों ने भी फैसले की आलोचना की है और सार्वजनिक रूप से प्रशांत भूषण का समर्थन किया है.
भूषण के वकीलों ने सुनवाई के दौरान भी अदालत को बताया कि सुप्रीम कोर्ट के ही कम से कम चार पूर्व जजों ने भूषण का समर्थन किया है. जानकारों का कहना है कि इसी संभव है कि इसी वजह से अदालत अपने फैसले को लेकर अपने ऊपर दबाव महसूस कर रही हो और विवाद को शांत करना चाह रही हो.
राजस्थान में कांग्रेस विधायकों के विद्रोह के कारण एक संवैधानिक संकट उत्पन्न हो गया है, जिसमें स्पीकर को हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाना पड़ा. हाल में और किन राज्यों में हुआ है सत्ता को लेकर संवैधानिक संकट?
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मध्य प्रदेश
नवंबर 2018 में हुए विधान सभा चुनावों में जीत हासिल कर कांग्रेस ने सरकार बनाई गई थी और कमल नाथ मुख्यमंत्री बने थे. लेकिन मार्च 2020 में ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस छोड़ बीजेपी में शामिल हो गए और उनके साथ कांग्रेस के 22 विधायकों ने भी इस्तीफा दे दिया. सुप्रीम कोर्ट ने कमल नाथ सरकार को फ्लोर टेस्ट का सामना करने का आदेश दिया. इसके कमल नाथ ने इस्तीफा दे दिया और शिवराज नए मुख्यमंत्री बने.
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कर्नाटक
2018 में हुए विधान सभा चुनावों के बाद राज्यपाल ने बीजेपी के बीएस येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के लिए निमंत्रण दे दिया. कांग्रेस इस कदम के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चली गई और आधी रात को अदालत में सुनवाई हुई. बाद में अदालत ने राज्यपाल के फैसले को गलत ठहराते हुए फ्लोर टेस्ट का आदेश दिया. येदियुरप्पा ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और जेडी (एस) के एचडी कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बने.
तस्वीर: IANS
कर्नाटक (दोबारा)
जुलाई 2019 में जेडी (एस) और कांग्रेस के विधायकों के इस्तीफे से मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी की सरकार अल्पमत में आ गई. विधायक जब मामले को सुप्रीम कोर्ट ले गए तब अदालत ने स्पीकर को विधायकों का इस्तीफा मंजूर करने का आदेश दिया और बाद में उन्हें अयोग्य घोषित किए जाने से सुरक्षा भी प्रदान की. विधान सभा में फ्लोर टेस्ट हुआ और कुमारस्वामी की सरकार गिर गई. बीजेपी के येदियुरप्पा फिर से मुख्यमंत्री बन गए.
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महाराष्ट्र
नवंबर 2019 में महाराष्ट्र विधान सभा चुनावों के नतीजे आ जाने के दो सप्ताह तक रही अनिश्चितता के बीच एक दिन अचानक राज्यपाल ने बीजपी नेता देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी. कांग्रेस और एनसीपी ने राज्यपाल के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी. अदालत के फ्लोर टेस्ट के आदेश देने पर फडणवीस ने इस्तीफा दे दिया और कांग्रेस, एनसीपी और शिव सेना ने मिलकर सरकार बनाई.
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जम्मू और कश्मीर
जून 2018 में जम्मू और कश्मीर में बीजेपी और पीडीपी की गठबंधन सरकार से बीजेपी के अचानक समर्थन वापस ले लेने से राजनीतिक और संवैधानिक संकट खड़ा हो गया. मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को इस्तीफा देना पड़ा. राज्य में राज्यपाल का शासन लगा दिया गया. छह महीने बाद राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया और अगस्त 2019 में केंद्र ने जम्मू और कश्मीर का राज्य का दर्जा ही खत्म कर दिया और उसकी जगह दो केंद्र-शासित प्रदेश बना दिए.
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बिहार
जुलाई 2017 में बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने इस्तीफा दे दिया और आरजेडी और कांग्रेस के साथ गठबंधन वाली अपनी ही सरकार गिरा दी. कुमार को बीजेपी के विधायकों का समर्थन मिल गया और राज्यपाल ने उन्हें फिर से मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने का निमंत्रण दे दिया. आरजेडी ने पटना हाई कोर्ट में इसके खिलाफ याचिका दायर कर दी जो खारिज कर दी गई और कुमार फ्लोर टेस्ट में बहुमत साबित कर फिर से मुख्यमंत्री बन गए.
तस्वीर: IANS
गोवा
मार्च 2017 में गोवा विधान सभा चुनावों के बाद जब राज्यपाल ने बीजेपी नेता मनोहर परिकर को सरकार बनाने का निमंत्रण दे दिया, तब सबसे ज्यादा विधायकों वाली पार्टी कांग्रेस ने राज्यपाल के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी. सुप्रीम कोर्ट ने फ्लोर टेस्ट का आदेश दिया, जिसमें मुख्यमंत्री पद के शपथ ग्रहण करने के बाद परिकर ने बहुमत साबित कर दिया.
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अरुणाचल प्रदेश
दिसंबर 2015 में सत्तारूढ़ कांग्रेस के कुछ विधायकों और डिप्टी स्पीकर ने विद्रोह के बाद स्पीकर पर महाभियोग लगाने का प्रस्ताव पारित कर दिया गया. स्पीकर ने हाई कोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी. जनवरी 2016 में राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया. फरवरी में कलिखो पुल ने सरकार बना ली. जुलाई में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन को गैर-कानूनी करार दिया और कांग्रेस की सरकार को बहाल किया.
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उत्तराखंड
मार्च 2016 में सत्तारूढ़ कांग्रेस के विद्रोही विधायकों ने विपक्ष के साथ मिलकर बजट पर वोटिंग की मांग की, लेकिन स्पीकर ने ध्वनि मत से बजट पारित करा दिया. विद्रोही विधायक राज्यपाल के पास चले गए और उनकी अनुशंसा पर केंद्र ने मुख्यमंत्री हरीश रावत की सरकार बर्खास्त कर दी. राष्ट्रपति शासन लागू हो गया. रावत की याचिका पर उत्तराखंड हाई कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन हटा दिया और रावत सरकार को बहाल किया.