सुप्रीम कोर्ट ने नए कृषि कानूनों पर रोक लगा दी है. सरकार और किसानों के बीच गतिरोध को खत्म करने के लिए अदालत एक समिति गठित करेगी, लेकिन किसानों की तरफ से इस समिति की चर्चा में शामिल होने की उम्मीद कम लग रही है.
तस्वीर: Altaf Qadri/AP/picture-alliance
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सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद तीनों नए कृषि कानून फिलहाल देश में कहीं भी लागू नहीं हो पाएंगे, लेकिन इन्हें निरस्त नहीं किया जाएगा. आदेश देते हुए चीफ जस्टिस एसए बोबडे ने कहा, "हम तीनों कृषि कानूनों पर अगले आदेश तक रोक लगा रहे हैं." अदालत ने इसके साथ तीनों कानूनों और उन्हें लेकर किसानों की मांगों की समीक्षा के लिए विशेषज्ञों की एक समिति बनाने का भी आदेश दिया.
समिति के सदस्य नियुक्त करने से पहले अदालत ने सरकार से विशेषज्ञों के नाम सुझाने को कहा है. चीफ जस्टिस ने अपनी तरफ से जाने माने कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी, भारतीय किसान यूनियन के एक धड़े के अध्यक्ष भूपिंदर सिंह मान, इंटरनेशनल फूड पॉलिसी संस्था के दक्षिण एशिया निदेशक प्रमोद कुमार जोशी और शेतकारी संगठन के अनिल घनवत को समिति के सदस्यों के रूप में मनोनीत किया.
हालांकि सुप्रीम कोर्ट का यह हस्तक्षेप गतिरोध को अंत करने में कितना सहायक सिद्ध होगा यह कहा नहीं जा सकता, क्योंकि बड़ी संख्या में धरने पर बैठे किसानों ने कानूनों पर रोक लगाने और समिति गठित करने के आदेश को ठुकरा दिया है. उनका कहना है कि उनकी मांग तीनों कानूनों को निरस्त करने की है और सिर्फ रोक लगाए जाने से वे संतुष्ट नहीं हैं. सुनवाई में किसानों की तरफ से शामिल होने वाले दुष्यंत दवे, कॉलिन गोंसाल्विस, एचएस फूल्का जैसे कई वकील मंगलवार की सुनवाई में शामिल भी नहीं हुए.
दिल्ली की सीमा पर धरने पर बैठे किसान.तस्वीर: Seerat Chabba/DW
कुछ किसानों का प्रतिनिधित्व कर रहे अधिवक्ता एमएल शर्मा ने जब अदालत को बताया कि किसान किसी भी समिति के आगे आने के लिए तैयार नहीं हैं तो चीफ जस्टिस ने कहा कि अदालत को यह स्वीकार्य नहीं है और हर वो व्यक्ति जो दिल से इस समस्या के समाधान में रूचि रखता है वो समिति के आगे जाएगा. जानकारों के बीच सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को लेकर राय बंटी हुई है.
कुछ जानकार इसे गतिरोध का समाधान ढूंढने की दिशा में अच्छा कदम मान रहे हैं तो कुछ इसे सरकार के लिए मददगार और किसानों के लिए निराशाजनक मान रहे हैं. ग्रामीण विकास और कृषि संबंधित मुद्दों पर रिपोर्ट करने वाली समाचार वेबसाइट रूरलवॉइस के मुख्य संपादक हरवीर सिंह ने डीडब्ल्यू को बताया कि कोर्ट के इस आदेश ने बातचीत की गुंजाइश तो उत्पन्न की है लेकिन गतिरोध का समाधान किसानों और सरकार के बीच बातचीत से ही होगा.
हरवीर सिंह ने बताया कि समिति के जिन सदस्यों के नामों की घोषणा कोर्ट ने की है वो सब इन तीनों कृषि कानूनों के पक्ष में हैं और इसीलिए किसान उनसे बात नहीं करेंगे. यह बात और भी कई लोग कह चुके हैं.
हरवीर सिंह ने यह भी बताया कि किसान तो यहां तक कह चुके हैं कि सुप्रीम कोर्ट का काम किसी भी कानून की संवैधानिकता पर फैसला देना होता है जबकि यहां तो कानूनों के बनाए जाने का ही विरोध हो रहा है. इसलिए सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश का दिल्ली की सीमाओं पर बैठे किसानों के प्रदर्शन पर असर पड़ने की गुंजाइश कम ही लगती है.
सबसे पहले अध्यादेश के रूप में जून में लाए गए कानूनों का किसान अपने प्रांतों में विरोध कर रहे थे. लेकिन जब दिल्ली ने उनकी आवाज नहीं सुनी तो वो अपनी मांगों को लेकर दिल्ली ही आ गए. देखिए किसान आंदोलन को कैमरे की नजर से.
तस्वीर: Aamir Ansari/DW
आतंकवादी नहीं किसान
पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड से हजारों किसान नए कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली में प्रदर्शन करने के लिए निकले लेकिन पुलिस ने उन्हें दिल्ली की सीमाओं पर ही रोक दिया. राशन-पानी ले कर आए किसानों ने वही डेरा जमाया और आंदोलन छेड़ दिया. पुलिस के डंडे, ठंडे पानी की बौछार और आंसू गैस के गोलों के अलावा किसान प्रदर्शनकारियों ने जाहिल, आढ़तियों के एजेंट और आतंकवादी होने तक के आरोपों का सामना किया.
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बात चंद किसानों की नहीं
हजारों की संख्या में किसान जीन तीन नए कृषि कानूनों का विरोध कर रहे हैं, वो हैं आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून, कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) कानून और कृषक (सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार कानून. इनका उद्देश्य ठेके पर खेती को बढ़ाना, भंडारण की सीमा तय करने की सरकार की शक्ति को खत्म करना और अनाज, दालों, सब्जियों के दामों को तय करने को बाजार के हवाले करना है.
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आर-पार की लड़ाई
किसान सिर्फ भारी संख्या में ही नहीं आए, बल्कि महीनों का राशन साथ लेकर आए हैं. सरकार ने नए कानूनों को किसानों के लिए कल्याणकारी बताया है, लेकिन किसानों का मानना है कि इनसे सिर्फ बड़े उद्योगपतियों का फायदा होगा और छोटे और मझौले किसानों को अपने उत्पाद के सही दाम नहीं मिल पाएंगे. उनका कहना है कि इन कानूनों की वजह से कृषि उत्पादों की खरीद की व्यवस्था में छोटे और मझौले किसानों का शोषण बढ़ेगा.
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पुलिस की बर्बरता का सामना
जय जवान और जय किसान का नारा लगाने वाले देश में किसान और जवान आमने सामने हैं. आंदोलन के दौरान किसानों को पुलिस की लाठियों का भी सामना करना पड़ा. कई बुजुर्ग किसान घायल हो गए और हालात कठिन होने की वजह से कुछ किसानों की मौत भी हो गई.
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सर्दी में संघर्ष
सभी स्थानों पर किसान या तो खुले में या पतले शामियानों के नीचे दिन और रात बिता रहे हैं. सड़क-मार्ग से ही राजधानी आए किसान अपने ट्रैक्टरों को भी साथ लाए हैं, जो अब यहां पर उनका वाहन भी बना हुआ है, बेंच भी, बिस्तर भी और छत भी.
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लंबी जद्दोजहद की तैयारी
किसान मान कर आए हैं कि केंद्र सरकार आसानी से उनकी मांगें नहीं मानेगी. इसलिए वो लंबे समय तक डेरा डालने की तैयारी करके आए हैं. धरना स्थलों पर खुद ही रोज अपना खाना पकाते हैं और खा-पी कर फिर धरने पर बैठ जाते हैं. सरकार के साथ बातचीत में भी वे अपना ही खाना लेकर जाते हैं और सरकारी खाना ठुकरा देते हैं.
तस्वीर: Seerat Chabba/DW
महिला शक्ति भी मौजूद
आंदोलन सिर्फ पुरुषों के कंधों पर ही नहीं चल रहा है. कुछ महिलाएं गांवों में खेती संभाल रही हैं तो कुछ मोर्चे पर डटी हुई हैं और पुरुषों का कंधे से कंधा मिला कर साथ दे रही हैं.
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किताबों का साथ भी
धरना स्थलों पर प्रदर्शनकारियों का साथ देने, उनका हौसला बढ़ाने और उनकी सेवा करने कई लोग पहुंचे हुए हैं. कोई खाना खिला रहा है, कोई पानी पिला रहा है, कोई डॉक्टरी मदद दे रहा है तो कोई किताबें भी बांट रहा है.
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मीडिया से नाराजगी
प्रदर्शनकारियों में मीडिया के एक धड़े के खिलाफ भी सख्त नाराजगी है. उनका आरोप है कि कुछ बड़े मीडिया संस्थान सिर्फ सरकार का पक्ष जनता के सामने परोस रहे हैं और सिर्फ किसानों की आलोचना कर रहे हैं.
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हुक्के के बिना कैसे हो किसान आंदोलन
विशेष रूप से दिल्ली और नॉएडा की सीमा पर धरने पर बैठे पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आए किसान जरूरत जी दूसरी चीजों के साथ हुक्का भी साथ लाए हैं. सरकार के सामने पहले पलक किसानों की ना झपक जाए, इसीलिए इस लंबी लड़ाई में धैर्य और हुक्के का सहारा भी लिया जा रहा है.